Tuesday, December 6, 2016

‘भारत की ज्ञान परंपरा’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संविमर्श का समापन

पटना। भारतीय परंपरा के अनुसार हमारे चिंतन में कई धाराएँ हैं, लेकिन पश्चिम ने केवल एक ही धारा को समझा और फैलाया। विदेशी ताकतों ने हमेशा से ही हमारी ज्ञान परंपरा को दबाकर रखने की कोशिश की है। हमारे विज्ञान और सेवा भाव को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश की गयी है, जिसके कारण हमने अपनी समृद्ध ज्ञान परंपरा को बहुत हद तक खो दिया है। आज फिर से हमें अपनी ज्ञान परंपरा और सामाजिक व्यवस्था को समझने और अपने तरीके से परिभाषित करने की ज़रूरत है। यह विचार पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने ‘भारतीय की ज्ञान परंपरा’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संविमर्श में व्यक्त किये। यह कार्यक्रम माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा पटना में आयोजित किया गया। विश्वविद्यालय ने अपने रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में देश के अलग-अलग राज्यों और शहरों में विमर्शों का आयोजन कर रहा है।
श्री पासवान ने कहा की आज हमें अपनी ज्ञान परंपरा, सामाजिक व्यवस्था और जीवनशैली को बाजारवाद से बचने की ज़रूरत है। हमें पश्चिमी सभ्यताओं और विदेशी ज्ञान-विज्ञान को दरकिनार कर अपनी परम्पराओं और मान्यताओं का पुनरोत्थान करते हुए भारतीयता में पूरी तरह रमना होगा। उन्होंने इसके लिए इस बात पर जोर दिया की हमें आज सभी विचारधाराओं के लोगों से संवाद करना होगा और उनको साथ लेकर चलना होगा। जाति व्यवस्था पर अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा की जातियों के मिटाने की नहीं बल्कि आज उन्हें मिलाने की आवश्यकता है। हमारी परंपरा विविधताओं का सम्मान करने की है और उनमे एकता स्थापित करने की है, जिसे आज अच्छी तरह से व्यवहार में उतारना होगा ताकि भारत पूरे विश्व में एक बड़ी ताकत के रूप में उभर सके।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा की भारतीय ज्ञान को स्थापित करने की नहीं बल्कि इस ज्ञान के व्यापक भंडार को खोजने की ज़रूरत है। प्राचीन ग्रंथों में छुपे इस ज्ञान के खजाने को खोजकर, उसे संवार कर मानव कल्याण के लिए उसको इस्तेमाल में लाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा की आज भारत के शैक्षणिक संस्थाओं को इस कार्य के लिए आगे आना होगा और समर्पित भाव से ऐसी परियोजनाओं में जुटना होगा ताकि कोई बाहरी संस्था या इंसान इस भण्डार की खोजकर उसको एक विकृत रूप में दुनिया के सामने पेश न करे। उन्होंने कहा कि यहाँ का ज्ञान-विज्ञान युगों से प्रकृति के अनुकूल रहा है और इसी कारण भारत की जीवनशैली भी औरों से हमेशा श्रेष्ठ रही है। प्रो. कुठियाला ने कहा की आज इस कार्य को करने में हम पूरी तरह सक्षम हैं आवश्यकता है तो सिर्फ संकल्प की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग प्राचीन भारतीय ज्ञान की खोज में लगे हैं उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपने कार्यों को केवल सेमिनार, कांफ्रेंस और पठन-पाठन तक सीमित न रखकर समाज और पूरी मानवता तक लेकर जायें ताकि इससे परम वैभव की स्थिति को प्राप्त किया जा सके। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस कार्य को विद्यार्थियों तक ले जाने की भरपूर कोशिश कर रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार और पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर ने अपने उद्बोधन में कहा की आज पं. दीनदयाल के विचारों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है जिसमें वह समाज और सृष्टि को समझने की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा के उद्द्येश्य, विषयों का चयन, पाठ्यक्रमों में प्रवेश और पात्रता, वातावरण तथा मूल्यांकन जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए ताकि शिक्षा से समाज का पूर्ण विकास हो सके।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वांत रंजन ने शिक्षा और ज्ञान को समाज के निचले स्तर तक ले जाने की बात पर जोर दिया और कहा कि ऐसा करने से समाज के हर वर्ग में जागरूकता आयेगी। साथ ही उन्होंने भारत की प्राचीन व्यवस्थाओं और मान्यताओं को समझकर आज के सन्दर्भ में उन्हें इस्तेमाल में लाने की बात कही। श्री रंजन ने पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा किये जा रहे इस अनूठे कार्य की सराहना करते हुए कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान पद्दति को फिर से समझना और इसके लिए विभिन्न जगहों पर जाकर युवाओं और लोगों को प्रेरित करने अपने आप में बेहद प्रशंशनीय कार्य है।


  इससे पूर्व संविमर्श में वैदिक गणित पर रोहतक के राकेश भाटिया, भारत में विज्ञान की परंपरा पर महाराष्ट्र के प्रो. पीपी होले, डॉ. श्रीराम ज्योतिषी, डॉ. सीएस वार्नेकर, भारत की मेगालिथ रचनाओं की वैज्ञानिकता विषय पर फ़्रांस से आये डॉ. सर्जे ली गुरियक ने व्याख्यान दिए। कार्यक्रम का संयोजन डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेन्द्र सिंह ने किया। इस कार्यक्रम में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी, इलेक्ट्रोनिक मीडिया विभाग के अध्यक्ष डॉ. श्रीकांत सिंह, जनसंपर्क एवं विज्ञापन विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, नॉएडा परिसर से डॉ. अरुण भगत भी शामिल हुए।

Monday, December 5, 2016

‘भारत की ज्ञान परंपरा’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संविमर्श

पटना। भारतीय परंपरा के अनुसार हमारे चिंतन में कई धाराएँ हैं, लेकिन पश्चिम ने केवल एक ही धारा को समझा और फैलाया। विदेशी ताकतों ने हमेशा से ही हमारी ज्ञान परंपरा को दबाकर रखने की कोशिश की है। हमारे विज्ञान और सेवा भाव को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश की गयी है, जिसके कारण हमने अपनी समृद्ध ज्ञान परंपरा को बहुत हद तक खो दिया है। आज फिर से हमें अपनी ज्ञान परंपरा और सामाजिक व्यवस्था को समझने और अपने तरीके से परिभाषित करने की ज़रूरत है। यह विचार पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने ‘भारतीय की ज्ञान परंपरा’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संविमर्श में व्यक्त किये। यह कार्यक्रम माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा पटना में आयोजित किया गया। विश्वविद्यालय ने अपने रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में देश के अलग-अलग राज्यों और शहरों में विमर्शों का आयोजन कर रहा है।
श्री पासवान ने कहा की आज हमें अपनी ज्ञान परंपरा, सामाजिक व्यवस्था और जीवनशैली को बाजारवाद से बचने की ज़रूरत है। हमें पश्चिमी सभ्यताओं और विदेशी ज्ञान-विज्ञान को दरकिनार कर अपनी परम्पराओं और मान्यताओं का पुनरोत्थान करते हुए भारतीयता में पूरी तरह रमना होगा। उन्होंने इसके लिए इस बात पर जोर दिया की हमें आज सभी विचारधाराओं के लोगों से संवाद करना होगा और उनको साथ लेकर चलना होगा। जाति व्यवस्था पर अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा की जातियों के मिटाने की नहीं बल्कि आज उन्हें मिलाने की आवश्यकता है। हमारी परंपरा विविधताओं का सम्मान करने की है और उनमे एकता स्थापित करने की है, जिसे आज अच्छी तरह से व्यवहार में उतारना होगा ताकि भारत पूरे विश्व में एक बड़ी ताकत के रूप में उभर सके।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा की भारतीय ज्ञान को स्थापित करने की नहीं बल्कि इस ज्ञान के व्यापक भंडार को खोजने की ज़रूरत है। प्राचीन ग्रंथों में छुपे इस ज्ञान के खजाने को खोजकर, उसे संवार कर मानव कल्याण के लिए उसको इस्तेमाल में लाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा की आज भारत के शैक्षणिक संस्थाओं को इस कार्य के लिए आगे आना होगा और समर्पित भाव से ऐसी परियोजनाओं में जुटना होगा ताकि कोई बाहरी संस्था या इंसान इस भण्डार की खोजकर उसको एक विकृत रूप में दुनिया के सामने पेश न करे। उन्होंने कहा कि यहाँ का ज्ञान-विज्ञान युगों से प्रकृति के अनुकूल रहा है और इसी कारण भारत की जीवनशैली भी औरों से हमेशा श्रेष्ठ रही है। प्रो. कुठियाला ने कहा की आज इस कार्य को करने में हम पूरी तरह सक्षम हैं आवश्यकता है तो सिर्फ संकल्प की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग प्राचीन भारतीय ज्ञान की खोज में लगे हैं उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपने कार्यों को केवल सेमिनार, कांफ्रेंस और पठन-पाठन तक सीमित न रखकर समाज और पूरी मानवता तक लेकर जायें ताकि इससे परम वैभव की स्थिति को प्राप्त किया जा सके। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस कार्य को विद्यार्थियों तक ले जाने की भरपूर कोशिश कर रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार और पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर ने अपने उद्बोधन में कहा की आज पं. दीनदयाल के विचारों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है जिसमें वह समाज और सृष्टि को समझने की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा के उद्द्येश्य, विषयों का चयन, पाठ्यक्रमों में प्रवेश और पात्रता, वातावरण तथा मूल्यांकन जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए ताकि शिक्षा से समाज का पूर्ण विकास हो सके।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वांत रंजन ने शिक्षा और ज्ञान को समाज के निचले स्तर तक ले जाने की बात पर जोर दिया और कहा कि ऐसा करने से समाज के हर वर्ग में जागरूकता आयेगी। साथ ही उन्होंने भारत की प्राचीन व्यवस्थाओं और मान्यताओं को समझकर आज के सन्दर्भ में उन्हें इस्तेमाल में लाने की बात कही। श्री रंजन ने पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा किये जा रहे इस अनूठे कार्य की सराहना करते हुए कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान पद्दति को फिर से समझना और इसके लिए विभिन्न जगहों पर जाकर युवाओं और लोगों को प्रेरित करने अपने आप में बेहद प्रशंशनीय कार्य है।

  इससे पूर्व संविमर्श में वैदिक गणित पर रोहतक के राकेश भाटिया, भारत में विज्ञान की परंपरा पर महाराष्ट्र के प्रो. पीपी होले, डॉ. श्रीराम ज्योतिषी, डॉ. सीएस वार्नेकर, भारत की मेगालिथ रचनाओं की वैज्ञानिकता विषय पर फ़्रांस से आये डॉ. सर्जे ली गुरियक ने व्याख्यान दिए। कार्यक्रम का संयोजन डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेन्द्र सिंह ने किया। इस कार्यक्रम में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी, इलेक्ट्रोनिक मीडिया विभाग के अध्यक्ष डॉ. श्रीकांत सिंह, जनसंपर्क एवं विज्ञापन विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, नॉएडा परिसर से डॉ. अरुण भगत भी शामिल हुए।

Friday, November 4, 2016

सूर्य उपासना का पर्व है छठ पूजा

डॊ. सौरभ मालवीय
छठ सूर्य की उपासना का पर्व है. यह प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अर्घ्य देकर पूर्ण किया जाता है.  सूर्य उपासना का पावन पर्व छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने जाता है. इसलिए इसे छठ कहा जाता है. हिन्दू धर्म में सूर्य उपासना का बहुत महत्व है. छठ पूजा के दौरान क केवल सूर्य देव की उपासना की जाती है, अपितु सूर्य देव की पत्नी उषा और प्रत्यूषा की भी आराधना की जाती है अर्थात प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण ऊषा तथा सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर उनकी उपासना की जाती है. पहले यह पर्व पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता था, लेकिन अब इसे देशभर में मनाया जाता है. पूर्वी भारत के लोग जहां भी रहते हैं, वहीं इसे पूरी आस्था से मनाते हैं.

छठ पूजा चार दिवसीय पर्व है. इसका प्रारंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा कार्तिक शुक्ल सप्तमी को यह समाप्त होता है. इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का कठोर व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते. पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है. सबसे पहले घर की साफ-सफाई की जाती है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र विधि से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत आरंभ करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजन करने के उपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है. दूसरा दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी खरना कहा जाता है. व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के पश्चात संध्या को भोजन करते हैं. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को बुलाया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर, दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है. तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ और चावल के लड्डू बनाए जाते हैं. चढ़ावे के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में सम्मिलित होते हैं. संध्या के समय बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. सभी छठ व्रती नदी या तालाब के किनारे एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य देव को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है. चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं, जहां उन्होंने संध्या के समय सूर्य को अर्घ्य दिया था और सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इसके पश्चात व्रती कच्चे दूध का शीतल पेय पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं. इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित है. जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां छठ के गीत गाए जाते हैं.

छठ का व्रत बहुत कठोर होता है. चार दिवसीय इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. इस दौरान व्रती को भोजन तो छोड़ना ही पड़ता है. इसके अतिरिक्त उसे भूमि पर सोना पड़ता है. इस पर्व में सम्मिलित लोग नये वस्त्र धारण करते हैं, परंतु व्रती बिना सिलाई वाले वस्त्र पहनते हैं. महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ पूजा करते हैं. इसकी एक विशेषता यह भी है कि प्रारंभ करने के बाद छठ पर्व को उस समय तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसे आरंभ नहीं करती. उल्लेखनीय है कि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है.

छठ पर्व कैसे आरंभ हुआ, इसके पीछे अनेक कथाएं हैं. एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और सीता मैया ने उपवास रखकर सूर्यदेव की पूजा की थी. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था. एक अन्य  कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी थी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ, परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई. उसने कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण वह षष्ठी है. उसने राजा से कहा कि वह उसकी उपासना करे, जिससे उसकी मनोकामना पूर्ण होगी. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी. एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल में हुआ था. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था.  आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है.

पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता था. भारत में वैदिक काल से ही सूर्य की उपासना की जाती रही है. देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है. विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है. उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना की जाने लगी.  कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा की जाने लगी. अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए. कोणार्क का सूर्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध है.

छठ महोत्सव के दौरान छठ के लोकगीत गाए जाते हैं, जिससे सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है.
’कईली बरतिया तोहार हे छठी मैया’ जैसे लोकगीतों पर मन झूम उठता है.

Wednesday, October 26, 2016

अंधेरे पर प्रकाश की जीत का पर्व है दीपावली

डॊ. सौरभ मालवीय
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात्
असत्य से सत्य की ओर।
अंधकार से प्रकाश की ओर।
मृत्यु से अमरता की ओर।
ॐ शांति शांति शांति।।
अर्थात् इस प्रार्थना में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना की गई है. दीपों का पावन पर्व दीपावली भी यही संदेश देता है. यह अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व है. दीपावली का अर्थ है दीपों की श्रृंखला. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' एवं 'आवली' अर्थात 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है. दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है. वास्तव में दीपावली एक दिवसीय पर्व नहीं है, अपितु यह कई त्यौहारों का समूह है, जिनमें धन त्रयोदशी अर्थात धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज सम्मिलित हैं. दीपावली महोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है. धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. तुलसी या घर के द्वार पर दीप जलाया जाता है. नरक चतुर्दशी के दिन यम की पूजा के लिए दीप जलाए जाते हैं.  गोवर्धन पूजा के दिन लोग गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर उसकी पूजा करते हैं. भैया दूज पर बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके लिए मंगल कामना करती है. इस दिन यमुना नदी में स्नान करने की भी परंपरा है.

प्राचीन हिंदू ग्रंथ रामायण के अनुसार दीपावली के दिन श्रीरामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या लौटे थे. अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीप जलाए थे. प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार दीपावली के दिन ही 12 वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी हुई थी. मान्यता यह भी है कि दीपावली का पर्व भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी से संबंधित है. दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से प्रारंभ होता है. समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में लक्ष्मी भी एक थीं, जिनका प्रादुर्भाव कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ था. उस दिन से कार्तिक की अमावस्या लक्ष्मी-पूजन का त्यौहार बन गया. दीपावली की रात को लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह किया था. मान्यता है कि दीपावली के दिन विष्णु की बैकुंठ धाम में वापसी हुई थी.
कृष्ण भक्तों के अनुसार इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था. एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था. यह भी कहा जाता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात धन्वंतरि प्रकट हुए. मान्यता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं. जो लोग इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उन पर देवी की विशेष कृपा होती है. लोग लक्ष्मी के साथ-साथ संकट विमोचक गणेश, विद्या की देवी सरस्वती और धन के देवता कुबेर की भी पूजा-अर्चना करते हैं.

अन्य हिन्दू त्यौहारों की भांति दीपावली भी देश के अन्य राज्यों में विभिन्न रूपों में मनाई जाती है. बंगाल और ओडिशा में दीपावली काली पूजा के रूप में मनाई जाती है. इस दिन यहां के हिन्दू देवी लक्ष्मी के स्थान पर काली की पूजा-अर्चना करते हैं. उत्तर प्रदेश के मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान श्री कृष्ण से जुड़ा पर्व माना जाता है. गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर श्रीकृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है.

दीपावली का ऐतिहासिक महत्व भी है. हिन्दू राजाओं की भांति मुगल सम्राट भी दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया करते थे. सम्राट अकबर के शासनकाल में दीपावली के दिन दौलतखाने के सामने ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप लटकाया जाता था. बादशाह जहांगीर और मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर ने भी इस परंपरा को बनाए रखा. दीपावली के अवसर पर वे कई समारोह आयोजित किया करते थे. शाह आलम द्वितीय के समय में भी पूरे महल को दीपों से सुसज्जित किया जाता था. कई महापुरुषों से भी दीपावली का संबंध है. स्वामी रामतीर्थ का जन्म एवं महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ था. उन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय समाधि ले ली थी. आर्य समाज के संस्थापाक महर्षि दयानंद ने दीपावली के दिन अवसान लिया था.

जैन और सिख समुदाय के लोगों के लिए भी दीपावली महत्वपूर्ण है. जैन समाज के लोग दीपावली को महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं. जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी.  इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जैन धर्म के मतानुसार लक्ष्मी का अर्थ है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ है ज्ञान. इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाया जाता है और लड्डू का भोग लगाया जाता है. सिख समुदाय के लिए दीपावली का दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन अमृतसर में वर्ष 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था. वर्ष 1619 में दीपावली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था.

दीपावली से पूर्व लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई करते हैं. घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य कराते हैं. दीपावली पर लोग नये वस्त्र पहनते हैं. एक-दूसरे को मिष्ठान और उपहार देकर उनकी सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घरों में रंगोली बनाई जाती है, दीप जलाए जाते हैं. मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. घरों व अन्य इमारतों को बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों की झालरों से सजाया जाता है. रात में चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है. आतिशबाज़ी भी की जाती है. अमावस की रात में आकाश में आतिशबाज़ी का प्रकाश बहुत ही मनोहारी दृश्य बनाता है.

दीपावली का धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी है. दीपावली पर खेतों में खड़ी खरीफ़ की फसल पकने लगती है, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समाता. इस दिन व्यापारी अपना पुराना हिसाब-किताब निपटाकर नये बही-खाते तैयार करते हैं.

दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, लेकिन कुछ लोग इस दिन दुआ खेलते हैं और शराब पीते हैं. अत्यधिक आतिशबाज़ी के कारण ध्वनि और वायु प्रदूषण भी बढ़ता है. इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि दीपों के इस पावन पर्व के संदेश को समझते हुए इसे पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाए.

Monday, October 10, 2016

सांस्कृतिक एकता की प्रतीक विजयदशमी


डॊ. सौरभ मालवीय
भारत एक विशाल देश है. इसकी भौगोलिक संरचना जितनी विशाल है, उतनी ही विशाल है इसकी संस्कृति. यह भारत की सांस्कृतिक विशेषता ही है कि कोई भी पर्व समस्त भारत में एक जैसी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है, भले ही उसे मनाने की विधि भिन्न हो. ऐसा ही एक पावन पर्व है दशहरा, जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है. दशहरा भारत का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है. विश्वभर में हिन्दू इसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. यह अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु के अवतार राम ने रावण का वध कर असत्य पर सत्य की विजय प्राप्त की थी. रावण भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण करके लंका ले गया था. भगवान राम देवी दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिन तक मां दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन रावण का वध कर अपनी पत्नी को मुक्त कराया. दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत महत्वपूर्ण तिथियों में से एक है, जिनमें चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा भी सम्मिलित है. यह शक्ति की पूजा का पर्व है. इस दिन देवी दुर्गा की भी पूजा-अर्चना की जाती है. इस दिन लोग नया कार्य प्रारंभ करना अति शुभ माना जाता है. दशहरे के दिन नीलकंठ के दर्शन को बहुत ही शुभ माना जाता है. नवरात्रि में स्वर्ण और आभूषणों की खरीद को शुभ माना जाता है.

दशहरा नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है. देशभर में दशहरे का उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. जगह-जगह मेले लगते हैं. दशहरे से पूर्व रामलीला का आयोजन किया जाता. इस दौरान नवरात्रि भी होती हैं. कहीं-कहीं रामलीला का मंचन होता है, तो कहीं जागरण होते हैं. दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है. इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं. कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और अग्नि बाण इन पुतलों को मारते हैं. पुतलों में पटाखे भरे होते हैं, जिससे वे आग लगते ही जलने लगते हैं.

समस्त भारत के विभिन्न प्रदेशों में दशहरे का यह पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. कश्मीर में नवरात्रि के नौ दिन माता रानी को समर्पित रहते हैं. इस दौरान लोग उपवास रखते हैं. एक परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं. यह मंदिर एक झील के बीचोबीच स्थित है.  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित पहाड़ी लोग अपनी परंपरा के अनुसार अपने ग्रामीण देवता की शोभायात्रा निकालते हैं. इस दौरान वे तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े आदि वाद्य बजाते हैं तथा नाचते-गाते चलते हैं. शोभायात्रा नगर के विभिन्न भागों में होती हुई मुख्य स्थान तक पहुंचती है. फिर ग्रामीण देवता रघुनाथजी की पूजा-अर्चना से दशहरे के उत्सव का शुभारंभ होता है. हिमाचल प्रदेश के साथ लगते पंजाब तथा हरियाणा में दशहरे पर नवरात्रि की धूम रहती है. लोग उपवास रखते हैं. रात में जागरण होता है. यहां भी रावण-दहन होता है और मेले लगते हैं. उत्तर प्रदेश में भी दशहरा श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. यहां रात में रामलीला का मंचन होता है और दशहरे के दिन रावण दहन किया जाता है.

बंगाल, ओडिशा एवं असम में दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है.  बंगाल में पांच दिवसीय उत्सव मनाया जाता है. ओडिशा और असम में यह पर्व चार दिन तक चलता है. यहां भव्य पंडाल तैयार किए जाते हैं तथा उनमें देवी दुर्गा की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. देवी दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है. दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. महिलाएं देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं. इसके पश्चात देवी की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है. विसर्जन यात्रा में असंख्य लोग सम्मिलित होते हैं.

गुजरात में भी दशहरे के उत्सव के दौरान नवरात्रि की धूम रहती है. कुंआरी लड़कियां सिर पर मिट्टी के रंगीन घड़े रखकर नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है. पूजा-अर्चना और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन किया जाता है. महाराष्ट्र में भी नवरात्रि में नौ दिन मां दुर्गा की उपासना की जाती है तथा दसवें दिन विद्या की देवी सरस्वती की स्तुति की जाती है. इस दिन बच्चे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मां सरस्वती की पूजा करते हैं.

तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरे के उत्सव के दौरान लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है. पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन होता है. दूसरे दिन कला एवं विद्या की देवी सरस्वती-की अर्चना की जाती है तथा और अंतिम दिन शक्ति की देवी दुर्गा की उपासना की जाती है. कर्नाटक के मैसूर का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को प्रकाश से ससज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण का दहन का नहीं किया जाता.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी दशहरा का बहुत ही अलग तरीके से मनाया जाता है. यहां इस दिन देवी दंतेश्वरी की आराधना की जाती है. दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं. यहां यह त्यौहार 75 दिन यानी श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है. प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है. देवी कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहा जाता है. यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं. बताया जाता है कि यह समारोह लगभग पंद्रहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ था. काछिन गादि के बाद जोगी-बिठाई होती है, तदुपरांत भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) निकाली जाती है. अंत में मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है.इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है.

दशहरे के दिन वनस्पतियों का पूजन भी किया जाता है. रावण दहन के पश्चात शमी नामक वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है.
इसके साथ ही अपराजिता (विष्णु-क्रांता) के पुष्प भगवान राम के चरणों में अर्पित किए जाते हैं. नीले रंग के पुष्प वाला यह पौधा भगवान विष्णु को प्रिय है.

दशहरे का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है, अपितु यह हमारी सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है.

Monday, August 1, 2016

कैंसर के कारण और निदान

डॉ. सौरभ मालवीय
आधुनिक जीवन शैली और दोषपूर्ण खान-पान के चलते विश्वभर में हर साल लाखों लोग केंसर जैसे बीमारी की चपेट में आ रहे है और असमय ही काल कवलित हो जाते है, विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के बाकी देशों के मुक़ाबले भारत में केंसर रोग से प्रभावितों की दर कम होने के बावजूद यहाँ 15 प्रतिशत लोग केंसर के शिकार होकर अपनी जान गवा देते है. डब्लू एच्चों की ताज़ा सूची के मुताबिक 172 देशों की सूची में भारत का स्थान 155वां हैं. सूची के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है जहां केंसर से होने वाली मौत की दरें सर्वाधिक कम है. फिलहाल भारत में यह प्रतिलाख 70.23 व्यक्ति है. डेन्मार्क जैसे यूरोपीय देशों में यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक है यहाँ केंसर प्रभावितों  की दर प्रतिलाख 338.1 व्यक्ति है. भारत में हर साल केंसर के 11 लाख नए मामले सामने आरहे है वर्तमान में कुल 24 लाख लोग इस बीमारी के शिकार है. राष्ट्रीय केंसर संस्थान के एक प्रतिवेदन के अनुसार देश मे हर साल इस बीमारी से 70 हजार लोगों की मृत्यु हो जाती है इनमें से 80 प्रतिशत लोगो के मौत का कारण बीमारी के प्रति उदासीन रवैया है. उन्हें इलाज़ के लिए डॉक्टर के पास तब लेजाते है जब स्थिति लगभग नियंत्रण से बेकाबू हो जाती है, केंसर संस्थान की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल सामने आरहे साढ़े बारह लाख नए रोगियों में से लगभग सात लाख महिलाएं होती है. प्रतिवर्ष लगभग इनमें से आधी लगभग साढ़े तीन लाख महिलावों की, यानि आधी की मौत हो जाती है जो आधी आबादी के हिसाब से काफी चिंता जनक है . इनमें से भी 90 प्रतिशत की मृत्यु का कारण रोग के प्रति बरते जाने वाली अगंभीरता है ये महिलाएं डॉक्टर के पास तभी जाती है जब बीमारी अनियंत्रण की स्थिति में पहुच जाती है या बेहद गंभीर स्थिति में पहुच जाती है. ऐसी स्थिति में यह बीमारी लगभग लाइलाज हो चुकी होती है.

भारतवासियों के लिए यह बात सकून देने वाली हो सकती है की जागरूकता के अभाव के बावजूद भारत में यूरोपीय देशों के मुक़ाबले केंसर नमक इस बीमारी के विस्तार की दर धीमी है देश और दुनिया मे नित्य प्रतिदिन तकनीकी के विकास के बाद भी दुनिया में केंसर से मरने वालों की संख्या में कोई कमी नही आरही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन से प्राप्त आकड़ों के अनुसार सन 2007 में केंसर से विश्व भर में 79 लाख लोग मौत के शिकार हुये थे इस दर मे वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत बढ़ोतरी हो कर लगभग एक करोण 15 लाख हो जाने का अनुमान है वही इस दौरान केंसर के नए मामले वर्ष 2007 तक एक करोण तेरह लाख सामने आए थे जिसके वर्ष 2030 तक बढ़ कर एक करोड़ पचपन लाख हो जाने का अनुमान है.

केंसर जैसी जानलेवा बीमारी के अधिकाधिक विस्तार के पीछे मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली और खान-पान की बुरी लत का विशेष योगदान है. आधुनिक जीवन शैली का आदमी पूरी तरह से आराम पसंद है, व्यायाम उसकी दिनचर्या से लगभग बाहर हो चुका है. वह किसी न किसी मादक पदार्थ के सेवन का आदि है जो व्यक्ति किसी प्रकार का धूम्रपान नहीं करता वह कम से कम चाय या काफी या दोनों के सेवन का आदि जरूर है. एक कप काफी या चाय में लगभग चार हजार से अधिक घातक तत्व पाये जाते है तंबाकू,शराब और सिगरेट सरीखे मादक पदार्थों के सेवन से केंसर नामक इस महामारी का तेजी से विस्तार होता है. इसके अलावा मोटापा को चलते भी इस बीमारी का तेजी से विस्तार हो रहा है. वैसे तो मोटापा को सारी बीमारियों की जड़ कहा जाता है, आकड़ों पर गौर करे तो केंसर से होने वाली मौतों में 22 प्रतिशत मौत के मामले तंबाकू के सेवन के कारण हो रहे है जबकि शराब के सेवन के कारण 33 लाख लोग इस बीमारी के शिकार हो रहे है वही मोटापा के चलते 2 लाख 74 हजार लोग केंसर की चपेट में आ रहे है इसके अलावा खराब खान पान के चलते इसके चपेट में आने वालों का प्रतिशत 30 है .

ये सभी आकड़े वर्ष 2012 के आधार पर संकलित किए गए है वर्ष 2016 के आधार पर इसका विश्लेषण किया जाएगा तो संभव है यह स्थिति और भयावह हो इसके अलावा इस बीमारी के बढ्ने के कारणों में केमिकल युक्त और मिलावटी खाद्य पदार्थों की कम घातक भूमिका नही है खान पान की वस्तुओं में रासायनिक तत्वों का उपयोग आज एक वृहद समस्या का रूप ले चुका है, एक अनुमान के मुताबिक भारत में 42 प्रतिशत पुरुष और 18 प्रतिशत महिलाएं तंबाकू के सेवन के कारण केंसर का शिकार हो कर अपनी जान गवा चुके है. वही पूर्व के आकड़ों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 1990 के मुक़ाबले वर्तमान में प्रोस्टेड केंसर के मामले में 22 प्रतिशत और महिलावों में सरवाईकाल केंसर के मामले में 2प्रतिशत और वेस्ट केंसर के मामले में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

ऐसा नही है की इस बीमारी से बचा नही जासके आधुनिक जीवन शैली और खान-पान में मामूली सुधार कर आसानी से इसकी चपेट में आने से बचा जा सकता है . बीमारी का शुरू में पता चल जाए और समय रहते लोग इसका उपचार शुरू करा दे तो आसानी से बचाव संभव है.

Saturday, May 7, 2016

काव्य संग्रह ’बिखरने से बचाया जाए’ का लोकार्पण


दिल्ली के कन्सटीट्यूशन क्लब (डिप्टी चेयरमैन हॉल) में आज शाम लेखिका श्रीमती अलका सिंह के काव्य संग्रह ’बिखरने से बचाया जाए’ का लोकार्पण प्रख्यात साहित्यकार एवं आलोचक डॊ. नामवर सिंह ने किया. इस मौक़े पर उन्होंने कहा कि हिंदी में ग़ज़ल लिखना मुश्किल काम है. बहुत कम लोग ही लिखते हैं, लेकिन अलका सिंह की किताब एक उम्मीद जगाती है कि कविता, ग़ज़लें और मुक्तक को आने वाली पीढ़ी ज़िंदा रखेंगी. यह अनूठा काव्य संग्रह है. उन्होंने कहा कि लोकार्पण कार्यक्रम में इतने लोगों का जुटना अपने आप में मायने रखता है. राजनीति करने वालों ने दिल्ली को उजाड़ दिया है, यह केवल राजधानी बन कर न रहे, बिखरने से बचे. इसके लिए कविताएं ज़रूरी हैं. ’ज़रूरी तो नहीं खुशियां ही मिलें दामन में, कुछ ग़मो को भी तो सीने से लगाया जा’ बेहतरीन शेअर है.

समीक्षक अनंत विजय ने कहा कि यह संग्रह कॉकटेल है, जिसमे ग़ज़लें, कविताएं और मुक्तक हैं. हिंदी साहित्य में प्रेम का भाव है, लेकिन इस संग्रह ने नई उम्मीद जगाई है. रिश्तों को लेकर लेखिका की बेचैनी साफ़ झलकती है.
’दाग़ अच्छे है’ में अंग्रेज़ी के शब्दो का प्रयोग धूप में मोती की तरह है. आधुनिक युग की त्रासदी ’सुख बेच दिए, सुविधाओं की ख़ातिर’ में साफ़ झलकती है. शब्दों के साथ ठिठोली क़ाबिले-तारीफ़ है.

कवयित्री अनामिका ने कहा कि लेखिका की सोच व्यापक है, समावेशी है समेटने की कोशिश है. स्पष्ट और मुखर होकर बेबाकी से हर बात कही गई है. कई आयामों को छूती ये रचनाएं सीधे मन को छूती हैं.
अमरनाथ अमर ने कहा की कविता कई सवाल उठाती है और समाधान देती है. "अपना कफ़न ओढ़ कर सोने लगे हैं लोग" विश्व स्थिति को व्यक्त करती है. मंच संचालन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक डॊ. सौरभ मालवीय ने किया. सार्थक पहल का यह आयोजन प्रवक्ता डॉट कॉम तथा नया मीडिया मंच के संयुक्त तत्वावधान में हुआ. इस अवसर पर साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र की जानी मानी हस्तियां मौजूद थीं.
लोकार्पण समारोह की एक झलक
 
 
 
आयोजन के व्यवस्था पक्ष में पीछे खड़े अनिल पांडेय जी साथ ही प्रवक्ता डॉट काम के भारत भूषण और संजीव सिन्हा साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता अमरनाथ झा सहित अन्य साथी.

Sunday, April 24, 2016

राष्ट्रीय संविमर्श


भोपाल (मध्य प्रदेश) पुनरुत्थान विद्यापीठ और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में  22 और 23 अप्रैल को भोपाल में राष्ट्रीय संविमर्श का आयोजन किया गया. इसका विषय था- अध्ययन और अनुसंधान में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान.  इस विषय पर पुनरुत्थान विद्यापीठ अहमदाबाद की कुलपति आदरणीया इन्दुमति काटदरे जी ने व्यख्यान दिया. इस कार्यक्रम का संचालन भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॊ. सौरभ मालवीय ने किया.

कार्यक्रम की एक झलक

Tuesday, April 12, 2016

आया बैसाखी का पावन पर्व


डॊं सौरभ मालवीय
बैसाखी ऋतु आधारित पर्व है. बैसाखी को वैसाखी भी कहा जाता है. पंजाबी में इसे विसाखी कहते हैं. बैसाखी कृषि आधारित पर्व है. जब फ़सल पक कर तैयार हो जाती है और उसकी कटाई का काम शुरू हो जाता है, तब यह पर्व मनाया जाता है. यह पूरी देश में मनाया जाता है, परंतु पंजाब और हरियाणा में इसकी धूम अधिक होती है. बैसाखी प्रायः प्रति वर्ष 13 अप्रैल को मनाई जाती है, किन्तु कभी-कभी यह पर्व 14 अप्रैल को भी मनाया जाता है.

यह सिखों का प्रसिद्ध पर्व है. जब मुगल शासक औरंगजेब ने अन्याय एवं अत्याचार की सभी सीमाएं तोड़कर  श्री गुरु तेग बहादुरजी को दिल्ली में चांदनी चौक पर शहीद किया था, तब इस तरह 13 अप्रैल,1699 को श्री केसगढ़ साहिब आनंदपुर में दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की थी. सिखो के दूसरे गुरु, गुरु अंगद देव का जन्म इसी महीने में हुआ था. सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं. गोविंद सिंह जी ने निम्न जाति के समझे जाने वाले लोगों को एक ही पात्र से अमृत छकाकर पांच प्यारे सजाए, जिन्हें पंज प्यारे भी कहा जाता है. ये पांच प्यारे किसी एक जाति या स्थान के नहीं थे. सब अलग-अलग जाति, कुल एवं अलग स्थानों के थे. अमृत छकाने के बाद इनके नाम के साथ सिंह शब्द लगा दिया गया.
इस दिन श्रद्धालु अरदास के लिए गुरुद्वारों में जाते हैं. आनंदपुर साहिब में मुख्य समारोह का आयोजन किया जाता है. प्रात: चार बजे गुरु ग्रंथ साहिब को समारोहपूर्वक कक्ष से बाहर लाया जाता है. फिर दूध और जल से प्रतीकात्मक स्नान करवाया जाता है. इसके पश्चात गुरु ग्रंथ साहिब को तख्त पर बिठाया जाता है. इस अवसर पर पंज प्यारे पंजबानी गाते हैं. दिन में अरदास के बाद गुरु को कड़ा प्रसाद का भोग लगाया जाता है. प्रसाद लेने के बाद श्रद्धालु गुरु के लंगर में सम्मिलत होते हैं. इस दिन श्रद्धालु कारसेवा करते हैं. दिनभर गुरु गोविंदसिंह और पंज प्यारों के सम्मान में शबद और कीर्तन गाए जाते हैं.
शाम को आग के आसपास इकट्ठे होकर लोग नई फ़सल की की खुशियां मनाते हैं और पंजाब का परंपरागत नृत्य भांगड़ा और गिद्दा किया जाता है.

बैसाखी के दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है. हिन्दुओं के लिए भी बैसाखी का बहुत महत्व है. पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना इसी दिन की थी.  इसी दिन अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ था. राजा विक्रमादित्य ने विक्रमी संवत का प्रारंभ इसी दिन से किया था, इसलिए इसे विक्रमी संवत कहा जाता है. बैसाखी के पावन पर्व पर पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है. महादेव और दुर्गा देवी की पूजा की जाती है. इस दिन लोग नये कपड़े पहनते हैं. वे घर में मिष्ठान बनाते हैं. बैसाखी के पर्व पर लगने वाला बैसाखी मेला बहुत प्रसिद्ध है. जगह-जगह विशेषकर नदी किनारे बैसाखी के दिन मेले लगते हैं. हिंदुओं के लिए यह पर्व नववर्ष की शुरुआत है. हिन्दू इसे स्नान, भोग लगाकर और पूजा करके मनाते हैं.

Monday, April 11, 2016

संवाद का स्वराज विषय पर राष्ट्रीय व्याख्यान सम्पन्न


इंदौर (मध्य प्रदेश).माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय भोपाल तथा इंदौर प्रेस क्लब के संयुक्त तत्वावधान में आज इंदौर प्रेस क्लब सभागृह में संवाद का स्वराज विषय पर राष्ट्रीय व्याख्यान कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. यह कार्यक्रम केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश के कुलपति डॉ. कुलदीपचन्द अग्निहोत्री के मुख्य आतिथ्य में तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला की अध्यक्षता में हुआ. इस अवसर पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय भोपाल के कुलाधिपति एवं सचिव श्री लाजपत आहूजा तथा इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री प्रवीण खारीवाल विशेष रूप से मौजूद थे.
कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए डॉ.कुलदीपचन्द अग्निहोत्री ने कहा कि स्वस्थ एवं स्वच्छ वातावरण में हुआ संवाद ही स्वराज की पहचान है. संवाद के पीछे षड़यंत्र हो तो गड़बड़ होती है. अंग्रेजों ने भारत में आर्य एवं अनार्य के रूप में विघटन पैदा करने की कोशिश की. भारत की विविधता को नयी अवधारणा से प्रस्तुत किया. इससे भारत के संबंध में विकृत मानसिकता पैदा हुई. उन्होंने हमारे देश की विविधता के आधार पर देश को बांटने का प्रयास किया. उन्होंने कहा कि विकृत मानसिकता वालों से सावधान रहने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि देशहित में चर्चा होना संवाद का स्वराज है. हमें देश को बांटने वाले तथा तोड़ने वालों की हर चुनौतियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए.
कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए प्रो. कुठियाला ने कहा कि शब्द ब्रम्ह है. अब शब्द को ब्रम्ह में नहीं भ्रम में बदला जा रहा है. शब्द सर्वशक्तिमान है. शब्द से विचार बनता है और यह विचार व्यवहार रूप में दिखाई देते हैं. उन्होंने कहा कि संवाद, उद्देश्यपरक होना चाहिए. संवाद से सहमति बनना चाहिए. और सहमति के आधार पर परिणाम भी मिलना चाहिए, तभी संवाद की सर्थकता होती है. संवाद को आडम्बर नहीं बनने देना चाहिए. व्यर्थ का संवाद नहीं करना चाहिए. राष्ट्रीय हित में संवाद होना चाहिए. संवाद को विवाद नहीं बनने देना चाहिए. संवाद की प्रकृति विविधता भरी है. जिस तरह प्रकृति में विविधता है, उसी तरह संवाद में भी विविधता होती है. उन्होंने कहा कि विचार से ही अभिव्यक्ति बनती है. अभिव्यक्ति के माध्यम अलग-अलग होते हैं. उन्होंने कहा कि विचारों की अभिव्यक्ति में दायित्व का बोध होना चाहिए. संवाद जब दायित्वविहीन हो जाते हैं तब समाज टूटने लगता है. सकारात्मक संवाद बढ़ने से नकारात्मक संवाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं.
कार्यक्रम में कुलाधिपति एवं सचिव श्री लाजपत आहूजा ने विषय का प्रतिपादन किया. उन्होंने कहा कि संवाद की परम्परा हमारी सदियों पुरानी परंपरा है. संवाद का स्वराज हमारी विशेष पहचान है. सहिष्णुता हमारी प्रकृति में है.
कार्यक्रम में इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार श्री शशीन्द्र जलधारी ने कविता का वाचन किया. कार्यक्रम में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय भोपाल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका का विमोचन किया. कार्यक्रम का संचालन श्री सौरव मालवीय ने किया.

Friday, March 25, 2016

भारतीय संस्कृति


डॉ. सौरभ मालवीय
संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुन्दर बनाना है। मानव की जीवन पद्धति और धर्माधिष्ठित उस जीवन पद्धति का विकास भी उस संस्कृति शब्द से प्रकट होने वाला अर्थ है। इस अर्थ में राष्ट्र उसकी संतति रूप समाज, उस समाज का धर्म इतिहास एवं परम्परा आदि सभी बातों का आधार संस्कृति है। सम्पर्क सूत्र दृष्टि से देखा जाए तो इस संस्कृति का मूल वेदों में है। भाषा की उच्चता से समृद्ध, विचारों से परिपक्व, मानवीय मूल्यों का संरक्षक, समाज रचना एवं जीवन पद्धति का समुचित मार्गदर्शन कराने वाला यह वैदिक वाङ्मय गुरु शिष्य परम्परा की असाधारण प्रणाली से उसके मूल स्वरूप में आज तक यथावत् चला आ रहा है। ऐतिहासिक रूप में संसार के सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि वेद ही इस धरती की प्राचीनतम पुस्तक है और वे वेद जिस संस्कृति के मूल हैं वह संस्कृति भी इस पृथ्वी पर सर्वप्रथम ही उदित हुई। उसका निश्चित काल बताना सम्भव ही नहीं हो रहा है। लाख प्रयत्नों के बावजूद विद्वान इसे ईसा पूर्व 6000 वर्ष के इधर नहीं खींच पा रहे हैं।
भारतीय ऋषियों ने लोकमंगल की कामना से द्रवित होकर मानवीय गुणों को दैवीय उच्चता से विभूषित करने के लिए संस्कारों की अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सार्वकालिक सार्वभौमिक व्यवस्था दी है। ऐसा नहीं है कि यह केवल भारतीयों के लिये ही उचित है अपितु किसी भी भू-भाग के मानवीय गुणों के उत्थान हेतु ये संस्कार समीचीन है। इसमें किसी भी प्रकार का बन्धन जातीय, वर्णीय, आर्थिक, सामाजिक देशकालीय लागू नहीं होता।
उत्तम से उत्तम कोटि का हीरा खान से निकलता है। उस समय वह मिट्टी आदि अनेक दोषों से दूषित रहता है। पहले इसे सारे दोषों से मुक्त किया जाता है। फिर तराशा जाता है, तराशने के बाद कटिंग की जाती है। यह क्रिया गुणाधान संस्कार है। तब वह हार पहनने लायक होता है। जैसे-जैसे उसका गुणाधान-संस्कार बढत़ा चला जाता है, वैसे ही मूल्य भी बढत़ा चला जाता है। संस्कारों द्वारा ही उसकी कीमत बढी़। संस्कार के बिना कीमत कुछ भी नहीं। इसी प्रकार संस्कारों से विभूषित होने पर ही व्यक्ति का मूल्य और सम्मान बढत़ा है। इसीलिये हमारे यहां संस्कार का महात्म्य है।
संस्कार और संस्कृति में जरा-सा भी भेद नहीं है। भेद केवल प्रत्यय का है। इसीलिए संस्कार और संस्कृति दोनों शब्दों का अर्थ है-धर्म। धर्म का पालन करने से ही मनुष्य, मनुष्य है, अन्यथा खाना, पीना, सोना, रोना, धोना, डरना, मरना, संतान पैदा करना ये सभी काम पशु भी करते हैं। पशु और मनुष्य में भेद यह है कि मनुष्य उक्त सभी कार्य संस्कार के रूप में करता है। गाय, भैंस, घोड़ा, बछडा़ आदि जैसा खेत में अनाज खड़ा रहता है वैसा ही खा जाते हैं। लेकिन कोई मनुष्य खडे़े अनाज को खेतों में खाने को तैयार नहीं होता। खायेगा तो लोग कहेंगे पशुस्वरूप है। इसीलिए संस्कार, संस्कृति और धर्म के द्वारा मानव में मानवता आती है। बिना संस्कृति और संस्कार के मानव में मानवता नहीं आ सकती।
हमारे यहां प्रत्येक कर्म का संस्कृति के साथ सम्बन्ध है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त और प्रातःकाल शैया त्यागकर पुनः शैया ग्रहणपर्यन्त हम जितने कार्य करें, वे सभी वैसे हो, जिससे हमारे जीवन का विकास ही नहीं हो बल्कि वे अलंकृत, सुशोभित और विभूषित भी करें। ऐसे कर्म कौन से हैं, उनका ज्ञान मनुष्य को अपनी बुद्धि से नहीं हो सकता सामान्यतया बुद्धिमान व्यक्ति सोचता है कि वह वही कार्य करेगा जिससे उसे लाभ हो। लेकिन मनुष्य अपनी बुद्धि से अपने लाभ और हानि का ज्ञान कर ही नहीं सकता। अन्यथा कोई मनुष्य निर्धन और दुखी नहीं होता। अपने प्रयत्नों से ही उसे हानि भी उठानी पडत़ी है। इसलिये कहा जाता है कि हमने अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। अतः मनुष्य को कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान शास्त्रों द्वारा हो सकता है। शास्त्रों द्वारा बताये गये अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य कर्म और निषिद्ध कर्म को जानकर आचरण करना ही संस्कृति है।
जैसे संस्कार और संस्कृति में कोई अन्तर नहीं होता है केवल प्रत्यय भेद है वैसे ही संस्कृति और सभ्यता भी समान अर्थों में प्रयोग होती है। धर्म और संस्कृति भी एक ही अर्थ में प्रयोग होता है लेकिन अन्त में एक सूक्ष्म भेद हो जाता है जिसको मोटे तौर पर कह सकते हैं कि धर्म केवल शस्त्रेयीकसमधिगम्य है, अर्थात् शास्त्र के आदेशानुरूप कृत्य धर्म है जब कि संस्कार में शास्त्र से अविरुद्ध लौकिक कर्म भी परिगणित होता है।
अनादि सृष्टि परम्परा के रक्षण हेतु परब्रह्म परमात्मा ने अखिल धर्म मूल वेदों को प्रदान किया। हमारी मान्यता है कि वेद औपौरुषेय है उसे ही श्रुति कहा जाता है। उन्हीं श्रुतियों पर आधारित है धर्म शास्त्र जिसे स्मृति कहते हैं। शृंगेरी शारदा पीठ के प्रमुख जगत गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री भारती तीर्थ जी महाराज के अनुसार-
श्रुति स्मृति पुराणादि के आलय सर्वज्ञ भगवत्पाद श्री जगत गुरु श्री शंकराचार्य जी ने श्रीमदभागवतगीता के शाकर भाष्य के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि परमपिता परमात्मा ने जगत की सृष्टि कर उसकी स्थिति के लिए मरीच आदि की सृष्टिकर प्रवृति लक्षण धर्म का प्रबोध किया और सनक सनन्दनादि को उत्पन्न कर के ज्ञान वैराग्य प्रधान निवृति लक्षण धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। ये ही दो वैदिक धर्म मार्ग है।
स भगवान सृष्टा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्टा प्रजापतीन् प्रवृति -लक्षणं धर्म ग्राध्यामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृति -लक्षणं धर्म ज्ञान वैराग्यलक्षणं ग्राध्यामान। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृति लक्षणो निवृति लक्षणच्य। जगतः स्थिति कारणम्।।
(जगत गुरु आदि शंकराचार्य, श्रीमदभागवतगीता के शाकर भाष्य में)
इस प्रकार धर्म सम्राट श्री करपात्री जी के अनुसार-
युद्ध भोजनादि में लौकिकता-अलौकिकता दोनों ही है। जितना अंश लोक प्रसिद्ध है उतना लौकिक है और जितना शास्त्रेयीकसमधिगम्य है उतना अलौकिक है। लौकिक अंश धर्म है एवं धर्माविरुद्ध लौकिक अंश धम्र्य है। संस्कृति में दोनों का अन्तरभाव है। अनादि अपौरुषेय ग्रन्थ वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्म ग्रन्थों के अनुकूल लौकिक पारलौकिक अभ्युदय एवं निश्श्रेयशोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है। सनातन परमात्मा ने अपने अंशभूत जीवात्माओं को सनातन अभ्युदय एवं निःश्रेयश परम् पद प्राप्त करने के लिए जिस सनातन मार्ग का निर्देश किया है तदनकूल संस्कृति ही सनातन वैदिक संस्कृति है और वह वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति ही सम्पूर्ण संस्कृतियों की जननी है।
(संस्कार संस्कृति एवं धर्म)
सनातन संस्कृति के कारण इस पावन धरा पर एक अत्यंत दिव्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण कठिन तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित इस दिव्य इलेक्ट्रो-मैगनेटिक फील्ड से अत्यंत प्रभावकारी विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण जारी है, इसी से समग्र भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है। भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है। परिणामतः हिन्दू साम्राज्य किसी समाज, देश और पूजा पद्धति को त्रस्त करने में कभी उत्सुक नहीं रहे। यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले, इसका सतत् प्रयत्न किया जाता है। आवश्यकतानुरूप त्यागमय भोग ही अभीष्ट है तभी तो दातुन हेतु भी वृक्ष की एक टहनी तोड़ने के पूर्व हम वृक्ष की प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि-
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजा पशु वसूनिच।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्ंवनो देहि वनस्पति।।
(वाधूलस्मृति 35, कात्यायन स्मृति 10-4,
विश्वामित्र स्मृति 1-58, नारद पुराण 27-25,
देवी भागवत 11-2-38, पद्म पुराण 92-12)

Thursday, March 17, 2016

उमंग का पर्व है होली


डॊ. सौरभ मालवीय
होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं.  सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष मह्त्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.



होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है.

Friday, March 11, 2016

भारतीय समाज और मीडिया


डॉ. सौरभ मालवीय
आज सम्पूर्ण विश्व विज्ञान की प्रगति और संचार माध्यमों के कारण ऐसे दौर में पहुंच चुका है कि मीडिया अपरिहार्य बन गई है। बड़ी-बड़ी और निरंकुश राज सत्ताएं भी मीडिया के प्रभाव के कारण धूल चाट रही है वरना किसको अनुमान था कि लीबिया के कर्नल मुअम्मद अल गद्दाफी भी धूल चाट लेंगे। मिश्र, यमन और सूडान में जो जन विद्रोह हुए वह कल्पनातीत ही था। सर्व शक्ति संपन्न अमेरिका के ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल में जो अमानुषिक यंत्रणा दी जाती है वह मीडिया के द्वारा ही तो जाना गया। आस्टे्रलिया के जूलियस असाँत्जे की विकीलीक्स में विश्व राजनीतिक संबंधों पर पुर्नविचार के लिए बाध्य हो गया। कुल मिलाकर यह अघोषित सत्य हो गया है कि मीडिया को दरकिनार करके जी पाना अब असंभव है। लोकतांत्रिक देशों में तो मीडिया चतुर्थ स्तंभ के रूप में ही जाने जाते हैं। इस खबर पालिका को कार्यपालिका, विधायिका, न्यायापालिका के समकक्ष ही रखा जाता है। खबर पालिका के अभाव में वह लोकतंत्र लंगड़ा व तानाशाह भी हो जाता है। बहुत पहले प्रयाग के एक शायर अकबर इलाहाबादी ने खबर पालिका की ताकत को राज सत्ता की तोपों से भी ज्यादा शक्तिशाली माना था। उनका यह शेर खबर पालिका में ब्रम्ह बाक्य बन गया कि
”खींचों न कमाने व न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो॥”
इन सारी बुलंदियों के बीच खबर पालिका को एक मिशन बनकर उभरना चाहिए। खबर पालिका से जुड़े लोग स्वयं निर्मित एवं स्वयं चयनित होते हैं। ऐसे में राष्ट्र और समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व और गहरा हो जाता है। यदि वह अपने इस कर्तव्य बोध को ठीक से न समझे तो उनके पतीत होने की संभावना पग-पग बनी रहती है। भारत के दुर्भाग्य से भारत में दो प्रकार की खबर पालिका है जो समानांतर जी रही हैं। एक भारत का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पहुंच भारत की भाषा और बोली में 90 प्रतिशत जनता तक है लेकिन 90 प्रतिशत यह लोग कम शिक्षित और चकाचौंध से दूर रहने वाले ही हैं। दूसरी मीडिया जो इंडिया का प्रतिनिधित्व करती है वह 3 प्रतिशत से भी कम लोगों की है लेकिन वह तीसरे पेज पर छाये रहने वाले लोगों के बूम से चर्चित रहती है। यह तीसरे पेज वाले लोग स्वयंभू शासक है और उन्होंने मान लिया है कि भारत पर शासन करने, इसकी दशा और दिशा तय करने और भारतियों को हांकने की मोरूसी लाठी उन्हीं के पास है और यह लोग खबरों को मनमाने ढंग से तोड़ते-मरोड़ते और प्लाटिंग करते रहते हैं। पिछले साल संपन्न हुए कामन बेल्थ खेलों के दौरान और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की अनियमित्ता में नीरा राड़िया के सामने इस इंडिया के अनेक मीडियाकर नंगे पाये गये। कहां पत्रकारिता का आदर्श गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू विष्णु पराडकर, पूर्णचन्द्र गुप्त, महावीर प्रसाद आदि और कहां आज सर्व सुविधायुक्त जमाने में नीरा राडिया का आदर्श। यह तो होना ही था। जब पत्रकार अपने आदर्शों से चूकता है तो वह पूरी व्यवस्थाओं को लेकर डूबता है। पहले ऐसे पत्रकार ‘पीत पत्रकार’ की सूची में जाति भ्रष्ट होते थे। अब तो इन कुजातियों को एक अवसर ही ‘पेड न्यूज’ में दे दिया गया है। लेकिन बात सबसे अधिक तब अखरती है जब पत्रकार दलाल पत्रकारिता और सुपारी पत्रकारिता के स्तर पर पतित होता है।
आज हिन्दी पत्रकारिता में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समूह की यह स्थिति है कि इनमें से किसी एक के बराबर भी पूरे भारत की सारी प्रिंट मीडिया मिलकर भी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य है भारत का कि 2 प्रतिशत लोगों के लिए छपने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र भारत का नेतृत्व संभालने का दाबा करते हैं। दृश्य पत्रकारिता में अनेक ऐसे ग्रुप आ गये हैं जो अपने राजनैतिक आका की जी-हजूरी को अपना धर्म मानते हैं। अन्यथा सन टीवी और मलयालम मनोरमा का उदय भी कैसे होता? यह तो भला हो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का कि इन लोगों का कुकर्म सामने आ गया। उत्तर भारत के समाचारपत्रों में भी एक-दो छोड़कर ऐसा कोई समाचार समूह नहीं है जो अपने राजनैतिक देवताओं की जी-हजूरी न बताता हो। सहारा समूह, नेशनल हेराल्ड, ऐशियन ऐज, नई दुनिया, टाईम्स ग्रुप आदि की स्वामी भक्ति के आगे तो शर्म भी शर्मशार होने लगी है। ‘इंडिया एक्सप्रेस’ ने जब-जब सहास किया, तब-तब सत्ताधारियों ने उसकी कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह तो रामनाथ गोयनका और अरूण शौरी की इतनी प्रभुत्य तपस्या थी कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। आज भी सत्ता समर्थक मीडिया को सरकारी विज्ञापनों से मालामाल कर दिया जाता है और सत्य समर्थक मीडिया पर सरकारी पुलिसिया रौब के डंडे फटकारे जाते हैं, उनका जीना दुभर कर दिया जाता है। उन्हें संसदीय या विधानसभाई कार्यवाहियों के प्रवेश पत्र भी नहीं दिये जाते हैं, जबकि सरकारी भौपूओं को देश-विदेश की असमिति यात्राओं सहित फ्लेटस और अनन्यान्य प्रकार की सभी सुविधाओं से सजाकर दामाद जी जैसी आवभगत की जाती है।

संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मो. +919907890614

ईमेल : drsourabhmalviya@gmail.com                                                                             

Friday, March 4, 2016

भारतीय संस्कृति में नारी कल, आज और कल


डॉ. सौरभ मालवीय
‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है, इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कान्ता आदि है, इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विलसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात समग्र सृष्टि ही नारी है इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो वरवश मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम माँ हो ............।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण मैं फंस जाते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है माँ । अत्यंत दुःख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनी उच्चरित होती है वह सिर्फ माँ ही होती है। क्योंकि माँ की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है ।  और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं लेकिन माँ ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते है कि-
वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पीतरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार सम्भवम)
जगत के माता-पिता (पीतर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन।
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते  हैं –
जगत मातु पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते है, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परन्तु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। सन्त ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को“माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते है –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचन्द्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूँघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को सन्त कबीर स्त्री मानते है और शिव (ब्रह्म) को पुरुष यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है ।
भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है, पूरी सृष्टि ही स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि ,निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियाँ भाव-प्रधान होती हैं, सच कहिये तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है,बुद्दि में भी ह्रदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी आनंद की अनुभूति करती रहती।कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नही कर सकता। भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविध कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है उनका बुरा नहीं करती,जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नही सकता क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है, विवेक हिसाब करता है घाटा लाभ जोड़ता है, और हृदय हिसाब नही करता। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
यह आज समझ मैं पायी हूँ कि
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयन की सुन्दर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूँ ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है,इसके दो स्तम्भ है- स्त्री और पुरुष।परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महतवपूर्ण है,समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है|कई पुरानी परम्पराओं,रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ।महिलाएँ अब घर से बाहर आने लगी है कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दे रही है,अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही है अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा,शिक्षा,राजनीति,खेल,मिडिया सहित विविध विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को सँभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की  कि नारी विकास की केन्द्र है और भविष्य भी उसी का है, स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती। अतः मानव और मानवता दोनों को बनाये रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।

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डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
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भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है