डॊ. सौरभ मालवीय
छठ सूर्य की उपासना का पर्व है. यह प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अर्घ्य देकर पूर्ण किया जाता है. सूर्य उपासना का पावन पर्व छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने जाता है. इसलिए इसे छठ कहा जाता है. हिन्दू धर्म में सूर्य उपासना का बहुत महत्व है. छठ पूजा के दौरान क केवल सूर्य देव की उपासना की जाती है, अपितु सूर्य देव की पत्नी उषा और प्रत्यूषा की भी आराधना की जाती है अर्थात प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण ऊषा तथा सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर उनकी उपासना की जाती है. पहले यह पर्व पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता था, लेकिन अब इसे देशभर में मनाया जाता है. पूर्वी भारत के लोग जहां भी रहते हैं, वहीं इसे पूरी आस्था से मनाते हैं.
छठ पूजा चार दिवसीय पर्व है. इसका प्रारंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा कार्तिक शुक्ल सप्तमी को यह समाप्त होता है. इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का कठोर व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते. पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है. सबसे पहले घर की साफ-सफाई की जाती है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र विधि से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत आरंभ करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजन करने के उपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है. दूसरा दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी खरना कहा जाता है. व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के पश्चात संध्या को भोजन करते हैं. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को बुलाया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर, दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है. तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ और चावल के लड्डू बनाए जाते हैं. चढ़ावे के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में सम्मिलित होते हैं. संध्या के समय बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. सभी छठ व्रती नदी या तालाब के किनारे एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य देव को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है. चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं, जहां उन्होंने संध्या के समय सूर्य को अर्घ्य दिया था और सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इसके पश्चात व्रती कच्चे दूध का शीतल पेय पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं. इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित है. जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां छठ के गीत गाए जाते हैं.
छठ का व्रत बहुत कठोर होता है. चार दिवसीय इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. इस दौरान व्रती को भोजन तो छोड़ना ही पड़ता है. इसके अतिरिक्त उसे भूमि पर सोना पड़ता है. इस पर्व में सम्मिलित लोग नये वस्त्र धारण करते हैं, परंतु व्रती बिना सिलाई वाले वस्त्र पहनते हैं. महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ पूजा करते हैं. इसकी एक विशेषता यह भी है कि प्रारंभ करने के बाद छठ पर्व को उस समय तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसे आरंभ नहीं करती. उल्लेखनीय है कि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है.
छठ पर्व कैसे आरंभ हुआ, इसके पीछे अनेक कथाएं हैं. एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और सीता मैया ने उपवास रखकर सूर्यदेव की पूजा की थी. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था. एक अन्य कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी थी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ, परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई. उसने कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण वह षष्ठी है. उसने राजा से कहा कि वह उसकी उपासना करे, जिससे उसकी मनोकामना पूर्ण होगी. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी. एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल में हुआ था. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था. आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है.
पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता था. भारत में वैदिक काल से ही सूर्य की उपासना की जाती रही है. देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है. विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है. उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना की जाने लगी. कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा की जाने लगी. अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए. कोणार्क का सूर्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध है.
छठ महोत्सव के दौरान छठ के लोकगीत गाए जाते हैं, जिससे सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है.
’कईली बरतिया तोहार हे छठी मैया’ जैसे लोकगीतों पर मन झूम उठता है.
छठ सूर्य की उपासना का पर्व है. यह प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अर्घ्य देकर पूर्ण किया जाता है. सूर्य उपासना का पावन पर्व छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने जाता है. इसलिए इसे छठ कहा जाता है. हिन्दू धर्म में सूर्य उपासना का बहुत महत्व है. छठ पूजा के दौरान क केवल सूर्य देव की उपासना की जाती है, अपितु सूर्य देव की पत्नी उषा और प्रत्यूषा की भी आराधना की जाती है अर्थात प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण ऊषा तथा सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर उनकी उपासना की जाती है. पहले यह पर्व पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता था, लेकिन अब इसे देशभर में मनाया जाता है. पूर्वी भारत के लोग जहां भी रहते हैं, वहीं इसे पूरी आस्था से मनाते हैं.
छठ पूजा चार दिवसीय पर्व है. इसका प्रारंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा कार्तिक शुक्ल सप्तमी को यह समाप्त होता है. इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का कठोर व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते. पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है. सबसे पहले घर की साफ-सफाई की जाती है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र विधि से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत आरंभ करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजन करने के उपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है. दूसरा दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी खरना कहा जाता है. व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के पश्चात संध्या को भोजन करते हैं. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को बुलाया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर, दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है. तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ और चावल के लड्डू बनाए जाते हैं. चढ़ावे के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में सम्मिलित होते हैं. संध्या के समय बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. सभी छठ व्रती नदी या तालाब के किनारे एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य देव को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है. चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं, जहां उन्होंने संध्या के समय सूर्य को अर्घ्य दिया था और सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इसके पश्चात व्रती कच्चे दूध का शीतल पेय पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं. इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित है. जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां छठ के गीत गाए जाते हैं.
छठ का व्रत बहुत कठोर होता है. चार दिवसीय इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. इस दौरान व्रती को भोजन तो छोड़ना ही पड़ता है. इसके अतिरिक्त उसे भूमि पर सोना पड़ता है. इस पर्व में सम्मिलित लोग नये वस्त्र धारण करते हैं, परंतु व्रती बिना सिलाई वाले वस्त्र पहनते हैं. महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ पूजा करते हैं. इसकी एक विशेषता यह भी है कि प्रारंभ करने के बाद छठ पर्व को उस समय तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसे आरंभ नहीं करती. उल्लेखनीय है कि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है.
छठ पर्व कैसे आरंभ हुआ, इसके पीछे अनेक कथाएं हैं. एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और सीता मैया ने उपवास रखकर सूर्यदेव की पूजा की थी. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था. एक अन्य कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी थी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ, परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई. उसने कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण वह षष्ठी है. उसने राजा से कहा कि वह उसकी उपासना करे, जिससे उसकी मनोकामना पूर्ण होगी. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी. एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल में हुआ था. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था. आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है.
पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता था. भारत में वैदिक काल से ही सूर्य की उपासना की जाती रही है. देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है. विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है. उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना की जाने लगी. कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा की जाने लगी. अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए. कोणार्क का सूर्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध है.
छठ महोत्सव के दौरान छठ के लोकगीत गाए जाते हैं, जिससे सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है.
’कईली बरतिया तोहार हे छठी मैया’ जैसे लोकगीतों पर मन झूम उठता है.
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