Sunday, February 11, 2018

भावी भारत, युवा और पंडित दीनदयाल उपध्याय


डॉ. सौरभ मालवीय
1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश के सामने उसके स्वरूप की महत्वपूर्ण चुनौती थी कि अंग्रेजों के जाने बाद देश का स्वरूप क्या होगा। कॉंग्रेसी नेता सहित उस समय के अधिकांश समकालीन विद्वानों का यही मानना था कि अंग्र्रेजों के जाने के बाद देश अपना स्वरूप स्वतः तय कर लेगा, अर्थात तत्कालीन नेताओं जेहन में देश के स्वरूप से अधिक चिंता अंग्र्रेजों के जाने को लेकर था, राष्ट्र के स्वरूप को लेकर गॉंधी जी के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक चिंता या विचार प्रकट किये, उनमें श्यामाप्रसाद मखर्जी के अलावा पं. दीनदयाल उपध्याय का नाम उन चुनिन्दे चिंतकों में शामिल था, जो आजादी मिलने के साथ ही देश का स्वरूप भारतीय परिवेश, परिस्थिति और सांस्कृतिक, आर्थिक मान्यता के अनुरूप करना चाहते थे। वे इस कार्य में पश्चिम के दर्शन और विचार को प्रमुख मानने के वजाए सहयोगी भूमिका तक ही सीमित करना चाहते थे, जबकि तत्कालीन प्रमुख नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू पश्चिमी खाके में ही राष्ट्र का ताना-बाना बुनना चहते थे।
अगर हम गॉंधीजी और दीनदयाल जी के विचारों के निर्मेष भाव से विवेचना करें तो दोनों नेता राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के अभ्युदय और उत्थान में ही उसका वास्तविक विकास मानते थे। हालांकि दोनों के दृष्टिकोंण में या इसके लिए अपनाये जाने वाले साधनों और दर्शन तत्त्वों में मूलभूत विभेद भी था। दीनदयाल जी इस राष्ट्र नव-जागरण में युवाओं की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि किसी राष्ट्र का स्वरूप उसके युवा ही तय करते हैं। किसी राष्ट्र को जानना हो तो सर्वप्रथम राष्ट्र के युवा को जानना चाहिए। पथभ्रष्ट और विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कभी कोई राष्ट्र अपना चिरकालिक सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। दीनदयाल जी की दृष्टि में युवा राष्ट्र की थाती है, एवं युवा-युवा के बीच भेद नहीं करता वह समग्र युवाओं को राष्ट्र की थाती मानता है। राष्ट्र जीवंत और प्राणवान सांस्कृतिक अवधारणा है। पण्डित जी राष्ट्र को जल, जंगल, जमीन का सिर्फ समन्वय नहीं मानते थे।
राष्ट्र और युवा के सम्बन्ध में दीनदयाल जी की मान्यता थी कि राष्ट्र का वास्तविक विकास सिर्फ उसके द्वारा ओद्योगिक जाना, और बड़े पैमाने पर किया गया पूॅंजी निवेश मात्र नहीं है। उनका स्पष्ट मानना था कि किसी राष्ट्र का सम्पूर्ण और समग्र विकास तब तक नहीं जब तक कि राष्ट्र का युवा सुशिक्षित और सुसंस्कृत नहीं होगा। सुसंस्कृत से पण्डित जी का आशय सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान तक नहीं था, बल्कि वह ऐसी युवा शक्ति निर्माण की बात करते थे जो राष्ट्र की मिट्टी और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ाव महसूस करता हो, उनके अनुसार यह तब तक सम्भव नहीं था, जब तक युवा, देश की संस्कृति और उसकी बहुलतावादी सोच मंे राष्ट्र की समग्रता का दर्शन न करता हो। अगर इसे हम भारत जैसे बहुलवादी राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो ज्ञात होगा कि उसकी सांस्कृतिक बहुलता में भी एक समग्र संस्कृति का बोध होता है। जो उसे अनेकता में भी एकता के सूत्र में पिरोये रखने की ताकत रखता है। यही वह धागा है, जिसने सहस्त्रों विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी राष्ट्र को कभी विखंडित नहीं होने दिया, और एक सूत्र में पिरोए रखा।
पश्चिमी दार्शनिक मनुष्य के सिर्फ शारीरिक और मानसिक विकास की बात करते हैं। वहीं अधिकांश भारतीय दार्शनिक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक विकास के साथ ही धार्मिक विकास पर भी जोर देते हैं। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन की बाद करते हैं, तो उनका भी आशय यही होता है कि पूर्ण मानव बनना तभी सम्भव है, जब मनुष्य का शारीरिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसका अध्यात्मिक विकास भी हो। इस एकात्म मानव दर्शन में व्यष्टि से समष्टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है युवा व्यक्तित्व का विकास होगा तो समाज विकसित होगा, समाज विकसित होगा तो राष्ट्र तो राष्ट्र की उन्नति होगी, और राष्ट्र की उन्नति होगी तो विश्व का कल्याण होगा। राष्ट्र के सम्बन्ध में दीनदयाल जी का विचार था कि जब एक मानव समुदाय के समक्ष, एक वृत्त-विचार आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृ भाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है, अर्थात पण्डित जी के अनुसार देश के युवा राष्ट्र के सच्चे सपूत तभी कहलायेंगे जब वे भारत मॉं को मातृ जमीन का टुकड़ा न समझें, बल्कि उसे सांस्कृतिक मॉं के रूप में स्वीकार करें। उनका विचार था कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है जिसे चिती रूप में जाना जाता है।
प्रसिद्ध विद्वान मैक्डूगल के अनुसार किसी भी समूह की एक मूल प्रवृत्ति होती है, वैसे ही चिती किसी समाज की मूल प्रवृत्ति है जो जन्मजात है, और उसके होने का कारण ऐतिहासिक नहीं है। इसी क्रम में वर्तमान परिप्रेक्ष्य के भौतिकवादी स्वरूप को देखते हुए एवं युवाओंे के मौजूदा स्थिति और स्वभाव के बारे में चिंता प्रकट करते हुए एक बार अपने उद्बोधन में पण्डित दीनदयाल जी कहा था कि किसी भी राष्ट्र का युवा का इस कदर भौतिकवादी होना और राष्ट्र राज्य के प्रति उदासीन होना अत्यन्त घातक है। दीनदयाल जी का युवाओं के लिए चिंतन था कि भारत जैसा विशाल एवं सर्वसम्पन्न राष्ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृति पृष्ठभूमि के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान पुंज के आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगत गुरू के पद पर प्रतिष्ठापित हुआ। ऐसे विशाल राष्ट्र के पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी का विचार और स्वाधीनता पश्चात समर्थ सशक्त भारत बनाने में युवाओं के योगदान को महत्त्वपूर्ण माना है।
पं. दीनदयाल उपध्याय के मन में जो मानवता के प्रति विचार थेए उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्रश् से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व युवा ही करते हैं द्य अतः युवाओं के विचारों का अध्ययन करके मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाएए जो कि युवाओं के लिए प्रेरक तो ही साथ ही साथ युवाओं के माध्यम से भारत एक वैश्विक शक्ति बन सके।

मानवता के कल्याण का विचार है एकात्म मानवदर्शन

डॉ. सौरभ मालवीय
मनुष्य विचारों का पुंज होता है और सर्व प्रथम मनुष्य के चित्त में विचार ही  उभरता है। वही विचार घनीभूत होकर संस्कार बनते है और मनुष्य के कर्म रूप में परिणीति हो कर व्यष्टि और समष्टि सबके हित का कारक बनते है।  यदि विचारों की परिपक्वता अपूर्ण रह गई तो परिणाम विपरीत होने लगतेहै।  भारतीय महर्षियों ने विचारों की अनन्त उचाई छूने का प्रयास किया और इस विचार यात्रा में पाया गया कि सबसे उत्तम धर्म वही होगा जिसमें मनुष्यों के खिलने की समग्र संभावनाओं के द्वार खुले हो जिसे जो होना है वह हो और दूसरे के होने में बाधक न हो वल्कि साधक हो।  इस प्रकार के सः अस्तित्व की विचार सारणी इस धरा-धाम पर सबकी संभावनाओं के द्वार खोलती है। और इस प्रक्रिया में टकराहट की कल्पना भी नही सः अस्तित्व सहज धर्म बन जाता है और सूत्रवद्धता सबके मूल में स्थापित हो जाती है।
ऋषियों की यह चिंतन शैली भारत के जन मन में घुल हुआ है,भारत की मानसिकता इसी प्रकार के समग्र सोच पर विकसित है।  परोपकार ,अहिंसा ,करुणा ,क्षमा,दया ,आर्जव ,मृदुता,प्रतिभा इत्यादि अनेको प्रकार के फल इसी चिंतन वृक्ष पर सदियों से सदाबहार रूप में लदे रहते है। लम्बे गुलामी के कारण हमारी चिंतन धारा में भी गतिरोध पैदा हुआ और उस जीवन वृक्ष से नवीन सपने ढहता गया।  इस दौरान एक अपूर्ण विचार भी हम पर थोपने का प्रयास हुआ. सामान्यतः ऐसा होता ही है बिजेता चाहे जितना भी पतित विचार या जीवन शैली का हो अपनी उन चिंजो को विजितों पर लादता ही है उसी में कुछ चाटुकार वृति के लोग विजेताओं के इस नए धर्म का गला फाडू स्वागत करने लगते है पश्चिम के चिंतको में एक अत्यंत ही प्रमुख नाम रेन्डेकार्ट ने यहाँ तक घोषणा कर दिया कि ईश्वर मर गया है विश्व में ईश्वर नाम को कोई चीज ही नहीं है।  फेडरिकमित्से,कारलायल आदि विचारकों ने खण्डसह सोच को प्राथमिकता दी उनके कारण यह चिंतन ही पैदा नहीं हो पाया कि प्रकृति में कही एक सूत्रता भी है इस विचार ने अपनी पूरी ऊर्जा यह बताने में लगा दिया की व्यक्ति और समाज दो है। साधन और साध्य दो है।  सृष्टि और परमेष्ठी दो है।  देश और राष्ट्र दो है।  राष्ट्र और विश्व दो है इत्यादि।  इन द्वंदों के बीच वो यह भी कहते गए कि इनके लक्ष्य पूर्ति में विरोधाभाष भी है।  इस तरह के अपूर्ण चिंतन शैली का भयंकर परिणाम यह हुआ की हीगेल नाम के विचारक ने यह विचार दिया की आगे बढे हुए लोग अनैतिक हो जाते है जो पीछे वालों की नैक्तिक्ता पर पलते है इसी प्रकार की अपूर्ण शैली पर कार्ल मार्क्स ने बुजुर्वा और सर्वहारा शब्द गढ़े। उन्मादी मानसिकता के इस सोच ने विश्व में राष्ट्र ,परिवार ,ग़ाँव ,देश इत्यादि संस्थाओ और भावनात्मक सम्वन्धों को मिटा कर एक नई रेखा खीचंनी शुरू की लगभग ६० वर्षो के भीतर अधिक से अधिक धरती को अपनी छतरी के नीचें ढका लेकिन क्या परिणाम हुआ ये सारे के सारे देश टूट गए वहा का समाज जीवन नष्ट भ्रस्ट हो गया वे लोग अब पेरोस्ट्राइका और ग्लासमोस्ट की छाँव खोज रहे है।

एक दूसरी विचार शैली ने पूंजीवाद का एक ऐसा नँगा रूप खड़ा कर दिया की वहा हर व्यक्ति एक दूसरे को ग्राहक समझने लगा हर आदमी अपने मॉल  बढ़िया बता कर हर दूसरे को बेचा रहा है भले ही उसकी कोई सार्थकता न हो।  इस भयंकर परिस्थिति में यह सोचने का विषय है कि मनुष्य केवल व्यापारिक सम्बन्धो के कारण जी रह है या मनुष्य का बल पूंजी है ? क्या मनुष्य केवल रोटी है ?  जब इसकी जड़ो की ओर हम जाते है तो दिखाई देता है कि यह ओरिजिन ऑफ़ स्पेसिज तथा स्पेंसर वे तीन जीवन दिखाई देते है जिसमे कहा गया है कि सर्वाइकल ऑफ फिटेस्ट ,एक्सपोलाइटेशन ऑफ़ नेचर और स्ट्रिगल फार एजिस्टेंस ही मूल है यह बितण्डावाद इतना गहरा हो गया है की पूरा विश्व ही त्राहिमाम कर रहा है।  युग पुरुष महामनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सन १९६२ में श्री बद्रीशाह कुलधारिया की एक पुस्तक दैशिकशास्त्र पढ़ा पंडित जी ने दैशिकशास्त्र के जीवन मूल्यों के गुण सूत्र तो लाखो साल पुरानी परम्परा से चली आरहे श्री बद्रीशाह के अमृत वर्षा ने जीवन मूल्यों को फलने फूलने का अवसर दिया उसी शुभअवसर का अमृत फल एकात्म मानव दर्शन है।  जिसमे मनुष्य के परम स्वातंत्रय की घोषण है इस महामंत्र को पंडित जी ने सन १९६४ में मुंबई के भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में प्रस्तुत किया था।  इस एकात्म मानव दर्शन में व्यष्टि से समष्टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है व्यक्ति का विकास हो तो समाज विकसित होगा समाज विकसित होगा तो राष्ट्र की उन्नति होगी राष्ट्र के उन्नति से विश्व का कल्याण होगा।  इस सूत्र को पंडित दीनदयाल जी ने श्रीमदभागवत से ग्रहण किया था जिसकी मूल धारणा स्ट्रिगल फार एजिस्टेंस नहीं वल्कि अस्तित्व के लिए सहयोग है।  उपनिषदों से किये हुए अमृत ने पंडित जी ने कहा कि जीवन उपभोग नहीं वल्कि तेन भुञ्जितः है सम्पूर्ण विश्व सुखी होगा।  सर्वाइकल ऑफ़ फिटेस्ट यह जीवन मंत्र नहीं हो सकता अपितु सबका सहयोग और सबका विकास जीवन दृष्टि है। ,एक्सपोलाइटेशन ऑफ़ नेचर यह पूरी तरह से मानव जाती को डूबा देगा।  जब की एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता दीनदयाल जी कहते है प्रकृति के सहयोग से अपना अस्तित्व बचाये रख सकते है प्रकृति गाय है गाय हमारी माता है हम उस माँ का दूध पिएंगे तो हम भी सुखी और स्वास्थ्य रहेंगे और प्रकृति माँ भी सुखी रहेंगी लेकिन यदि गाय का खून पिएंगे तो गाय भी मर जाएगी और हम भी मर जायेंगे।  यह उच्चतम मूल्य पूरी दृष्टि से हमें एकात्म हो जाने की प्रेरणा देती है यही एकात्म मानव दर्शन है जो इस धरती को एक नई दिशा देगा और सबका कल्याण होगा।

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है