Wednesday, August 23, 2017

जब खाया 'टटका-टटका'

 





बात पुरानी है। एक सेमिनार पटना में करना था आयोजन की तैयारी के लिए हम पटना गए और दो दिन रुके अगले दिन भोपाल केलिए देर रात की ट्रेन थी, हमरे साथी लोकेन्द्र सिंह सुझाया आसपास में दर्शनीय स्थल चलते है विचार अच्छा था तुरंत गया के लिए निकल पड़े लोकल ट्रेन से रात 11 बजे हम गया पहुंच गये । एक सामाजिक कार्यकर्ता के सहयोग से रुकने की व्यवस्था हो गयी सुबह जल्दी उठे और मंदिर दर्शन के लिए निकल पड़े। गया को मन्दिरों का शहर कहा जाता है मुख्य मंदिर अपनी उत्कृष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है, मंदिर के आंगन में हर तरफ देश और दुनिया भर से आए श्रद्धालुओं का समूह अपने पितरों (पूर्वजों) की शांति के लिए पूजा-अर्चन करते हुए दिख रहे थे हमने भी कुछ देर शांतमन से वहा बैठकर जीवन और मृत्यु के साथ-साथ मोहमाया को समझने की कोशिश की।

अब आगे के लिए निकल पड़े मंदिर से बाहर आते ही लाईन से फूस की बनी झोपड़ियों में गरमा-गरम जलेबी और पुड़ी बनती हुई नजर आई मेरे साथी लोकेन्द्र सिंह ने कहा कुछ खाते है फिर यात्रा, जलेबी खाने का सुनते ही मन खुश हो गया और एक दुकान में हम लोग अन्दर चले गये १०,१२ बेंच लगे थे लगभग 30-35 बैठकर खाते हुए दिखे हम दोनों भी अपनी जगह बनाएं और बैठ गये जोलोग पहले से खा रहे थे उनको बड़े ही चाव से परोसा जा रहा था यह देख कर मैं खुश हुआ की दुकानदार बड़े ही आदर से खिला रहा मैं बोला इधर भी दीजिये तुरंत पत्तल और गरम जलेबी-पुड़ी हाजिर समय गवाए बिना हम दोनों खाने लगे । बगल में बैठा व्यक्ति बोला आप लोग भी गमी वाले है हमने कहा नही हम घुमने आए फिर क्या अब तो बहुत से प्रश्न मन में आने लगे लोकेन्द्र सिंह से मै कहा खा लो फिर बात करेंगे लोकेन्द्र बोले अब गले से नही उतर रहा मै आग्रह किया भाई थाली में जो है उसे ख़त्म करों फेका जायेगा यह अन्न का अपमान है, पड़ोसी से पूछा भाई क्या विषय है उसने बताया बुजुर्ग थे ७० साल के उनको जलाने के बाद हम सभी लोग यही नहाये है और “टटका टटका” खाकर घर जायेंगे यह हमारी रीति है, सुनते ही लोकेन्द्र नें कहा सर मैं तो कभी गमी नही खाया और बुद्ध की नगरी में टटका टटका खिला दिया आप ने। बुद्ध के दर्शन की चर्चा के साथ यात्रा पूरी हुई।|

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