शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक
दिनांक : 29 नवम्बर से 30 नवम्बर 2025
तिथि : मार्गशीर्ष शुक्ल की नवमी से मार्गशीर्ष की दशमी तक
स्थान : भारतीय शिक्षा शोध संस्थान, सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ
(विद्या भारती में शोध की अनिवार्यता, गुणवत्ता-उन्नयन और संगठनात्मक समन्वय पर केंद्रित)
प्रस्तावना
विद्या भारती द्वारा आयोजित यह दो दिवसीय “शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक” भारतीय शिक्षा शोध संस्थान, लखनऊ में अत्यंत प्रेरक, सार्थक और उद्देश्यपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुई। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य था—विद्या भारती के विशाल शैक्षिक तंत्र में शोध को एक संगठित, प्रमाण-आधारित और भविष्यदर्शी आधार प्रदान करना, ताकि भारतीय शिक्षा की मूलभूत दृष्टि, उसके मूल्य और सिद्धांत दृढ़ता के साथ स्थापित हो सकें, तथा वर्तमान शैक्षिक चुनौतियों को शोध के माध्यम से समग्रता में समझकर उनके प्रभावी समाधान भी विकसित किए जा सकें।
विद्या भारती द्वारा आयोजित यह दो दिवसीय “शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक” भारतीय शिक्षा शोध संस्थान, लखनऊ में अत्यंत प्रेरक, सार्थक और उद्देश्यपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुई। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य था—विद्या भारती के विशाल शैक्षिक तंत्र में शोध को एक संगठित, प्रमाण-आधारित और भविष्यदर्शी आधार प्रदान करना, ताकि भारतीय शिक्षा की मूलभूत दृष्टि, उसके मूल्य और सिद्धांत दृढ़ता के साथ स्थापित हो सकें, तथा वर्तमान शैक्षिक चुनौतियों को शोध के माध्यम से समग्रता में समझकर उनके प्रभावी समाधान भी विकसित किए जा सकें।
प्रथम दिन
उद्घाटन सत्र
प्रथम दिन का प्रारंभ सरस्वती वंदना और दीप-प्रज्वलन से हुआ। उद्घाटन सत्र में अखिल भारतीय संगठन मंत्री, विद्या भारती—आदरणीय गोविंदजी महंत; अखिल भारतीय शोध प्रमुख—आदरणीया नंदिनी दीदी; क्षेत्रीय संगठन मंत्री आदरणीय हेमचंद्र जी की विशेष उपस्थिति रही साथ ही क्षेत्रीय मंत्री—पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रो. सौरभ मालवीय जी भी रहे।
उद्घाटन सत्र
प्रथम दिन का प्रारंभ सरस्वती वंदना और दीप-प्रज्वलन से हुआ। उद्घाटन सत्र में अखिल भारतीय संगठन मंत्री, विद्या भारती—आदरणीय गोविंदजी महंत; अखिल भारतीय शोध प्रमुख—आदरणीया नंदिनी दीदी; क्षेत्रीय संगठन मंत्री आदरणीय हेमचंद्र जी की विशेष उपस्थिति रही साथ ही क्षेत्रीय मंत्री—पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रो. सौरभ मालवीय जी भी रहे।
सत्र ने शोध-केंद्रित इस बैठक की औपचारिक शुरुआत को गरिमा और गंभीरता प्रदान की।
इसके बाद प्रो. सौरभ मालवीय जी ने बैठक की प्रस्तावना प्रस्तुत की। उन्होंने शोध की दिशा, उसकी आवश्यकता और विद्या भारती की शैक्षिक दृष्टि में उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला। तत्पश्चात देश के 11 क्षेत्रों से आए *42* प्रतिभागियों का परिचय कराया गया, जो इस बैठक के अखिल भारतीय स्वरूप को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।
उद्घाटन संबोधन: अखिल भारतीय संगठन मंत्री, विद्या भारती आदरणीय गोविंदजी महंत
आदरणीय गोविंदजी महंत ने शोध की वर्तमान स्थिति, उसकी संगठनात्मक भूमिका और आने वाले वर्षों की दिशा पर गहन विचार व्यक्त किए। उन्होंने भावपूर्वक उल्लेख किया कि भोपाल में माननीय सुरेश सोनी जी के मार्गदर्शन में ‘शोध, विद्वत परिषद, मानक परिषद और प्रशिक्षण’—इन चारों के संयुक्त स्वरूप, परस्पर संवाद और समन्वय पर विस्तृत मनन-विमर्श सम्पन्न हुआ था। तथापि, शोध-विषयों पर केंद्रित इस प्रकार की अखिल भारतीय बैठक पहली बार सुव्यवस्थित रूप से आयोजित हो रही है, जो संगठन की शोध-दृष्टि को एक नई दिशा प्रदान करती है। उन्होंने यह भी बताया कि विद्या भारती ने शोध के लिए ‘भारतीय शोध संस्थान’ के रूप में एक स्वतंत्र और समर्पित विभाग की स्थापना की है, जो विविध विषयों पर पूरे वर्ष सतत् कार्य करता है और संगठन के शोध-चिंतन को निरंतर ऊर्जा प्रदान करता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक प्रांत अपने-अपने संदर्भों में शोध की दिशा तय करे, शोध के विषय पहचाने और इस प्रक्रिया को सतत प्रवाह में लाए। शोध निरंतरता का विषय है; उसके अभाव में नवाचार रुक जाता है। उन्होंने कहा—“There is stagnation without innovation”, और शोध के माध्यम से ही नवाचार को सतत बनाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के राममंदिर ध्वजारोहण के उद्बोधन का संदर्भ देते हुए कहा कि पिछले लगभग दो सौ वर्षों से चली आ रही 1835 की मैकॉले-प्रेरित शैक्षिक दृष्टि से हमें आने वाले दस वर्षों में बाहर निकलने के लिए हमें एक प्रमाण-आधारित, तर्कसंगत और शोध-समर्थित दृष्टि का निर्माण करना होगा। उन्होंने बताया कि किस प्रकार वामपंथी शिक्षण–समूहों ने वर्षों तक “भारत” शब्द को NCERT की पुस्तकों में ‘भारत’ शब्द को स्वीकार करने से भी हठपूर्वक विमुख बने रहे, और यही समूह शिक्षा-नीतियों को दशकों तक दिशा देते रहे। आज भी अनेक नीति-निर्धारण संस्थाओं—UGC, NCTE, AICTE इत्यादि में इसी सोच का प्रभाव दिखाई देता है। ऐसे में “मानस परिवर्तन” की आवश्यकता कहीं अधिक गहरी हो जाती है, विशेषकर तब जब हम विकसित और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार बदल चुकी है, परंतु शिक्षा और शोध में वास्तविक परिवर्तन तभी होगा जब हम स्वयं बदलने का संकल्प लें—और भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित शिक्षा को प्रमाणिक, प्रभावी और विश्व-स्तर पर प्रस्तुत कर सकें। शोध के माध्यम से हमें एक ऐसा “Evidence-based Bhartiya Education Model” स्थापित करना होगा जिसे विद्या भारती विश्व के समक्ष उदाहरण के रूप में रख सके।
आदरणीय गोविंदजी महंत ने शोध की वर्तमान स्थिति, उसकी संगठनात्मक भूमिका और आने वाले वर्षों की दिशा पर गहन विचार व्यक्त किए। उन्होंने भावपूर्वक उल्लेख किया कि भोपाल में माननीय सुरेश सोनी जी के मार्गदर्शन में ‘शोध, विद्वत परिषद, मानक परिषद और प्रशिक्षण’—इन चारों के संयुक्त स्वरूप, परस्पर संवाद और समन्वय पर विस्तृत मनन-विमर्श सम्पन्न हुआ था। तथापि, शोध-विषयों पर केंद्रित इस प्रकार की अखिल भारतीय बैठक पहली बार सुव्यवस्थित रूप से आयोजित हो रही है, जो संगठन की शोध-दृष्टि को एक नई दिशा प्रदान करती है। उन्होंने यह भी बताया कि विद्या भारती ने शोध के लिए ‘भारतीय शोध संस्थान’ के रूप में एक स्वतंत्र और समर्पित विभाग की स्थापना की है, जो विविध विषयों पर पूरे वर्ष सतत् कार्य करता है और संगठन के शोध-चिंतन को निरंतर ऊर्जा प्रदान करता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक प्रांत अपने-अपने संदर्भों में शोध की दिशा तय करे, शोध के विषय पहचाने और इस प्रक्रिया को सतत प्रवाह में लाए। शोध निरंतरता का विषय है; उसके अभाव में नवाचार रुक जाता है। उन्होंने कहा—“There is stagnation without innovation”, और शोध के माध्यम से ही नवाचार को सतत बनाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के राममंदिर ध्वजारोहण के उद्बोधन का संदर्भ देते हुए कहा कि पिछले लगभग दो सौ वर्षों से चली आ रही 1835 की मैकॉले-प्रेरित शैक्षिक दृष्टि से हमें आने वाले दस वर्षों में बाहर निकलने के लिए हमें एक प्रमाण-आधारित, तर्कसंगत और शोध-समर्थित दृष्टि का निर्माण करना होगा। उन्होंने बताया कि किस प्रकार वामपंथी शिक्षण–समूहों ने वर्षों तक “भारत” शब्द को NCERT की पुस्तकों में ‘भारत’ शब्द को स्वीकार करने से भी हठपूर्वक विमुख बने रहे, और यही समूह शिक्षा-नीतियों को दशकों तक दिशा देते रहे। आज भी अनेक नीति-निर्धारण संस्थाओं—UGC, NCTE, AICTE इत्यादि में इसी सोच का प्रभाव दिखाई देता है। ऐसे में “मानस परिवर्तन” की आवश्यकता कहीं अधिक गहरी हो जाती है, विशेषकर तब जब हम विकसित और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार बदल चुकी है, परंतु शिक्षा और शोध में वास्तविक परिवर्तन तभी होगा जब हम स्वयं बदलने का संकल्प लें—और भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित शिक्षा को प्रमाणिक, प्रभावी और विश्व-स्तर पर प्रस्तुत कर सकें। शोध के माध्यम से हमें एक ऐसा “Evidence-based Bhartiya Education Model” स्थापित करना होगा जिसे विद्या भारती विश्व के समक्ष उदाहरण के रूप में रख सके।
इसी क्रम में आदरणीय संगठन मंत्री ने विद्या भारती के ‘ओडिशा मॉडल’ का विशेष उल्लेख किया—जहाँ विभिन्न विश्वविद्यालयों के सहयोग से अब तक 16 शोध-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और अनेक वर्षों से शोध-संगोष्ठियों तथा सेमिनारों का क्रम निरंतर जारी है। यह निरंतरता और परिपक्वता, शोध के प्रति संगठन की गंभीरता का अत्यंत प्रेरक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि इसी भावना को देशभर में व्यवस्थित रूप से स्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक प्रांत में शोध-विद्वानों को एक समन्वित, समर्थ और सशक्त मंच उपलब्ध हो सके।
उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि विभिन्न क्षेत्रों में ‘Pro-India Narratives’ तैयार किए जाएँ, जो ‘Anti-India Narratives’—विशेषकर वे जो वैचारिक भ्रम फैलाते हैं—को शोध-आधारित तर्कों और सत्य-सिद्ध प्रमाणों के साथ चुनौती दे सकें। उदाहरण स्वरूप उन्होंने बताया कि किस प्रकार कुछ शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से नक्सल समर्थक विचार युवाओं में भ्रम और दिशा–भ्रष्टता पैदा करते हैं; ऐसे प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक प्रतिवाद केवल शोध के माध्यम से ही संभव है।
इसके साथ ही उन्होंने विद्या भारती की ‘शिशुवाटिका’ —जो भारतीय मनोविज्ञान और दर्शन पर आधारित पंचपदी शिक्षण-पद्धति से संचालित होती है—का उल्लेख करते हुए कहा कि इस भारतीय शिक्षण मॉडल को वैश्विक स्तर पर प्रमाणित और प्रतिष्ठित करना आज का समय-सापेक्ष दायित्व है। उन्होंने कहा कि समाज ने व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया है कि भारतीय शिक्षा की आत्मा भारतीय ज्ञान-परंपरा में ही निहित है; अब आवश्यक यह है कि शोध की शक्ति से इसे सुदृढ़, संगठित और विधिवत स्थापित किया जाए।
सत्र के अंत में अखिल भारतीय संगठन मंत्री ने पुनः यह स्पष्ट किया कि—‘सही और गुणवत्ता-पूर्ण शिक्षा आज विश्व की आवश्यकता है, परंतु उसके बारे में विचार करेगा भारत ही।’ यही कारण है कि शोध के माध्यम से एक ऐसी सशक्त, प्रमाण-आधारित और गुणवत्ता-संपन्न शैक्षिक व्यवस्था विकसित करनी होगी, जो न केवल विद्या भारती के विद्यालयों में, बल्कि भारत के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में और आगे चलकर विश्व के समक्ष भी एक आदर्श रूप में प्रस्तुत हो सके।
अखिल भारतीय शोध प्रमुख, विद्या भारती आदरणीया नंदिनी दीदी का संबोधन
आदरणीया नंदिनी दीदी ने अपने वक्तव्य में शोध की वास्तविक भूमिका, उसके स्वरूप और आवश्यकता पर अत्यंत मार्गदर्शक विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि शोध का वास्तविक स्वरूप “बैठक” से अधिक “कार्यशाला” में जीवंत होता है, क्योंकि शोध bottom-up feedback और two-way communication से ही आगे बढ़ता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि शोध-विषय का चयन पहले कोर कमेटी करती है, तत्पश्चात उसका आयोजन और संचालित प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाती है।
उन्होंने शिक्षण प्रक्रिया के तीन प्रमुख आयाम बताए—शैक्षणिक वातावरण, स्मार्ट विद्यार्थी और सशक्त शिक्षक (empowered teachers)। उनके मतानुसार, केवल ज्ञान प्रदान करना पर्याप्त नहीं; सर्वप्रथम शिक्षक का सशक्त होना अनिवार्य है, क्योंकि भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा इसी सिद्धांत पर आधारित है। इसी क्रम में यह स्पष्ट किया गया कि transactional teachers को transformational teachers में रूपांतरित करना समय की आवश्यकता है। महर्षि व्यास जैसे गुरु-स्वरूप व्यक्तित्व ही भारतीय शिक्षा की वास्तविक प्रेरणा हैं। एक empowered शिक्षक ही “anti-India narratives” को तार्किक तथा प्रमाणिक शोध के माध्यम से प्रभावी ढंग से चुनौती देकर समाप्त कर सकता है—चाहे वे जाति-आधारित विमर्श हों या उत्तर–दक्षिण विभाजन के कृत्रिम नैरेटिव। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि किसी गलत नैरेटिव को सीधे स्वीकार या अस्वीकार करने के बजाय, उसके स्थान पर एक तार्किक, प्रमाणित और भारतीय दृष्टि वाला नया नैरेटिव स्थापित करना अधिक उपयोगी है। उन्होंने ‘kill the narrative’ के सिद्धांत की व्याख्या की और कहा कि हमें नकारात्मक एवं विभाजनकारी विचारों को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए; बल्कि “Pro-Bharat Narrative” को ही आगे बढ़ाना चाहिए। साथ ही उन्होंने शोध-प्रकाशन की आवश्यकता, ओडिशा मॉडल की निरंतरता, शोधनिष्ठ प्रयोगशीलता और शैक्षणिक ईमानदारी पर आधारित पद्धतियों को विस्तार से रेखांकित किया।
प्रो. सौरभ मालवीय का शिक्षकों के कल्याण पर संबोधन
प्रथम सत्र का समापन पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय मंत्री प्रो. सौरभ मालवीय के गहन और प्रेरक उद्बोधन से हुआ। उनके संबोधन ने शोध के संदर्भ में, भारतीय ज्ञान-परंपरा के आलोक में, Teachers’ Well-being के विषय को स्पष्ट, आत्मीय और चिंतनशील रूप में उभारा। उन्होंने कहा कि शिक्षक के व्यक्तित्व-विकास की अवधारणा भारतीय समाज के लिए कोई नयी खोज नहीं है; यह हमारे सांस्कृतिक जीवन और गुरु-शिष्य परंपरा का स्वाभाविक, जीवित और सतत प्रवाहित होने वाला अवयव है। भारत की ज्ञान-परंपरा में सदैव यह मान्यता रही है कि शिक्षक यदि सर्वांगीण रूप से विकसित हो, तो उसका प्रभाव केवल पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि विद्यार्थियों के चरित्र, दृष्टि और जीवन-मूल्यों को भी एक नई दिशा देता है।
प्रो. मालवीय ने विस्तार से समझाया कि शिक्षक का विकास केवल शैक्षणिक प्रगति तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक, तकनीकी और मानसिक—इन सभी आयामों में संतुलित रूप से आगे बढ़ना चाहिए। इसी क्रम में उन्होंने आत्मचिंतन और आत्ममूल्यांकन की आवश्यकता को शिक्षक-जीवन की मूल कसौटी बताया। उनके अनुसार, एक शिक्षक को प्रतिदिन यह देखना चाहिए कि उसकी दिनचर्या, उसकी भाषा और उसका व्यवहार विद्यार्थियों के मन पर कैसा प्रभाव छोड़ रहे हैं, क्योंकि शिक्षक का आचरण ही विद्यार्थियों के लिए प्रथम पाठशाला बन जाता है।
संवाद-कौशल पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि संवाद केवल शब्दों का विनिमय नहीं, बल्कि वह सेतु है जो ज्ञान को हृदय तक पहुँचाता है। इसलिए विद्या भारती जैसे संस्कार-निष्ठ संगठन में संवाद का शुद्ध, विनम्र, प्रेरक और संस्कारित होना अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही शिक्षक के समग्र स्वास्थ्य (holistic well-being) को भी उन्होंने अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया। उनके अनुसार, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुलन ही शिक्षक की प्रभावशीलता का आधार है। एक संतुलित, स्वस्थ और प्रसन्नचित्त शिक्षक ही विद्यार्थियों के भीतर ऊर्जा, आत्मविश्वास और सकारात्मकता का संचार कर सकता है। सतत् व्यावसायिक विकास (Continuous Professional Development) के संदर्भ में प्रो. मालवीय ने कहा कि बदलती शिक्षण-पद्धतियों, नई तकनीकों और समाज की बदलती अपेक्षाओं के अनुरूप स्वयं को अद्यतन रखना एक शिक्षक का नैसर्गिक कर्तव्य है। तकनीक और आधुनिक साधन शिक्षक के सहयोगी हैं; परंतु इन सबके केंद्र में भारतीय चिंतन, भारतीय मूल्य और भारतीय ethos रहने चाहिएँ।
मूल्य-विकास और चरित्र-निर्माण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विद्यार्थी वही सीखते हैं जो वे अपने शिक्षक में देखते हैं। इसलिए शिक्षक में नैतिकता, सांस्कृतिक चेतना, अनुशासन और नेतृत्व-कौशल का होना अनिवार्य है। प्रो. मालवीय ने बताया कि विद्यालय की विविध गतिविधियों के माध्यम से शिक्षक विद्यार्थियों में नेतृत्व, जिम्मेदारी और सामाजिक संवेदनशीलता—इन तीनों गुणों का विकास कर सकता है। रचनात्मकता और नवाचार पर बल देते हुए उनका कहना था कि शिक्षण में नयापन ही विद्यार्थियों की जिज्ञासा को जीवित रखता है और अध्ययन को अर्थपूर्ण बनाता है।
अंत में प्रो. मालवीय ने कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना, भारतीयता के मूल तत्त्वों की प्रतिष्ठा और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया तभी सफल होती है, जब शिक्षक का आचरण संतुलित, समर्पित और विवेकपूर्ण हो। शिक्षक जितना बहुआयामी, नैतिक और प्रेरक होगा, उतनी ही उज्ज्वल दिशा वह विद्यार्थियों, विद्यालय और समूचे समाज को दे सकेगा।
द्वितीय सत्र
द्वितीय सत्र का संचालन आदरणीय शेषधर जी ने किया, जबकि सत्र की अध्यक्षता भारतीय शोध संस्थान, लखनऊ के निदेशक डॉ. सुबोध जी ने संभाली। डॉ. सुबोध जी ने अपने वक्तव्य में विस्तारपूर्वक बताया कि शोध संस्थान किस प्रकार विद्या भारती को शैक्षणिक एवं शोध-संबंधी क्षेत्रों में सहयोग प्रदान कर सकता है। उन्होंने संस्थान में चल रहे विविध शोध-उद्यमों—जैसे शोध-प्रकल्प, सम्मेलन एवं संगोष्ठियाँ, प्रकाशन-कार्य, समृद्ध शोध-ग्रंथालय, मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला तथा कंप्यूटर लैब—का विस्तृत परिचय कराया और इनके उपयोग की संभावनाओं पर प्रकाश डाला।
सत्र के अगले चरण में विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों से आए प्रतिभागियों ने अपने-अपने प्रांत/क्षेत्र में संचालित शोध-संबंधी गतिविधियों, संगठनात्मक संरचना, चल रहे कार्यों की प्रगति तथा प्रशिक्षण-कार्यों के बारे में संक्षिप्त परंतु प्रभावी प्रस्तुतियाँ दीं। इन प्रस्तुतियों से देशभर में विद्या भारती द्वारा किए जा रहे शोध-कार्य की वर्तमान स्थिति, उसकी दिशा, उपलब्धियाँ और संभावनाएँ स्पष्ट रूप से सामने आईं।
समूह गतिविधियाँ (Group Activities)
चाय-विराम के पश्चात आदरणीय संगठन मंत्री श्री गोविंदजी महंत तथा अखिल भारतीय शोध प्रमुख नंदिनी दीदी के मार्गदर्शन में समूह गतिविधियाँ सम्पन्न हुईं। 42 प्रतिभागियों को पाँच समूहों में विभाजित किया गया। प्रत्येक समूह को चार शोध-विषय दिए गए—School Management, Action Research Areas in Schools, Student Well-being और Teacher Well-being। प्रत्येक समूह ने इन चारों विषयों के दो-दो उद्देश्य तैयार किए और प्रस्तुत किए।
उत्साहपूर्ण सहभागिता के साथ यह गतिविधि अत्यंत सफल रही। अगले दिन प्रत्येक समूह को इन्हीं उद्देश्यों पर आधारित एक questionnaire और एक research schedule तैयार करने का कार्य सौंपा गया।
द्वितीय दिन
दूसरे दिन का आरंभ वंदना सत्र से हुआ। इसके बाद प्रो. सौरभ मालवीय जी ने उद्घाटन उद्बोधन में प्रथम दिन की गतिविधियों का संक्षिप्त उल्लेख किया। तत्पश्चात डॉ. शिवानी कटारा ने इस दो दिवसीय कार्यशाला की संक्षिप्त सार-रूप रिपोर्ट प्रस्तुत की। मंच संचालन राजीव रंजन जी ने किया, जबकि सत्र की अध्यक्षता भारतीय शोध संस्थान के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र द्विवेदी जी ने की।
प्रथम दिन निर्धारित पाँचों समूहों ने अपने शोध schedules और questionnaires PowerPoint प्रस्तुतियों के माध्यम से प्रदर्शित किए। प्रस्तुतियाँ सुव्यवस्थित, तार्किक और उत्कृष्ट रहीं।
दूसरे दिन का आरंभ वंदना सत्र से हुआ। इसके बाद प्रो. सौरभ मालवीय जी ने उद्घाटन उद्बोधन में प्रथम दिन की गतिविधियों का संक्षिप्त उल्लेख किया। तत्पश्चात डॉ. शिवानी कटारा ने इस दो दिवसीय कार्यशाला की संक्षिप्त सार-रूप रिपोर्ट प्रस्तुत की। मंच संचालन राजीव रंजन जी ने किया, जबकि सत्र की अध्यक्षता भारतीय शोध संस्थान के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र द्विवेदी जी ने की।
प्रथम दिन निर्धारित पाँचों समूहों ने अपने शोध schedules और questionnaires PowerPoint प्रस्तुतियों के माध्यम से प्रदर्शित किए। प्रस्तुतियाँ सुव्यवस्थित, तार्किक और उत्कृष्ट रहीं।
आदरणीय नंदिनी दीदी का मार्गदर्शन
इसके बाद नंदिनी दीदी ने प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने प्रश्न निर्माण, शोध-शीर्षक चयन और शोध-पद्धति के विविध पक्षों पर अत्यंत महत्वपूर्ण सुझाव दिए, जिन्हें प्रतिभागियों ने गंभीरता से नोट किया।
प्रो. सुरेन्द्र द्विवेदी जी का प्रेरक संबोधन
सत्र के समापन पर प्रो. सुरेन्द्र द्विवेदी जी ने शिक्षा, शिक्षक तथा चरित्र-निर्माण की भारतीय दृष्टि पर विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि शिक्षक केवल ज्ञान का संरक्षक नहीं, बल्कि निरंतर सीखने वाला जीवन-यात्री होता है। उनका आचरण, उनकी विनम्रता, उनका अनुशासन और उनका जीवन-व्यवहार ही विद्यार्थियों के लिए वास्तविक शिक्षा बन जाता है। भारतीय परंपरा में शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि चरित्र, विवेक और दृष्टि का विकास करना है—जो मनुष्य को ‘कर्मशील’, ‘संवेदनशील’ और ‘दूरदर्शी’ बनाती है।
उन्होंने शिक्षक की भूमिका को समझाते हुए बताया कि एक सच्चा शिक्षक अपने व्यक्तित्व में ethos (चरित्र व नैतिकता), pathos (संवेदना व करुणा) और logos (तर्क व प्रामाणिकता) — इन तीनों का संतुलन धारण करता है; यही संतुलन उसे विद्यार्थियों के लिए आदर्श रूप बनाता है। और अंत में उन्होंने कहा—“डिग्री प्राप्त कर लेना शिक्षा नहीं है; धर्मपूर्ण आचरण ही एक सचमुच शिक्षित व्यक्ति की पहचान है।”
शोध-प्रकाशन एवं सम्मेलन-आयोजन पर केंद्रित विशेष सत्र
चाय-विराम के पश्चात 11:30 बजे पुनः सत्र प्रारंभ हुआ, जिसमें नंदिनी दीदी ने प्रतिभागियों से कहा कि शोध को शोध-पत्रों के रूप में प्रकाशित करना अनिवार्य है। उन्होंने seminar और conference के बीच का अंतर बताया और सरल तथा व्यावहारिक तरीके से सम्मेलन/सेमिनार आयोजित करने के मुख्य चरण समझाए।
इसके बाद प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए और कार्यशाला के प्रति अत्यंत सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ दीं।
समापन सत्र
समापन उद्बोधन में अखिल भारतीय संगठन मंत्री आदरणीय गोविंदजी महंत ने कहा कि अब आवश्यकता है कि प्रत्येक क्षेत्र और प्रांत में गुणवत्तापूर्ण शोध को स्थापित किया जाए। उन्होंने कहा कि शोध का उद्देश्य सदैव स्पष्ट और समाजोपयोगी होना चाहिए—ऐसा शोध जो न केवल जन-जीवन के लिए हितकारी हो, बल्कि भारतीय ज्ञान-परंपरा के पुनर्स्थापन और सुदृढ़ीकरण में भी सार्थक भूमिका निभाए। माननीय सह सरकार्यवाह कृष्णगोपाल जी के शब्दों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा—“जो विषय कोई नहीं करता, वही विषय हमें करना चाहिए।” इस वाक्य में भारतीय शोध-दृष्टि की मौलिकता और साहस, दोनों निहित हैं।
उनका मत था कि आज भारत को मूलभूत तथा मौलिक शोध की अत्यंत आवश्यकता है, ताकि भारतीय ज्ञान-परंपरा को हमारे पाठ्यक्रमों, शिक्षण-पद्धतियों और शैक्षणिक विमर्श में यथोचित स्थान मिल सके। शोध-विषयों का निर्धारण और निधिकरण निश्चित प्रक्रियाओं के अनुसार होगा, किंतु शोध की दिशा—भारतीय दृष्टि, भारतीय चिंतन और भारतीय जीवन-मूल्यों पर आधारित—होनी चाहिए।
उन्होंने स्पष्ट किया कि “सही शिक्षा पर विचार विश्व अवश्य करेगा, परंतु दिशा भारत ही देगा।” इसीलिए शोध का महत्व और भी बढ़ जाता है—क्योंकि वही शोध भारत को विश्व के समक्ष एक वैचारिक पथ-प्रदर्शक के रूप में स्थापित कर सकता है।
अंतिम समापन संबोधन; आदरणीय श्री रविन्द्र कनहरे जी
अंतिम संबोधन में विद्या भारती के अखिल भारतीय अध्यक्ष आदरणीय श्री रविन्द्र कनहरे जी ने कहा कि शोध केवल शैक्षणिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि समाज-परिवर्तन का प्रभावी माध्यम है। उन्होंने कहा कि शोध में पूर्व-नियत निष्कर्ष या पक्षपात नहीं होने चाहिए। आज के समय में ‘Manipulative Research’ को चुनौती देने के लिए ‘मौलिक शोध’ आवश्यक है। विद्या भारती के विद्यार्थियों के लिए stress management और critical analysis जैसे विषय आज की शैक्षणिक आवश्यकताओं में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और इसलिए इन पर प्रत्येक स्तर पर शोध होना चाहिए। रेखांकित किया कि भारत में होने वाला शोध केवल तकनीकी या पाश्चात्य ढाँचों पर आधारित न हो, बल्कि उसकी दिशा भारतीयता की दृष्टि से निर्धारित हो—ऐसी दृष्टि जो हमारे अनुभव, हमारे सत्य और हमारी सांस्कृतिक समझ से निर्मित होती है।
श्री रविन्द्र कनहरे जी ने खेद व्यक्त किया कि मैकॉले-प्रेरित शिक्षण-पद्धति ने वर्षों तक विद्यार्थियों के मन से “Power of Innovation” और “Power of Thinking ” को लगभग निष्क्रिय कर दिया, जिसके कारण जिज्ञासा, अन्वेषण और मौलिकता—ये तीनों गुण क्षीण होते गए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने प्रयासों से बच्चों और युवाओं में शोध-प्रवृत्ति को पुनः जाग्रत करें, ताकि वे केवल उपभोक्ता न बनें, बल्कि सृजनकर्ता, विचारक और मार्गदर्शक बन सकें।
उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालयों में शोध-विषयों का चयन किस प्रकार वास्तविक ‘गेम चेंजर’ सिद्ध हो सकता है। उदाहरण देते हुए कहा कि यदि शोध का विषय यह हो कि संस्कार केन्द्रों ने विद्यार्थियों के व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में किस प्रकार परिवर्तन लाया है, तो ऐसे शोध से भारतीय समाज और भारतीय शिक्षा—दोनों की गहरी समझ विकसित होगी। उनका मत था कि शोध केवल Ph.D. तक सीमित नहीं है; 11वीं और 12वीं कक्षा के विद्यार्थी भी सार्थक शोध कर सकते हैं। विद्यालय स्तर पर उनसे जुड़े विषयों—जैसे आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक कौशल, पंचपदी शिक्षण-पद्धति का प्रभाव, या वैदिक गणित का गणनात्मक क्षमता (computational skills) पर असर—पर छोटी शोध परियोजनाएँ कराई जा सकती हैं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि विद्यार्थी डेटा-विश्लेषण (data analysis) स्वयं भले न कर पाएँ, परंतु raw data एकत्र करना उनके लिए सहज है। शिक्षक इन आँकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें मानक शोध-रूप (standardised format) में संकलित कर सकते हैं जिन्हें आगे चलकर प्रकाशित भी किया जा सकता है। इससे विद्यार्थियों से जुड़े विषयों पर किए गए शोध न केवल प्रमाणिक बनेंगे, बल्कि भविष्य में शिक्षा-नीति, पाठ्यचर्या और विद्यालयी प्रक्रियाओं के लिए मार्गदर्शक सामग्री के रूप में भी उपयोगी सिद्ध होंगे।
अपने विचारों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि भारत के लिए शोध कोई नया विषय नहीं; भारतीय सभ्यता में शोध का मूल “जिज्ञासा” है—उपनिषदों का प्रारंभ ही प्रश्नों, जिज्ञासा और सत्य-अन्वेषण से हुआ है। इसी भावना को पुनर्जीवित करने के लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। उनकी अभिमत में वर्तमान शोध-प्रयास तीन महत्वपूर्ण परिणाम देंगे—पहला, विद्या भारती का शैक्षिक मॉडल प्रमाण सहित संपूर्ण समाज के सामने रखा जा सकेगा; दूसरा, विद्या भारती की त्रुटियाँ और सुधार की संभावनाएँ शोध के माध्यम से स्पष्ट होंगी; और तीसरा, भविष्य के लिए नए शोध-विषय और दिशाएँ निर्धारित की जा सकेंगी।
अंत में श्री रविन्द्र कनहरे जी ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया कि भारतीय ज्ञान-परंपरा को देश के पाठ्यक्रमों, शिक्षण-विधियों और अकादमिक विमर्श में प्रतिष्ठित करने के लिए शोध का प्रकाशित होना अनिवार्य है। यदि किसी शोध का स्वरूप उत्कृष्ट भी हो, परंतु वह प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध–पत्रिकाओं में प्रकाशित न हो सके, तो उसकी प्रभावशीलता सीमित रह जाती है और वह व्यापक शैक्षणिक परिदृश्य को प्रभावित नहीं कर पाता। उनके मतानुसार प्रकाशन न केवल शोध की मान्यता है, बल्कि वही माध्यम है जिसके द्वारा कोई विचार समाज तक पहुँचता है, पाठ्यपुस्तकों में स्थान प्राप्त करता है, और आने वाली पीढ़ियों के बौद्धिक विकास का आधार बनता है। इसीलिए उन्होंने अत्यंत स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में “Publish and highlight” का संदेश दिया—क्योंकि प्रकाशन ही वह सेतु है जो ज्ञान को निजी प्रयास से निकालकर जन-ज्ञान में रूपांतरित करता है, और शोध को एक जीवंत, क्रियाशील और परिवर्तनकारी शक्ति में परिवर्तित करता है।
श्री रविन्द्र कनहरे जी का यह उद्बोधन इस बात को रेखांकित करता है कि प्रकाशन मात्र औपचारिकता नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान-परंपरा को पुनर्स्थापित करने, उसे प्रमाणित करने और उसे राष्ट्रीय एवं वैश्विक मंचों पर सम्मानित स्वरूप में प्रस्तुत करने का सबसे प्रभावी माध्यम है।
अंत में प्रो. सौरभ मलवीय जी ने सभी अधिकारियों, प्रतिभागियों और व्यवस्था में लगे सभी बंधुओं का धन्यवाद ज्ञापित किया और शांति मंत्र के साथ इस दो दिवसीय अखिल भारतीय शोध कार्यशाला का सफल समापन घोषित किया।
निष्कर्ष
यह दो दिवसीय 'अखिल भारतीय शोध बैठक/कार्यशाला' विद्या भारती में शोध के संरचनात्मक, वैचारिक और व्यवहारिक आयामों को सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाली सिद्ध हुई। कार्यशाला में भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित शोध-दृष्टि, एक्शन रिसर्च, शिक्षक-कल्याण, संगठनात्मक संरचना, प्रकाशन-प्रक्रिया, सम्मेलन-आयोजन, प्रश्नावली.











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