Thursday, February 18, 2021

भारतीय संस्कृति की विवेचना एवं उपादेयता : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

 

भारतीय संस्कृति की विवेचना एवं उपादेयता

डॉ. सौरभ मालवीय

सहायक प्राध्यापक

माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल

 

सारांश

मनुष्य के सोचने के ढंग मूल्यों व्यवहारों तथा उनके साहित्य, धर्म, कला में जो अन्तर दिखाई पड़ता है वह संस्कृति के कारण है। भारतीयों के लिए आज भी आत्मिक मूल्य सर्वोपरि है, व्यक्तित्व के विकास में जिन कारकों का योगदान होता है, उनमें संस्कृति प्रधान है। मनोवैज्ञानिक रूप बेनीडिक्ट पैटन्र्स ऑफ कल्चर में लिखते है कि संस्कृति का प्रभाव बचपन से ही पड़ने लगता है जिन परिस्थितियों में वह जन्म के क्षण पैदा होता है, इसका प्रभाव उसके व्यवहार एवं स्वभाव में होता है। जिस समय वह बोलता है, अपनी संस्कृति का छोटा-सा प्राणी है। जिस समय से वह बढ़ता है एवं कार्यों में हिस्सा लेता है सांस्कृतिक परिवेश उसके स्वभाव को गढ़ते है। आदतों, मान्यताओं, विश्वासों, स्वभावों में संस्कृति की अमिट छाप दिखाई पड़ती है।

भूमिका

भारतीय संस्कृति पर वे पुनः कहते हैं कि दर्शन, भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, कला आदि संस्कृति के सभी अंगों पर वेदादिशशास्त्रमूलक सिद्धांतों की ही छाप है। बाहरी प्रभाव उससे पृथक दिख पडत़ा है। संसार के प्रायः सभी देशों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट दिखायी देते हैं। दर्शन शास्त्र तो व्यापकरूपेण फैला हुआ है। इतना तो सिद्ध है कि इन सबका सम्बन्ध हिन्दू संस्कृति से है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से यही मानना पड़ता है कि हिन्दू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है।

विवेचन एवं व्याख्या

संस्कृति शब्द संस्कार से बना है। संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य पुरुष भगवान् पाणिनि के अनुसार सम् उपसर्गपूर्वक कृ धातु से भूषण अर्थ में सुट् आगमपूर्वक क्तिन प्रत्यय होने से संस्कृति शब्द बनता है।

सम्परिभ्यांकरोतौभूषणे

            (6.1.137 पाणिनीय सूत्रे)

इस प्रकार लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदयके उपयुक्त देहेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा अहंकरादि की भूषणयुक्त सम्यक चेष्टाएं संस्कृति कहलाती हैं।

धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज

(संस्कार, संस्कृति और धर्म पृष्ठ 69)

न्याय दर्शन के अनुसार वेग, भावना और स्थितिस्थापक यह त्रिविध संस्कार हैं। इसमें भी अनुभव जन्य स्मृतिका हेतु भावना है।

ऋषियों ने स्वाश्रय की प्रागुद्भूत अवस्था के समान अवस्थान्तरोत्पादक अतीन्द्रिय धर्म को ही संस्कार माना है।

स्वाश्रयस्य प्रागुद् भूतावस्थासमानावस्थान्तरोत्पादककोउतीन्द्रिययो धर्मः संस्कारः।

योग के अनुसार न केवल मानस संकल्प, विचारादि से ही अपितु देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की सभी हलचलों, चेष्टाओं, व्यापारों से संस्कार उत्पन्न होते हैं। विख्यात विचारक प्रो. जाली महाशय कहते हैं:

Sanskars are supposed to purity the person of human being in his life and for the life after death.

(Hindu law and custom)

 

सम् की आवृत्ति करके सम्यक संस्कारको ही संस्कृति कहा जाता है। अर्थात् संस्कारों की उपयुक्त कृतियों को ही संस्कृति कहते हैं। परंतु जैसे वेदोक्त कर्म और कर्मजन्य अदृष्ट दोनों को ही धर्म कहते हैं। वैसे ही संस्कार और संस्कारोपयुक्त कृतियां दोनों ही संस्कृति शब्द से व्यवहृत हो सकती हैं। इस प्रकार सांसारिक निम्न स्तर की सीमाओं में आबद्ध आत्मा के उत्थानानुकूल सम्यक् भूषणभूत कृतियां ही संस्कृति हैं।

गहरे अर्थों में सभ्यता और संस्कृति एक ही बात मानी जाती है। संस्कृति का परिणाम सभ्यता है। जिस प्रकार सम्यक् कृति संस्कृति है उसी प्रकार सभा में साधुता का स्वभाव सभ्यता है। आचार-विचार, रहन-सहन, बोलचाल, चाल-चलन आदि की साधुता का निर्णय शास्त्रों से ही होता है। वेदादि शास्त्रों द्वारा निर्णीत सम्यक् एवं साधु चेष्टा ही सभ्यता है और वही संस्कृति भी है।

हम सबके भीतर जो दिव्य निवासी है उनके सायुज्य का नाम या सायुज्य का सत्प्रयास भी संस्कार है।

सर्वभूताधिवासः

संस्कार का अन्य नाम है सचेतन के आध्यात्मिक विकास का विधान। इसी के द्वारा जीवन का सत्-चित् आत्मा के दिव्य जीवन में रूपांतरित होता है।

यत् सानोः सानुभारुहद् भूर्यस्पष्ट कत्र्वम्। तदिन्द्रो अर्थ चेतति यूथेन वृष्णिरेंजति

(ऋग्वेद 1.10.2)

आचार्य चाणक्य के अनुसार संस्कारित व्यक्ति परस्त्री को मातृवत् परद्रव्य को मिट्टी की भांति एवं सभी प्राणियों में आत्मदर्शी होता है।

मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।

                                                                                                                        (चाणक्य नीति 12.14)

स्मृतिकार भगवान् मनु ने भारतीय संस्कृति की महत्ता को रेखांकित करते हुए लिखा है कि-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशदग्रजन्मनः।

स्व स्व चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।

                                                                                                            (मनुस्मृति 2.20)

अर्थात् इस पवित्र भूमि में पैदा हुए (अग्रजन्मा) महापुरुषों से ही धरती के सभी लोगों को अपने-अपने सद्वृतो की शिक्षा लेनी चाहिए।

अथर्ववेद मधुर वचन को भी सुसंस्कार कहते हैं।

                                                                                    -मधुमती वाचमुदेयम् (अथर्ववेद 16.2.2)

सुसंस्कारों से शील की व्युत्पत्ति होती है और शील ही सबका भूषण है।

                                                                                    -शील सर्वस्य भूषणम् (गरुण पुराण 1.113.13)

धैर्य, क्षमा, दान, सहिष्णुता, अस्तेय, अतिथि सेवा ये सब आत्मनियंत्रित संस्कार हैं, इसे ही शील कहा जाता है। मनुस्मृति में वृद्ध सेवा और प्रणाम अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में वर्णित हैं।

अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।

                                                                                                                        (मनुस्मृति 2.121)

पूर्वाम्नाय पुरीपीठाधिपति  जगद्गुरु श्री निश्चलानंद जी सरस्वती लिखते हैं कि-

सदोष और विषम शरीर तथा संसार से मन को उपरतकर उसे निर्दोष एवं समब्रह्म में समाहितकर सर्गजय (पुनर्भवपर विजय) आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से संस्कारों का प्रयोजन है। बाह्याभ्यन्तर पदार्थोंक अभ्युदय और निःश्रेयस के युक्त बनाना संस्कारों के द्वारा सम्भव है। पार्थिव, वारुण, तैजस् और वायव्य बाह्य वस्तुएं दृश्य, भौतिक, सावयव तथा परिच्छिन्न होने से संस्कार्य हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर दृश्य और परिच्छिन्न होने से संस्कार योग्य है। जो कुछ सदोष और विषम है, वह संस्कार्य है। ब्रह्मात्मत्व विभु, निर्दोष और सम होने से असंस्कार्य है।                                  

                                                                                                                        (संस्कारतत्व विमर्श)

मूलाम्नाय कांचीकामकोटि के प्रमुख जगद्गुरु स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज के अनुसार-

तदर्थमेव सनातन धर्म उत्पादिता चित्तशुद्धिहेतुकाः क्रियाः संस्कारनाम्ना व्यवहियन्ते।

अर्थात् सनातन धर्म में चित्त शुद्धि के निमित्त जो क्रियाएं की जाती हैं उसे संस्कार कहते हैं।

आचार्य श्री कृपाशंकर जी रामायणी भगवद्भक्ति के संस्कार  में लिखते हैं कि-

यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।

अर्थात् प्रत्येक माता, पिता, आचार्य आदि का पावन कर्तव्य है कि बालकों के मन को सुसंस्कृत करें।

आचार्य शंख के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ब्रह्मलोक में ब्रह्म पद को प्राप्त करता है फिर वह कभी पतित नहीं होता है।

संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुरुत्तरैरनुसंस्कृतः।

नित्यमष्टगुणैर्युक्तो ब्राह्मणों ब्रह्मलौकिकः।।

 भोजवृत्ति के अनुसार-

‘‘द्विविधाश्चित्तस्य वासनारूपाः संस्काराः’’

संस्कार वासना रूपात्मक हुआ करते हैं।

योग सुधाकर में संस्कार पूर्वजन्म परम्परा में संचित चित्त के धर्म हैं-

‘‘संस्काराश्चित्तधर्माः पूर्व जन्म परम्परा संचिताः सन्ति।’’

योगिराज ब्रह्मानंद गिरि के अनुसार ज्योत्सना में वासना को भावना नामक संस्कार कहा जाता है।

‘‘वासना भावनाख्यः संस्कारः’’

 योग सूत्र में बताया गया है कि ऋतम्भरा के संस्कारों से ही समाधि प्रज्ञा होती है।

 

श्री नागोजिभट्ट

ज्ञानरागादिवासनारूप संस्कारः

कहते हैं। संस्कार अधिवासन हैं-

संस्कारोगन्धमाल्याधैर्यः स्यात्तदधिवासनम्।।

                                                                                                                        (अमरकोश 2.134)

संस्कार से ही मनुष्य द्विज बनता है।

नासंस्कारा द्विजः

                                                                                                                        (बौधायनगृह्य सूत्र)

 महर्षि जैमिनी ने गुणों के अभिवर्द्धन को संस्कार कहा है-

‘‘द्रव्य गुण संस्कारेषु बादरिः’’

      (3.1.3)

श्रीशबर ऋषि ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि-

संस्कारो नाम स श्रवति यक्ष्मिन्जाते पदार्था भवति योग्यः कस्याचिदर्थस्य।

                                                (मीमांसा दर्शन)

अर्थात् संस्कार वह होता है जिसके उत्पन्न होने पर पदार्थ किसी प्रयोजन के लिये योग्य होता है।

महर्षि श्रीभट्टपाद के अनुसार-

योग्यता चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते

      (तन्त्रवार्तिक)

संस्कार वे क्रियाएं हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में आया है कि परमात्मा मन से सम्पन्न और सुसंस्कृत करते हैं।

 

‘‘मनसा संस्कारोति ब्रह्मा’’

(छान्दोग्योपनिषद् 4.16.3)

संस्कार के अभाव से जन्म निरर्थक माना जाता है।

‘‘संस्कार रहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्’’

      (आश्वलायन गृह्य सूत्र)

महर्षि पाणिनि ने उसे उत्कर्ष करने वाला बताया है।

‘‘उत्कर्ष साधनं संस्कारः’’

बौद्ध दर्शन में निर्माण, आभूषण, समवाय, प्रकृति, कर्म और स्कन्ध के अर्थ में संस्कारों का प्रयोग किया है। वे इसे अवचक्र की द्वादश शृंख्लाओं में गिनते हैं। वे निम्नोक्त हैं-

अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा मरण।

अद्वैत वेदान्त में आत्मा के ऊपर मिथ्या अध्यास के रूप में संस्कार का प्रयोग हुआ है।

कविकुलगुरु कालिदास इस संस्कार को शिक्षण के रूप में प्रयुक्त करते हैं।

निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ

नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्

(रघुवंश 3.35)

वहीं कालिदास इसे आभूषण के अर्थों में भी प्रयुक्त करते हैं-

‘‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षते’’

      (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 7-23)

संस्कार पुण्य के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है

फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव

      (रघुवंश 1-20)

तर्क संग्रह में इसे प्रभाव स्मृति माना जाता है

संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः

      (तर्क संग्रह)

इसी प्रकार के बहुअर्थीय सन्दर्भों वाले इस पवित्र शब्द को ऋषियों ने एक दिव्य अनिर्वचनीय पुण्य उत्पन्न करने वाला धार्मिक कृत्य कहा है।

आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहित क्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः।

      (वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश)

आचार्य मेधातिथि के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ही आत्मोपासना का अधिकारी हो सकता है।

‘‘एतैस्तु संस्कृत आत्मोपासनास्वधिक्रियते’’

      (मनुस्मृतिका मेधातिथि भाष्य)

वैद्यराज आचार्य चरक कहते हैं कि

संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते

      (चरक संहिता विमान 1-27)

अर्थात दुर्गुणों, दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एवं नये गुणों का आधान करना ही संस्कार कहलाता है।

योगसूत्र में संस्कार के द्वारा पूर्वजन्मों की स्मृतियां प्राप्त करने को कहा गया है। भगवान पतंजलि कहते हैं-

संस्कार साक्षात् करणात् पूर्वजातिज्ञानम्

      (योगसूत्र 3.18)

आचार्य रामानुज संस्कार को योग्यता का मूल मानते हैं।

संस्कारो हि नाम कार्यान्तर योग्यता करणम्।

      (श्री भाष्य 1.1.1)

पूज्यपाद धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने संस्कार और संस्कृति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि-

‘‘संस्कृति का लक्ष्य आत्मा का उत्थान है। जिसके द्वारा इसका मार्ग बताया जाय वही संस्कृति का आधार हो सकता है। यद्यपि सामान्यरूपेण भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों के आधार पर विभिन्न संस्कृतियां निर्णीत होती हैं। तथापि अनादि अपौरुषैय ग्रन्थ वेद ही हैं। अतः वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थों के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयसों पयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति, वैदिक संस्कृति या भारतीय संस्कृति है।’’

     (संस्कार संस्कृति और धर्म)

श्रेष्ठतम वेदान्ती स्वामी श्री विवेकानन्द जी संस्कृति के बारे में बताते हैं कि-

संस्कारों से ही चरित्र बनता है। वास्तव में चरित्र ही जीवन की आधारशिला है उसका मेरुदंड है। राष्ट्र की सम्पन्नता चरित्रवानों की ही देन है। जहां के निवासी चारित्र्य से विभूषित होते हैं वह राष्ट्र प्रगत होगा ही। राष्ट्रोत्थान और व्यष्टि चरित्र ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। मन निर्मल, सत्वगुणयुक्त और विवेकशील हो इसके लिये निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य से मानो चित्त रूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है फिर क्या शेष रहता है- केवल संस्कार समूह। मन में ऐसे बहुत से संस्कार पडऩे पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणित हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आदत ही द्वितीय स्वभाव है। केवल द्वितीय स्वभाव ही नहीं वरन् प्रथम स्वभाव भी है। हमारे मन में जो विचारधारायें बह जाती हैं उनमें से केवल प्रत्येक अपना एक चिह्न-संस्कार छोड ज़ाती है। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, इस प्रकार चरित्र निर्माण ही बुरे संस्कारों को रोकने का एकमात्र उपाय है।

      (कल्याण संस्कार अंक)

पूज्य योगी श्री देवराहा बाबा के शब्दों में- “फूलों में जो स्थान सुगन्ध का है, फलों में जो स्थान मिठास का है, भोजन में जो स्थान स्वाद का है, ठीक वही स्थान जीवन में सम्यक संस्कार का है। संस्कारों की प्रतिष्ठा से ही यह देश महान बना है। किसी भी देश का आचार-विचार ही उसकी संस्कृति कहलाती है। आचार-व्यवहार, संस्कार और संस्कृति में गहरा तादाम्य है। संस्कार प्रतिष्ठा भगवत्प्रतिष्ठा के समतुल्य है।”

     (योगिराज देवराहा बाबा के उपदेश)

सन्तश्री विनोबाभावे जी कहते हैं- हिन्दुस्थान कभी अशिक्षित और असंस्कृत नहीं रहा है। हर एक को अपने-अपने घरों में शुद्ध संस्कार प्राप्त हुए हैं। जो बडे़-बडे़ पराक्रमशाली लोग हुए उनके कुल के संस्कार भी अच्छे थे। कुछ गुदडी़ के लाल भी निकलते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा स्वभावतः महान् और बडी़ विलक्षण होती है। इस प्रकार कुछ अपवादों को छोड द़ें तो सभी महापुरुषों में उनके कुल के संस्कार दिखायी पडत़े हैं। संस्कारों से जो शिक्षण प्राप्त होता है वह और किसी पद्धति से नहीं।

      (संस्कार सौरभ)

संस्कारों की महत्ता को प्रकाशित करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि संस्कारों से ही पवित्रता आती है। अतएव अनेक विध प्रयासों द्वारा संस्कार करते रहना चाहिए।

संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्येध्यमत्र तदुच्यते।

असंस्कृतं तु यल्लो के तदमेध्यं प्रकीत्र्यते।।

     (संस्कार की भूमिका)

गौतम ऋषि ने कहा है कि-

संस्क्रियते अनेन श्रौतेन कर्मणा वा पुरुषा इति संस्कार

     (गौतम सूत्र)

अर्थात् श्रुतियों (त्रच्क्, यजु, साम और अथर्व) एवं स्मृतियों (मनु, वृहस्पति, भरद्वाज, याज्ञवल्क्य, यास्क आदि) द्वारा विहित कर्म ही संस्कार कहलाता है।

 

श्री दादा धर्माधिकारी संस्कृति के संदर्भ में लिखते हैं कि- संस्कृति एक अखिल- जागतिक भाव और सार्वभौम तत्त्व है। उसके लक्षण अखिल जागतिक हैं। उसके मूल तत्त्व भी विश्व के समस्त देशों मंे विद्यमान हैं। संस्कृति की मूलभूत परिभाषा में एकता झलकती है। इसलिए वह संस्कृति है और मनुष्यों को सभ्य बना सकती है। अतः संस्कृति उस शिक्षा व दीक्षा को भी कह सकते हैं जो सामान्य मानव का जीवन सुधारे। इससे स्पष्ट है कि एक देश की संस्कृति में उस देश की पुरातन आदतें, प्रथाएं व रहन-सहन भी सन्निहित होते हैं और वे उस देश के मनुष्यों के चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। वैसे सभी संस्कृतियों का लक्ष्य मानव-आत्मा को उन्नत करना ही होता है; क्योंकि सभी मानव मूलतः एवं प्रकृति से सदृश हैं। इस कारण सभी देशों की जातियों की संस्कृतियां कई अंशों में समान भी पाई जाती हैं। लेकिन फिर भी देश, काल और पात्र की परिस्थितियों एवं संस्कृतियों के प्रेरकों-निर्माताओं के आदर्श विभिन्न होते हैं। इस विभिन्नता के कारण ही देशों की संस्कृतियों में भी भिन्नता आ जाती है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रणेता ऋषि-महर्षि व दार्शनिक रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से कुछ भिन्नता लिए हुए है। इस संदर्भ में हम भारतीय योगी अरविंद की परिभाषा उल्लेखित कर देना आवश्यक समझते हैं। वे संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखते हैं ‘‘इस संसार में सच्चा सुख आत्मा, मन और शरीर के समुचित समन्वय और उसे बनाये रखने में ही निहित होता है। किसी संस्कृति का मूल्यांकन इसी बात से करना चाहिए कि वह इस समन्वय को प्राप्त करने की दशा में कहा तक सफल रही है।’’

 

भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान एवं आध्यात्मिक होने के कारण दार्शनिक आवरण से अधिक आवृत्त हो गई है। इसीलिए भारतीय संस्कृति से तात्पर्य सत्यं, शिवं, सुन्दरम के लिए मस्तिष्क और हृदय में आकर्षण उत्पन्न करना तथा अभिव्यंजना द्वारा उसकी प्रशंसा करने से लिया जाता है। इसी श्रेणी में हम श्री वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा परिभाषित संस्कृति की परिभाषा का उल्लेख कर देना भी उचित समझते हैं। वे अपनी पुस्तक कला और संस्कृतिमें लिखते हैं- ‘‘वास्तव में संस्कृति वह है जो सूक्ष्म एवं स्थूल मन एवं कर्म, अध्यात्म जीवन एवं प्रत्यक्ष जीवन में कल्याण करती है।’’ अतः यदि हम संस्कृति को जीवन के महत्वपूर्ण एवं सार्थक रूपों की आत्म-चेतना कहें तो अनुचित नहीं होगा।

प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय के अनुसारः ‘‘संस्कृति से तात्पर्य है सामाजिक मानस अथवा चेतना से जिसका इस प्रसंग में स्वप्रकाश विजयी के अर्थ में नहीं किन्तु विचारों, प्रयोजनों और भावनाओं की संगठित समष्टि के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए।’’

डॉ. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसारः ‘‘संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो सारे जीवन में व्याप्त हुए हैं तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का साथ है।’’ डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार ने संस्कृति शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है उसे संस्कृति कहते हैं।’’

 डॉ. देवराज के अनुसारः ‘‘संस्कृति उस बोध या चेतना को कहते हैं जिसका सार्वभौम उपभोग या स्वीकार हो सकता है और जिसका विषय वस्तुसत्ता के वे पहलू हैं जो निर्वैयक्तिक रूप में अर्थमान हैं।’’

 

शिवदत्त ज्ञानी के अनुसारः ‘‘किसी समाज, जाति अथवा राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों के उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम उस समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति है। किसी भी राष्ट्र के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है।’’

इस प्रकार संस्कार का अर्थ है संवारना, सजाना, उन्नत बनाना और इसकी प्रक्रिया का नाम संस्कृति है।

संस्कृति का समरूप या पर्यायवाची culture शब्द नहीं हो सकता। अंग्रेजी का शब्द culture लैटिन के cult से बना है। oxford शब्दकोश के अनुसार cult का अर्थ पूजा पद्धति से है। Cult is a system of religion worship या to a person or thing.

लैटिन के culture का अर्थ काट-छांट करना होता है, जो विशेषतः वनस्पतियों के अर्थ में प्रयोग होता है। फूल पत्तों की कटाई-छंटाई करना मूल अर्थ था। इसी कारण Horticulture, Agriculture, Cultivate culture आदि शब्द अस्तित्वमान है। यह culture शब्द केवल और केवल वानस्पतिक अर्थों में प्रयुक्त होता था जो कृषि कार्य से सम्बद्ध थे। इसी कारण वे कृषि जन्य अन्य शब्द भी निर्मित हुए। बाद में कल्टस culture से the cult film, cult figure, personalty cult the cult of aestheticism आदि शाब्दिक अवधारणाएं बनीं। परन्तु कोई भी शब्द भारतीय शब्द संस्कृति के पासंग में भी नहीं समा रहा है। कितना मूलभूत अन्तर है भावों का। जिस प्रकार अंग्रेजी लैटिन के वे सभी शब्द culture के व्युत्पन्न हैं उसी प्रकार भाषा विज्ञानियों के अनुसार संस्कृति, संस्कृत, संस्कार आदि शब्द भी एक ही मूल के हैं। मूल समस्या तब प्रारम्भ हुई जब हम अंग्रेजी के माध्यम से संस्कृत, संस्कृति का अध्ययन करने लगे। शब्दों के हेर-फेर से भावों और तज्जन्य परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।

अंग्रेजी में संस्कृतिशब्द का समानार्थक शब्द कल्चरहै। कल्चरशब्द की व्याख्या करते हुए अमेरिकन विद्वान व्हाइट-हेड ने लिखा है: कल्चरमानसिक प्रक्रिया है और सौन्दर्य तथा मानवीय अनुभूतियों का हृदयंगम करने की क्षमता है।’’

बेकन के अनुसार: कल्चरमें मानवता के आंतरिक एवं स्वतंत्र जीवन की अभिव्यक्ति होती है। भारतीय संस्कृति का विदेशों में विकास उसकी अपनी महिमा और उदारता के कारण हुआ है तथापि कई बार ऐसा शस्त्र और शौर्य से भी किया गया है। ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’। हम संसार को सभ्य बनायेंगे, ऐसा इस देश का लक्ष्य रहा है। उसके लिये भारतीय संस्कृति द्वारा प्रवाहित ज्ञान धारायें जब काम नहीं कर सकी तो अस्त्र भी उठाये गये है और उसके लिये सारे विश्व ने साथ भी दिया है। महाभारत का युद्ध हुआ था उसमें काबुल, कन्धार, जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहल, आर्यदेश (आयरलेण्ड) पाताल (अमेरिका) आदि देशों के सम्मिलित होने का वर्णन है यह विश्व युद्ध था।

 

भारतीय संस्कृति माता है और विश्व के तमाम देश अनेक संस्कृतियां और जातियां उसके पुत्र-पुत्री पोता-पोती की तरह है। घर सबका यही था, भाषा सबकी यहीं की संस्कृति थी ओर संस्कृति थी और संस्कृति भी यही की थी जो कालान्तर में बदलते-बदलते और बढ़ते-बढ़ते अनेक रूप और प्रकारों में उसी तरह हो गई जैसे आस्ट्रेलियाई मूंगों की दूर-दूर तक फैली हुई चट्टान।

इस तथ्य का मनोवैज्ञानिक बेनीडिक्टअपनी पुस्तक में इस प्रकार वर्णन करते है संस्कृति जिससे व्यक्ति अपना जीवन बनाता है, कच्चा पदार्थ प्रस्तुत करती है तथा उसका स्तर निम्न है तो व्यक्ति को कष्ट देती है तथा उसका व्यक्तित्व निकृष्ट स्तर का बनता है और यदि श्रेष्ठ हुई तो व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का अवसर मिलता है।

निष्कर्ष

सुसंस्कारिता ही मानव जीवन का बहुमूल्य गरिमा है, इसे अपनाने वाले ही संस्कृति को समाज को धन्य बनाते और स्वयं उसके अनुयायी होने का गौरव प्राप्त करते हैं। अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते है। उल्लेख मिलता ही है कि दक्षिण-पूर्वी ऐशिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और पास के अन्य द्वीपों में जाकर बस गये, वहां के निवासियों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये। चैथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विशिष्टता के कारण संस्कृति उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के वोरोबदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मन्दिर में सन्निहित थी। राजतन्त्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों, मन्दिरों के ध्वंशावशेष अनेक स्थानों पर बिखरे पडे़ है।

 

संदर्भ सूची

पाण्डेय, डॉ. रामसजन. (1995). संतों की सांस्कृतिक संसृति. दिल्ली : उपकार प्रकाशन. पृष्ठ. 14

दिनकर, रामधारी सिंह.(1956). संस्कृति के चार अध्याय. दिल्ली : राजपाल एंड संस, पृष्ठ. 5

शुक्ल, दुर्गाशंकर.(1956).भारत की राष्ट्रीय संस्कृति (अनु.). नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृष्ठ.3

तिवारी, डॉ. शशि एवं अन्य.(1986). भारतीय धर्म और संस्कृति. दिल्ली : दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ.1

शास्त्री, डॉ. अनंत कृष्ण.(1942). ऐतरेयब्राह्मण. यूनिवर्सिटी ऑफ भावनकोर, पृष्ट. 1-6

4 टिप्पणियाँ:

Manas Baraiya said...

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