Saturday, December 23, 2017

सहृदय कवि : अटलजी

अटल जी के जन्म दिवस 25 दिसंबर पर विशेष
डॊ. सौरभ मालवीय 
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को एक राजनीतिज्ञ के रूप में जाना जाता है. राजनीतिज्ञ होने के अलावा वह साहित्यकार भी हैं. उन्हें साहित्य विरासत में मिला था. वह कहते हैं, ‘रामचरितमानस’ तो मेरी प्रेरणा का स्रोत रहा है. जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है. बचपन से ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. स्वदेश-प्रेम, जीवन-दर्शन, प्रकृति तथा मधुर भाव की कविताएं उन्हें बाल्यावस्था से ही आकर्षित करती रही हैं. उनकी कविताओं में प्रेम है, करुणा है, वेदना है. एक पत्रकार के रूप में वे बहत गंभीर दिखाई देते हैं. वे कहते हैं, मेरे भाषणों में मेरा लेखक ही बोलता है, पर ऐसा नहीं कि राजनेता मौन रहता है. मेरे लेखक और राजनेता का परस्पर समन्वय ही मेरे भाषणों में उतरता है. यह जरूर है कि राजनेता ने लेखक से बहुत कुछ पाया है. साहित्यकार को अपने प्रति सच्चा होना चाहिए. उसे समाज के लिए अपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए. उसके तर्क प्रामाणिक हो. उसकी दृष्टि रचनात्मक होनी चाहिए. वह समसामयिकता को साथ लेकर चले, पर आने वाले कल की चिंता जरूर करे. वे भारत को विश्वशक्ति के रूप में देखना चाहते हैं. वे कहते हैं, मैं चाहता हूं भारत एक महान राष्ट्र बने, शक्तिशाली बने, संसार के राष्ट्रों में प्रथम पंक्ति में आए.

जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था. लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा. उन्हें विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाख़िल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की. इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता. उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की. कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था. वह 1943 में कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने. ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वह कानपुर चले गए. यहां उन्होंने डीएवी महाविद्यालय में प्रवेश लिया. उन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की. इसके बाद वह पीएचडी करने के लिए लखनऊ चले गए. पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य भी करने लगे. परंतु वह पीएचडी करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण उन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था. उस समय राष्ट्रधर्म नामक समाचार-पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संपादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था. तब अटलजी इसके सह सम्पादक के रूप में कार्य करने लगे. पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार-पत्र का संपादकीय स्वयं लिखते थे और शेष कार्य अटलजी एवं उनके सहायक करते थे. राष्ट्रधर्म समाचार-पत्र का प्रसार बहुत बढ़ गया. ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबंध किया गया, जिसका नाम भारत प्रेस रखा गया था. वह मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म के प्रथम संपादक रहे हैं. वह प्रथमांक से 26 अक्टूबर, 1950 तक इसके संपादक रहे.
अटल जी कहते हैं कि छात्र जीवन से ही मेरी इच्छा संपादक बनने की थी. लिखने-पढ़ने का शौक और छपा हुआ नाम देखने का मोह भी. इसलिए जब एमए की पढ़ाई पूरी की और कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ने के बाद सरकारी नौकरी न करने का पक्का इरादा बना लिया और साथ ही अपना पूरा समय समाज की सेवा में लगाने का मन भी. उस समय पूज्य भाऊ राव देवरस जी के इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया कि संघ द्वारा प्रकाशित होने वाले राष्ट्रधर्म के संपादन में कार्य करूंगा, श्री राजीवलोचन जी भी साथ होंगे. अगस्त 1947 में पहला अंक निकला और इसने उस समय के प्रमुख साहित्यकार सर सीताराम, डॉ. भगवान दास, अमृतलाल नागर, श्री नारायण चतुर्वेदी, आचार्य वृहस्पति व प्रोफेसर धर्मवीर को जोड़कर धूम मचा दी.

कुछ समय के पश्चात 14 जनवरी 1948 को भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा. अटलजी इसके प्रथम संपादक बनाए गए. इस समाचार-पत्र का संपादन पूर्ण रूप से वही करते थे. 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया था. कुछ समय के पश्चात 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई. इसके बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया. इसके साथ ही भारत प्रेस को बंद कर दिया गया, क्योंकि भारत प्रेस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी. भारत प्रेस के बंद होने के पश्चात अटलजी इलाहाबाद चले गए. यहां उन्होंने क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया. परंतु जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा, वह पुन: लखनऊ आ गए और उनके संपादन में स्वदेश नामक दैनिक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा. परंतु हानि के कारण स्वदेश को बंद कर दिया गया. वर्ष 1949 में काशी से सप्ताहिक ’चेतना’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इसके संपादक का कार्यभार अटलजी को सौंपा गया. उन्होंने इसे सफलता के शिखर तक पहुंचा दिया.

फिर वर्ष 1950 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रतिबंध हटने क बाद दैनिक स्वदेश का पुन: प्रकाशन शुरू हो गया. दुर्भाग्यवश वर्ष 1952 में प्रथम लोकसभा चुनाव के बाद आर्थिक संकट के कारण स्वदेश को बंद करना पड़ा. उस समय अटलजी ने इसका अंतिम संपादकीय लिखा, जिसका शीर्षक था अलविदा. यह संपादकीय बहुत चर्चित हुआ. इसके बाद वह दिल्ली आ गए और यहां से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र वीर अर्जुन में कार्य करने लगे. यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था.
अपने संपादक कार्यकाल के बारे में अटलजी कहते हैं, उन दिनों संपादन का कार्य बड़े दायित्व का कार्य समझा जाता था. उसके साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती थी. वेतन तथा अन्य सुविधाओं पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था. हम तो अवैतनिक संपादक ही रहे. केवल जरूरी खर्च भर के लिए ही पैसे लेते थे. सुविधाएं नाममात्र कीं, किंतु विचारधारा के प्रचार का एक अदभुत संतोष था. दैनिक समाचार-पत्रों के संपादन के बारे में वे कहते हैं, दैनिक पत्र के संपादन का आनंद तो और ही है. उसका अपना अलग ही आनंद होता है. मुझे याद है, शाम से जो कार्य प्रारंभ होता था कि कौन कितनी देर रात समाचारों को खोजता है और उनके प्रकाशन में आगे रहता है. प्राय: प्रतिदिन भोर में जब चिड़ियां चहचहाने लगती थीं, तो थकान से चूर होकर खाट पर लेटते थे. और ऐसी गहरी नींद आती थी कि उसका स्मरण कर इस समय भी मन पुलकित हो जाता है.

अटलजी कहते हैं, ‘रामचरितमानस’ तो मेरी प्रेरणा का स्रोत रहा है. जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है. काव्य लेखन के बारे में उनका कहना है, साहित्य के प्रति रुचि मुझे उत्तराधिकार के रूप में मिली है. परिवार का वातावरण साहित्यिक था. मेरे बाबा पंडित श्यामलाल वाजपेयी बटेश्वर में रहते थे. उन्हें संस्कृत और हिन्दी की कविताओं में बहुत रुचि थी. यद्यपि वे कवि नहीं थे, परंतु काव्य प्रेमी थे. उन्हें दोनों ही भाषाओं की बहुत सी कविताएं कंठस्थ थीं. वे अकसर बोलचाल में छंदों को उदधृत करते थे. मेरे पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत के प्रसिद्ध कवि थे. वे ब्रज और खड़ी बोली में काव्य लेखन करते थे. उनकी कविता ’ईश्वर प्रार्थना’ विद्यालयों में प्रात: सामूहिक रूप से गाई जाती थी. यह सब देख-सुन कर मन को अति प्रसन्नता मिलती थी.  पिता जी की देखा-देखी मैं भी तुकबंदी करने लगा. फिर कवि सम्मेलनों में जाने लगा. ग्वालियर की हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठियों में कविताएं पढ़ने लगा. लोगों द्वारा प्रशंसा मिली प्रशंसा ने उत्साह बढ़ाया.

अटलजी कहते हैं, सच्चाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकतीं. ऐसी राजनीति, जिसमें प्राय: प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकांत साधना के लिए समय और वातावरन ही कहां मिल पाता है. मैंने जो थोड़ी-सी कविताएं लिखी हैं, वे परिस्थिति-सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं.
अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किंतु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरंतर प्रयास करता रहा हूं. कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़कर कहीं एकांत में पढ़ने, लिखने और चिंतन करने में अपने को खो दूं, किंतु ऐसा नहीं कर पाता.  मैं यह भी जानता हूं कि मेरे पाठक मेरी कविता के प्रेमी इसलिए हैं कि वे इस बात से खुश हैं कि मैं राजनीति के रेगिस्तान में रहते हुए भी, अपने हृदय में छोटी-सी स्नेह-सलिला बहाए रखता हूं.
अटलजी राजनीति में रहते हुए भी साहित्य से जुड़े रहे.  वे कहते हैं कि राजनीति और साहित्य दोनों ही जीवन के अंग हैं. वास्तव में ऐसा होता है कि जो लोग राजनीति से जुड़े हैं, वे साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाते. इसी तरह साहित्य से जुड़े लोग राजनीति के लिए समय नहीं दे पाते. किंतु ऐसे लोग भी हैं, जो दोनों से जुड़े होते हैं और दोनों के लिए ही समय देते हैं. परंतु आज के राजनेता साहित्य से दूर हैं, इसी कारण उनमें मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है. कवि संवेदनशील होता है. तानाशाहों में क्रूरता इसीलिए आ जाती है, क्योंकि वे संवेदनहीन होते हैं. एक कवि के हृदय में दया, क्षमा, करुणा और प्रेम होता है, इसलिए वह खून की होली नहीं खेल सकता. साहित्यकार को पहले अपने प्रति सच्चा होना चाहिए. इसके पश्चात उसे समाज के प्रति अपने दायित्य का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए.  वह भले ही वर्तमान को लेकर चले, किंतु उसे आने वाले कल की भी चिंता करनी चाहिए. अतीत में जो श्रेष्ठ है, उससे वह प्रेरणा ले, परंतु यह कभी न बूले कि उसे भविष्य का सुंदर निर्माण करना है. उसे ऐसे साहित्य की रचना करनी है, जो मानव मात्र के कल्याण की बात करे.

अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी हैं. इसके अलावा उनके लेख, उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिनमें राष्टधर्म, पांचजन्य, धर्मयुग, नई कमल ज्योति, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कांदिम्बनी और नवनीत आदि सम्मिलित हैं. पत्रकार के रूप में अपना जीवन आरंभ करने वाले अटलजी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए 25 जनवरी, 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 28 सितंबर 1992 को उन्हें ’हिंदी गौरव’ सए सम्मानित किया. इस अवसर पर उन्हें 51 हजार रुपये की धनराशि प्रदान की गई, परंतु उन्होंने उसी समय इसे सम्मान सहित संस्थान को अपनी ओर से भेंट कर दिया. अगले वर्ष 20 अप्रैल 1993  को कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि प्रदान की. उनके सेवाभावी और स्वार्थ त्यागी जीवन के लिए उन्हें 1 अगस्त 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार से सम्मानित किया गया.  इसके पश्चात 17 अगस्त 1994 को संसद ने उन्हें श्रेष्ठ सासंद चुना गया तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया. इसके बाद 27 मार्च, 2015 भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इतने महत्वपूर्ण सम्मान पाने वाली अटलजी कहते हैं, मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं. मुझे अपनी कमियों का अहसास है. निर्णायकों ने अवश्य ही मेरी न्यूनताओं को नजरांदाज करके मुझे निर्वाचित किया है. सदभाव में अभाव दिखाई नहीं देता है. यह देश बड़ा है अदभुत है, बड़ा अनूठा है. किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है.



अटलजी ने जीवन में अनेक कष्ट भी झेले, किंतु उन्होंने कभी हार नहीं मानी. हर समस्या को उन्होंने एक चुनौती के रूप में लेकर साहस से उसका सामना किया.

उदारमना अटल बिहारी वाजपेयी

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस 25 दिसंबर पर विशेष
डॉ. सौरभ मालवीय
भारतीय जहां जाता है, वहां लक्ष्मी की साधना में लग जाता है. मगर इस देश में उगते ही ऐसा लगता है कि उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है. हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं. दिल्ली इसका दिल है. विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है. पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं. कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है. पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं. चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं, मलयानिल चंवर घुलता है. यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है. यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है. इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है. हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए. यह कथन कवि हृदय राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी का है. वह कहते हैं, अमावस के अभेद्य अंधकार का अंतःकरण पूर्णिमा की उज्ज्वलता का स्मरण कर थर्रा उठता है. निराशा की अमावस की गहन निशा के अंधकार में हम अपना मस्तक आत्म-गौरव के साथ तनिक ऊंचा उठाकर देखें.

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर के शिंके का बाड़ा मुहल्ले में हुआ था. उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं. अटलजी अपने माता-पिता की सातवीं संतान थे. उनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं. अटलजी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है. अटलजी बचपन से ही अंतर्मुखी और प्रतिभा संपन्न थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में हुई. यहां से उन्होंने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था. लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा. उन्हें विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाखिल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की. इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता. उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की. कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था. आरंभ में वह छात्र संगठन से जुड़े. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता नारायण राव तरटे ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में कार्य किया. कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. वह 1943 में कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने. ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वह कानपुर चले गए. यहां उन्होंने डीएवी महाविद्यालय में प्रवेश लिया. उन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की. इसके बाद वह पीएचडी करने के लिए लखनऊ चले गए. पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य भी करने लगे. परंतु वह पीएचडी करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण उन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था. उस समय राष्ट्रधर्म नामक समाचार-पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संपादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था. तब अटलजी इसके सह सम्पादक के रूप में कार्य करने लगे. पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार-पत्र का संपादकीय स्वयं लिखते थे और शेष कार्य अटलजी एवं उनके सहायक करते थे. राष्ट्रधर्म समाचार-पत्र का प्रसार बहुत बढ़ गया. ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबंध किया गया, जिसका नाम भारत प्रेस रखा गया था.

कुछ समय के पश्चात भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा. इस समाचार-पत्र का संपादन पूर्ण रूप से अटलजी ही करते थे. 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया था. कुछ समय के पश्चात 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई. इसके बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया. इसके साथ ही भारत प्रेस को बंद कर दिया गया, क्योंकि भारत प्रेस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी. भारत प्रेस के बंद होने के पश्चात अटलजी इलाहाबाद चले गए. यहां उन्होंने क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया.  परंतु जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा, वह पुन: लखनऊ आ गए और उनके संपादन में स्वदेश नामक दैनिक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा.  परंतु हानि के कारण स्वदेश को बंद कर दिया गया.  इसलिए वह दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र वीर अर्जुन में कार्य करने लगे. यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था. वीर अर्जुन का संपादन करते हुए उन्होंने कविताएं लिखना भी जारी रखा.

अटलजी को जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है. जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लग गया था, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनसंघ का गठन किया था. यह राजनीतिक विचारधारा वाला दल था. वास्तव में इसका जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके अध्यक्ष थे. अटलजी भी उस समय से ही इस दल से जुड़ गए. वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे. भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम 1952 के लोकसभा चुनाव में भाग लिया. तब उसका चुनाव चिह्न दीपक था. इस चुनाव में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष सफ़लता प्राप्त नहीं हुई, परंतु इसका कार्य जारी रहा. उस समय भी कश्मीर का मामला अत्यंत संवेदनशील था. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटलजी के साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया. परंतु सरकार ने इसे सांप्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉ. मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया, जहां 23 जून, 1953 को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई.  अब भारतीय जनसंघ का काम अटलजी प्रमुख रूप से देखने लगे. 1957 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई. अटलजी प्रथम बार बलरामपुर सीट से विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे. वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजयी हुए थे. उन्होंने तीन स्थानों से नामांकन पत्र भरा था. बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और मथुरा से भी नामांकन पत्र भरे थे. परंतु वह शेष दो स्थानों पर हार गए. मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी. उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत मत प्राप्त करे, अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी. भारतीय जनसंघ को छह प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे. इस चुनाव में हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद जैसे दलों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत मत नहीं मिले थे. उन्होंने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी. 1962 के लोकसभा चुनाव में वह पुन: बलरामपुर क्षेत्र से भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी बने, परंतु उनकी इस बार पराजय हुई. यह सुखद रहा कि 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और उसके 14 प्रतिनिधि संसद पहुंचे. इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ. ऐसे में अटलजी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा में भेजे गए. फिर 1967 के लोकसभा चुनाव में अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने और उन्होंने विजय प्राप्त की. उन्होंने 1972 का लोकसभा चुनाव अपने गृहनगर अर्थात ग्वालियर से लड़ा था. उन्होंने बलरामपुर संसदीय चुनाव का परित्याग कर दिया था. उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, जिन्होंने जून, 1975 में आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया था. इनमें अटलजी भी शामिल थे. उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया. जेल में रहते हुए ही उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया. लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ. फिर 1977 में लोकसभा चुनाव हुए, परंतु आपातकाल के कारण श्रीमती इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं. विपक्ष द्वारा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटलजी विदेश मंत्री बनाए गए. उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं और भारत का पक्ष रखा.  4 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिंदी मंस संबोधन दिया. इससे पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था. जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् 1980 में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं. इसके बाद 1996 तक अटलजी विपक्ष में रहे. 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न कमल का फूल रखा गया. उस समय अटलजी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए, परंतु अटलजी ग्वालियर की अपनी सीट से पराजित हो गए. मगर 1986 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया.

13 मार्च, 1991 को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में फिर लोकसभा चुनाव हुए. फिर 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव हुए.  इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की. 31 मई, 1996 को उन्हें अंतिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, परंतु विपक्ष संगठित नहीं था. 28 मई को उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. इस कारण अटलजी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे. इसके बाद 19 मार्च 1998 को उन्होंने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. 1999 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ ली. इस प्रकार वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और 22 मई 2004 तक अपना कार्यकाल पूरा किया.

अटल बिहारी वाजपेयी दलगत राजनीति से दूर रहे. उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी खूब सराहा. वर्ष 1971 की बात है. उस समय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे और श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. जब भारत को पाकिस्तान पर 1971 की लड़ाई में विजय प्राप्त हुई थी. पाक के 93 हजार सैनिकों ने भारत की सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था, तब अटलजी ने श्रीमती इंदिरा गांधी की तुलना देवी दुर्गा से की थी. इतना ही नहीं, उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए अतिआवश्यक बताते हुए परमाणु कार्यक्रम की आधारशिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को धन्यवाद दिया. उन्होंने 11 मई, 1998 को पोखरन में पांच परमाणु परीक्षण कराए. उनका कहना है कि दुर्गा समाज की संघटित शक्ति की प्रतीक हैं. व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थ-साधना को एक ओर रखकर हमें राष्ट्र की आकांक्षा प्रदीप्त करनी होगी. दलगत स्वार्थों की सीमा छोड्कर विशाल राष्ट्र की हित-चिंता में अपना जीवन लगाना होगा. हमारी विजिगीषु वृत्ति हमारे अन्दर अनंत गतिमय कर्मचेतना उत्पन्न करे.

पत्रकार के रूप में अपना जीवन आरंभ करने वाले अटलजी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए वर्ष 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. वर्ष 1993 में कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि प्रदान की. उन्हें 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार दिया गया. वर्ष 1994 में श्रेष्ठ सासंद चुना गया तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसी वर्ष 27 मार्च, 2015 भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें कैदी कविराय की कुंडलियां, न्यू डाइमेंशन ऒफ़ एशियन फ़ॊरेन पॊलिसी, मृत्यु या हत्या, जनसंघ और मुसलमान, मेरी इक्यावन कविताएं, मेरी संसदीय यात्रा (चार खंड), संकल्प-काल एवं गठबंधन की राजनीति सम्मिलित हैं.

अटलजी को इस बात का बहुत हर्ष है कि उनका जन्म 25 दिसंबर को हुआ. वह कहते हैं- 25 दिसंबर! पता नहीं कि उस दिन मेरा जन्म क्यों हुआ?  बाद में, बड़ा होने पर मुझे यह बताया गया कि 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्मदिन है, इसलिए बड़े दिन के रूप में मनाया जाता है. मुझे यह भी बताया गया कि जब मैं पैदा हुआ, तब पड़ोस के गिरजाघर में ईसा मसीह के जन्मदिन का त्योहार मनाया जा रहा था. कैरोल गाए जा रहे थे. उल्लास का वातावरण था. बच्चों में मिठाई बांटी जा रही थी. बाद में मुझे यह भी पता चला कि बड़ा धर्म पंडित मदन मोहन मालवीय का भी जन्मदिन है. मुझे जीवन भर इस बात का अभिमान रहा कि मेरा जन्म ऐसे महापुरुषों के जन्म के दिन ही हुआ.

अटलजी ने कभी हार नहीं मानी. अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा
रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं


गीत नया गाता हूं.

Monday, November 13, 2017

अभिनव प्रयोग

 

40 वर्ष के कम आयु केे लेखकों की रचनाओं को और उनकी प्रतिभा को एक नए क्षितिज देने का एक अवसर "राष्ट्रीय पुस्तक न्यास - नई दिल्ली" द्वारा 'नवलेखन' के माध्यम से सुन्दर प्रयास है। कुल 25 युवा लेखकों की हिंदी कहानियों का यह संग्रह पठनीय है। इस अंक के सम्पादक प्रो.अरुण कुमार भगत है। शुभकामनाएं

Friday, November 10, 2017

अन्त्योदय

 

एकात्म मानववाद जिसका लक्ष्य अन्त्योदय,जिसके केंद्र बिन्दु में व्यक्ति,परिवार,समाज,राष्ट्र ,व्यष्टि और समष्टि के कल्याण की भावना है इस विचार के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार दर्शन पर आधारित पुस्तक “अन्त्योदय” जिसके लेखक राजकुमार है और प्रकाशक “सुमंगलम’ कैसरबाग ,लखनऊ है निश्चय है पठनीय एवं संग्रहणीय है | लेखक ने इस पुस्तक में सुचिता और समरसता को रेखांकित करते हुए समाज के प्रत्येक वर्ग को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मता के सूत्र को तार्किक रूप से प्रस्तुत किया है साथ ही समाज के सामने मूल-भूत चुनौतियां का समाधान भी सुझाया है |
कुल पेज -160
मूल्य- 90 रूपये

Sunday, July 30, 2017

वंदे मातरम का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होगा

डॊ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र गीत वंदे मातरम एक बार भी चर्चा में है. इस बार मद्रास उच्च न्यायालय की वजह से इसके गायन का मुद्दा गरमाया है. मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायधीश एमवी मुरलीधरन ने आदेश दिया है कि राष्ट्रगीत वंदे-मातरम को हर सरकारी/ग़ैर-सरकारी कार्यालयों/संस्थानों/उद्योगों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा. यह गीत मूल रूप से बांग्ला और संस्कृत भाषा में है, इसलिए इसे तमिल और अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के भी आदेश दिए गए हैं. उल्लेखनीय है कि एक ओर मुस्लिम समुदाय से ही वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक मुस्लिम लड़की ने ही वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद कर सराहनीय कार्य किया है.वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद करने वाली फ़िरदौस ख़ान शाइरा, लेखिका और पत्रकार हैं. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने उर्दू में अनुवाद किया. उर्दू में ’वंदे मातरम’ का अर्थ है ’मां तुझे सलाम’. ऐसे में किसी को भी अपनी मां को सलाम करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. आशा है कि आगे भी देश-विदेश की अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद होगा.

उल्लेखनीय यह भी है कि जिस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया गया है, उसमें वंदे मातरम को गाने या न गाने से संबंधित किसी तरह की अपील नहीं की गई थी. यह गीत शिक्षा संस्थाओं में अनिवार्य रूप से गाया जाए या नहीं, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में आगामी 25 अगस्त को सुनवाई होनी है.

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. फिर अपनी मातृभूमि से प्रेम क्यों नहीं ? अपनी मातृभूमि की अस्मिता से संबद्ध प्रतीक चिन्हों से घृणा क्यों? प्रश्न अनेक हैं, परंतु उत्तर कोई नहीं. प्रश्न है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का. क्यों कुछ लोग इसका इतना विरोध करते हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जिस भूमि पर रहते हैं, जिस राष्ट्र में निवास करते हैं, यह उसी राष्ट्र का गीत है, उस राष्ट्र की महिमा का गीत है?

वंदे मातरम को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होते रहे हैं, परंतु इसकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती चली गई.  2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है. इस सर्वेक्षण विश्व के लगभग सात हज़ार गीतों को चुना गया था. बीबीसी के अनुसार 155 देशों और द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था.  उल्लेखनीय है कि विगत दिनों कर्नाटक विधानसभा के इतिहास में पहली बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही राष्ट्रगीत वंदे मातरम के साथ शुरू हुई. अधिकारियों के अनुसार कई विधानसभा सदस्यों के सुझावों के बाद यह निर्णय लिया गया था. विधानसभा अध्यक्ष कागोदू थिमप्पा ने कहा था कि लोकसभा और राज्यसभा में वंदे मातरम गाया जाता है और सदस्य बसवराज रायारेड्डी ने इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव दिया था, जिसे आम-सहमति से स्वीकार कर लिया गया.

वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. वंदे मातरम बहुत लंबी रचना है, जिसमें मां दुर्गा की शक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है. उल्लेखनीय है कि 1870 के दौरान ब्रिटिश शासन ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था. बंकिमचंद्र चटर्जी को इससे बहुत दुख पहुंचा. उस समय वह एक सरकारी अधिकारी थे. उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में वंदे मातरम की रचना की. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया. 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया. वास्तव में बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को सम्मिलित कर लिया. उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया, अर्थात बाद में जोड़े गए भाग में ही दशप्रहरणधारिणी, कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं. बाद में इस गीत को लेकर विवाद पैदा हो गया.

वंदे मातरम स्वतंत्रता संग्राम में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था. इसके बावजूद इसे राष्ट्रगान के रूप में नहीं चुना गया. वंदे मातरम के स्थान पर वर्ष 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जॊर्ज पंचम के सम्मान में रबींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे और गाये गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि कुछ मुसलमानों को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति थी. उनका कहना था कि वंदे मातरम में मूर्ति पूजा का उल्लेख है, इसलिए इसे गाना उनके धर्म के विरुद्ध है. इसके अतिरिक्त यह गीत जिस आनंद मठ से लिया गया है, वह मुसलमानों के विरुद्ध लिखा गया है. इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है.  1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठे. कुछ मुसलमानों की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने इस पर विचार-विमर्श किया. पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव भी शामिल थे. समिति का मानना था कि इस गीत के प्रथम दो पदों में मातृभूमि की प्रशंसा की गई है, जबकि बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का उल्लेख किया गया है. समिति ने 28 अक्टूबर, 1937 को कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस गीत के प्रारंभिक दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा. इस समिति का मार्गदर्शन रबींद्रनाथ ठाकुर ने किया था. मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारंभिक दो पदों का गीत वंदे मातरम राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ. 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ वंदे मातरम के साथ हुआ. फिर 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध वंदे मातरम के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था. डॊ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी, 1950 को  वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया.  वंदे मातरम को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर यह  गीत गाया जाता है. आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों का प्रसारण वंदे मातरम से ही होता है. वर्ष 1882 में प्रकाशित इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितंबर, 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया था. इसलिए वर्ष 2005 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर साल भर समारोह का आयोजन किया गया. 7 सितंबर, 2006 को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया था.  इसके बाद देशभर में वंदे मातरम का विरोध प्रारंभ हो गया. परिणामस्वरूप तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को संसद में यह वक्तव्य देना पड़ा कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है. यह व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह वंदे मातरम गाये अथवा न गाये. इस तरह कुछ दिन के लिए यह मामला थमा अवश्य, परंतु वंदे मातरम के गायन को लेकर उठा विवाद अब तक समाप्त नहीं हुआ है. जब भी वंदे मातरम के गायन की बात आती है, तभी इसके विरोध में स्वर सुनाई देने लगते हैं. इस गीत के पहले दो पदों में कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है. इसके बाद भी कुछ मुसलमानों का कहना है कि इस गीत में दुर्गा की वंदना की गई है, जबकि इस्लाम में किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने की मनाही है. इसके अतिरिक्त यह गीत ऐसे उपन्यास से लिया गया है, जो मुस्लिम विरोधी है. गीत के पहले दो पदों में मातृभूमि की सुंदरता का वर्णन किया गया है. इसके बाद के दो पदों में मां दुर्गा की अराधना है, लेकिन इसे कोई महत्व नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों को वंदे मातरम के गायन पर आपत्ति है या सब हिन्दू इसे गाने पर विशेष बल देते हैं. कुछ वर्ष पूर्व विख्यात संगीतकार एआर रहमान ने वंदे मातरम को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ. उल्लेखनीय बात यह भी है कि ईसाई समुदाय के लोग भी मूर्ति-पूजा नहीं करते, इसके बावजूद उन्होंने कभी वंदे मातरम के गायन का विरोध नहीं किया.  

Sunday, July 2, 2017

मेरे आँखों के तारें

 

प्रस्थान
मेरे आँखों के तारें
365 दिन में सिर्फ 30 दिन (जून की छुट्टी)इनके लिए होता है वो भी ईमानदारी से नही दे पाता हूँ। बालपन को समझना और उन पर मोहित हो जाना, इसके लिए जितना भी समय दिया जाए कम है, सृष्टि छोटी थी तब भोपाल में था। अब श्रीन्द्र की शरारत शुरू हुई है तो नोएडा। आज अपनी कर्मस्थली के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ। श्रीन्द्र पूछ रहे क्यों जा रहे है पापा? सबके पापा साथ रहते हैं, मेरा भी मन हो रहा है कि किसी ज्योतिषी मित्र से पूछूं कि श्रीन्द्र के प्रश्न का उत्तर मेरी कुंडली में है क्या?

Saturday, June 24, 2017

अतीत के पन्ने

 

वर्ष 2002 में यूपी विधानसभा का चुनाव था , मैं भोपाल में पत्रकारिता का छात्र था।  यूपी चुनाव में मीडिया प्रभारी के नाते प्रभात झा जी डेरा डाले हुए थे मुझे उनकी टीम का हिस्सा बन कर 2 महीने लखनऊ बीजेपी मुख्यालय में कार्यं करने का एक अवसर मिला। वैसे तो मीडिया और राजनीति दोनों में गहरा रिस्ता होता है, पत्रकार को खबर चाहिए और नेता को अपने हिसाब से खबर छपे यह चाह रहती है इस नाते राजनीतिक दलों का मीडिया प्रबंधन भी बहुत महत्वपूर्ण होता। नियमित प्रेस के लिए विषय तय करना साथ ही प्रेस नोट भी तैयार करना किसकी प्रेस होगी क्या विषय रहेगा एक साथ पुरे प्रदेश में किन किन शहरों में प्रेस वार्ता आदि प्रबंधन का हिस्सा होता। 
उन दो महीनों में सुबह से शाम और देर रात कब होती यह पता ही नहीं चलता था।  मीडिया सेल के अलावा कई मोर्चों पर पार्टियां चुनाव में कार्य करती उसी में एक सबसे महत्वपूर्ण और बड़ी जिम्मेदारी का कार्य चुनाव प्रबंधन इस व्यवस्था को संचालित करने वाले Jps Rathore जी और Mahendra Singh जी के लिए तो मानों घर मे शादी का आयोजन हो चौबीसों घण्टे जीजान से लगे रहना होता था , उसी क्रम में  हर दिन खूब मिलना जुलना होता रहा लखनऊ शहर मेरे लिए नया था jps राठौर जी अक्सर शाम को भोपाल की युवा टीम को हजरतगंज ले जाते थे और मोती महल की फलूदा (कुल्फी) खिलाते।राठौर जी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मेधावी छात्र रहे साथ ही छात्र संघ के अध्यक्ष इस नाते नौजवानों से दोस्ती इनके स्वभाव का हिस्सा। उस वक्त उनसे मैं पूछा कि आप राजनीति में क्यों आये बहुत ही खूबसूरत उत्तर "लोकतंत्र की खूबसूरती है भारत की स्वस्थ राजनीति"। 
राठौर जी वर्तमान में प्रदेश उपाध्यक्ष है। शुभकामनाएं!

Friday, June 23, 2017

सार्थक दिन

 




श्री लालजी टंडन उत्तर प्रदेश की राजनीति में सर्वमान्य नेता के रूप में जाने जाते है। प्रदेश में पूर्व मंत्री रहे है एक बार लोकसभा सदस्य भी रहे,अटल जी के प्रिय है। टंडन जी स्वध्यायी है बौद्धिक चर्चा में गहरी रुचि है। लखनऊ के लोग प्यार से इनको बाबूजी पुकारते है।

 



सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आज का भारत
लखनऊ में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्टी 
कमल ज्योति पत्रिका द्वारा आयोजित
बधाई के पात्र है आयोजक श्री साधक राजकुमार जी, श्री अरुण कान्त जी, श्री शैलेन्द्र पांडे शेष सभी मित्र।

Wednesday, June 21, 2017

सरोकार की दुनिया

 

यहां प्रेम, स्नेह, मार्गदर्शन एवं जीवन की दिशा सहज ही मिलती है। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा जैसे ही खत्म हुई उसके बाद आजमगढ़ एक वर्ग में गया वर्ग के अंतिम दिन प्रान्त प्रचारक जी मुझे बुलाये और पूछे कि स्नातक के बाद आगे की क्या योजना है ? M.A हिंदी से करने की बात मैंने कही फिर क्या वहां के विभाग प्रचारक श्री मिथिलेश नारायण जी से पूछे कि शिवली कालेज में M.A हिंदी से है. उन्होंने बताया है।

मेरे लिए निर्णय लेना कठिन आजमगढ़ में रहना होगा पढ़ाई के साथ संगठन कार्य, श्री मिथिलेश जी के स्नेह में कुछ दिन वहा रुका परंतु नियति द्वारा सब कुछ पहले से तय पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए भोपाल आगया। पूर्णकालिक संगठन कार्य मेरे मुकद्दर में नही था।
सुखद यह है कि सामाजिक ऋषियों का स्नेह और सानिध्य सदा मिलता है। आदरणीय मिथिलेश जी वर्तमान में क्षेत्र बौद्धिक प्रमुख है केंद्र लखनऊ है।

Monday, June 19, 2017

वात्सल्य स्नेह

 



धन्यवाद-इलाहाबाद
भारतीय समाज में ऐसी मान्यता है कि माँ की छाया मौसी को और पिता का स्वरूप मामा का होता है।
मामा अवधेश मालवीय औऱ मधुलिका मालवीय मामी का वात्सल्य स्नेह से अभिभूत हूँ। इस प्रवास में। परंपराएं और मान्यताएं बनी रहें इसी कामना के साथ नमस्कार।

Saturday, June 17, 2017

जन्मदिन - सृष्टि मालवीय

 




शहर इलाहाबाद
परिवार - श्री सुमंगलम
अनाथालय नहीं अपितु मातृप्रेम का एक मंदिर है। जहाँ बच्चों को दया भाव से नही वरन मातृबोध,स्नेह व् ममता से पाले जाने का संकल्प है। सृष्टि आज 8 साल पूर्ण की आप सभी का आशीर्वाद चाहिए । अगले वर्ष 17 जून को किसी अन्य नये प्रयोग और संकल्प के साथ होती है मुलाकात । इस वर्ष मात्र एक छोटी सी जिम्मेदारी एक बालक को एक वर्ष की शिक्षा हेतु। नमस्कार

एक बच्चे की शिक्षा हेतु गोद लेने का संकल्प

 




सृष्टि के जन्मदिन इलाहाबाद (नैनी) यूपी
17 जून को इस बार कहाँ जाऊ कैसे जन्मदिन मनाया जाए इन तमाम विचारों के बाद यह निर्णय लिया की शिक्षा और संस्कार के लिए कार्य कर रहे किसी संस्था के बीच जाऊंगा।
मेरी दृष्टि पड़ी  "श्रीसुमंगलम" इलाहाबाद में गंगा के तट पर यह प्रकल्प चलता है यहां कुल 11बच्चे है यहाँ आने से पहले यह सभी बच्चे मछली पकड़ते थ या बकरी चराते थे ,स्कुल नही जाते थे। अब पढ़ते है प्रकल्प में ही इनका निवास है सुबह उठते है प्रार्थना करते ,नित्यक्रिया के बाद योग शारीरिक ,जलपान और स्कूल फिर भोजन ,विश्राम ,संध्या मंत्र,सामूहिक खेल,अध्ययन ,भोजन और रात्रिविश्राम इनकी दिनचर्या है। 
सृष्टि को आप सभी का आशीर्वाद यही प्रार्थना है।
शेष विस्तार से अगले पोस्ट में

बचपन

  









शांत जल
शांत मन
श्वेत वस्त्र
यही मेरा जीवन
श्रीन्द्र मालवीय

Thursday, June 15, 2017

बौद्धिक सानिध्य

 



बौद्धिक सानिध्य 
वरिष्ठ स्तम्भकार,विचारक,दार्शनिक,प्रखर वक्ता एवं उत्तर-प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष आदरणीय हृदयनारायण दीक्षित जी का सानिध्य।
लखनऊ

Monday, June 12, 2017

गर्दिश

 





लेखक श्री विकास सिंह की पहली कृति का लोकार्पण।
भारतीयता की प्रतिष्ठा,पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना,दहेज़ प्रथा,छुआछूत ,सामाजिक असमानता,धार्मिक भेदभाव पर लेखक ने प्रहार किया है। इस उपन्यास के मुख्य पात्र "राजवंश" एक किसान है। किसान को केंद्र में रखकर इस कृति की रचना की गई है। खास बात यह है कि लेखक  21वर्ष की आयु में यह उपलब्धि अर्जित किया है। विकास जी को अनंत शुभकामनाएं।

Saturday, June 10, 2017

युवा संवाद

  






युवा संवाद
"कोचिंग राजधानी"
कोटा की खास पहचान यहां के कोचिंग संस्थान है।

Sunday, June 4, 2017

राष्ट्रवाद और ग्राम स्वराज

 




राष्ट्रवाद और ग्राम स्वराज
प्रेस क्लब , गोरखपुर
लोकमीडिया मंच

Friday, June 2, 2017

गांव में बचपन
















 श्रीन्द्र मालवीय 


भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है