Sunday, February 22, 2009

पशुपतिनाथ मंदिर पर प्रचण्ड का आघात


नेपाल के विश्व प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ और नेपाल की सांस्कृतिक पहचान पशुपतिनाथ मंदिर से भारतीय मूल के तीन पुजारियों को निकाल कर नेपाली पुजारियों को नियुक्त करने की घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया कि माओवादी सरकार नेपाल से हिन्दू संस्कृति की पहचान मिटाने पर आमादा है। नेपाल के हिन्दू राष्ट्र होने की पहचान खत्म करने के बाद हिन्दू धर्म और संस्कृति पर एक और माओवादी हमला है जिसकी चारों तरफ तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। यहां तक कि नेपाल की संविधान सभा में प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियां भी इसके विरोध में उतर आईं और इस बहाने सत्ता का नया समीकरण बनाने में जुट गईं हैं। नेपाली कांग्रेस जैसी पार्टी से लेकर पूर्व राजवंश की समर्थक समझी जाने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, नेपाल और हिन्दू गणतंत्र में विश्वास रखने वाली नेपाल जनता पार्टी ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया है और सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। साथ ही, यह मुद्दा नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है। सशस्त्र आन्दोलन और जनविद्रोह के सहारे सत्ता पाने में कामयाब नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के लिए यह मामला गले की हड्डी बन गया है, जो उससे न निगलते बन रहा है और न उगलते।

माओवादी षड्यंत्र
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा के अनुसार पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय मूल के भट्ट पुजारी ही पूजा करते आ रहे हैं। राजा के शासन काल में भी भारतीय पुजारी को हटाये जाने की बात उछाली जाती थी। भट्ट पुजारी पर आरोप लगाया जा रहा था कि वे पशुपतिनाथ मंदिर पर चढ़ावे का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा था कि पशुपतिनाथ के चढ़ावे के रूप में जो भारी रकम और गहने भक्तों द्वारा चढ़ाये जाते हैं, उसे वहां के भट्ट पुजारी अपनी निजी सम्पत्ति समझ भारत ले जाते हैं, इसलिए उसे रोकने के लिए भट्ट पुजारियों को हटाया जाए। उल्लेखनीय है कि राजा के शासन काल में राजा ही इसके संरक्षक एवं रानी अध्यक्ष हुआ करती थीं। यह परम्परा राजा ज्ञानेन्द्र के शासन काल तक चलती रही। इसकी देखभाल के लिए पशुपति क्षेत्र विकास कोष भी बनाया गया है।

नेपाल के गणतंत्र घोषित होते ही नेकपा (माओवादी) सत्ता में आयी और उसने नेपाल की परंपरागत धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं पर आघात करना शुरू कर दिया। ऐसा कर एक ओर वह यह जताना चाहती है कि राजसंस्था के अवशेष के रूप में रही परम्पराओं को मिटाकर पंथनिरपेक्षता को मजबूत कर रही है, दूसरी ओर उसका प्रयास है पंथनिरपेक्षता की आड़ में कम्युनिस्ट शैली की परंपरा को लादना। नेकपा (माओवादी) ने सत्ता में आते ही सबसे पहले पशुपतिनाथ मंदिर से भट्ट पुजारियों को हटाने के लिए पशुपति क्षेत्र विकास कोष का पुनर्गठन किया और माओवादी समर्थकों को उसमें प्राथमिकता दी गई। राजा का शासन समाप्त हो जाने के बाद प्रधानमंत्री ही उसका पदेन अध्यक्ष बना रहे, इसकी व्यवस्था की गई है। इससे भी नेकपा (माओवादी) को भारतीय मूल के पुजारियों को हटाने में सुविधा हुई। सबसे पहले भारतीय मूल के भट्ट पुजारियों को त्यागपत्र देने के लिए परेशान किया गया, माओवादी भ्रातृ संगठन "यंग कम्युनिस्ट लीग" ने धमकी भी दी। बाध्य होकर अपनी जान और पारिवारिक सदस्यों की सुरक्षा हेतु प्रमुख पुजारी महाबलेश्वर सहित तीन भट्ट पुजारियों ने स्वास्थ्य का कारण बताकर संस्कृति मंत्री गोपाल किरांति को त्यागपत्र दे दिया। इन दिनों पशुपतिनाथ मंदिर भी संस्कृति मंत्रालय के ही अन्र्तगत है। संस्कृति मंत्रालय ने तीनों भट्ट पुजारियों का त्यागपत्र 28 दिसम्बर को स्वीकृत किया और नेपाली नागरिक डा। विष्णु प्रसाद दाहाल और शालिगराम ढकाल को नया पुजारी नियुक्त कर डाला। ऐसा कर पुष्पकमल दहल की सरकार ने नेपाली जनता को सन्देश देना चाहा कि नेपाल के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर से भारतीय पुजारियों को निकाला गया है। लेकिन धार्मिक परंपरा के प्रति आस्थावान नेपाली समाज को यह रास न आया और सरकार के इस निर्णय का विरोध शुरू हो गया। जनता एवं धार्मिक संगठन सड़क पर आ गए। वहीं नेपाली कांग्रेस ने इस मुद्दे को संसद में उठाकर सरकार की खिंचाई शुरू कर दी। भारतीय मूल के भट्ट पुजारियों को निकाले जाने के विरोध में होने वाले प्रदर्शन को नेपाली कांग्रेस के नेता नैतिक समर्थन दे रहे हैं।

नेपाल में सैकड़ों वर्षों के इतिहास में सभी शासकों ने इस परंपरा को भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं से ऊश्पर रखा। परन्तु नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सरकार में आने के चार महीने के अन्दर ही नेपाली राष्ट्रीयता के नाम पर नेपाल सहित विश्व भर के हिन्दुओं के आस्था केन्द्र पशुपतिनाथ मंदिर में नेपाली पुजारी के नाम पर माओवादियों को नियुक्त कर दिया। प्रधानमंत्री प्रचण्ड और उनकी पार्टी का दावा है कि जब नेपाल में व्यापक स्तर पर राजनीतिक परिवर्तन हुआ है तब सभी क्षेत्रों में परिवर्तन होना ही चाहिए और इसी क्रम में पशुपतिनाथ की पूजा करने के लिए नेपाली पुजारियों को नियुक्त करने की परंपरा शुरू की गई है। लेकिन प्रधानमंत्री की इस थोथी दलील का आम जनता पर कुछ असर पड़ता नजर नहीं आता। आम नेपाली का मानना है कि सुधार का मतलब यह नहीं होता कि प्रचलित सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं को मिटा दिया जाए। यदि भट्ट पुजारी चढ़ावे का गलत इस्तेमाल करते थे तो उन पर निगरानी रखने की व्यवस्था होनी चाहिए थी, लेकिन भारतीय मूल के होने के कारण ही उन पुजारियों को निकालना उचित नहीं है।

ज्ञानेन्द्र भी विरोध
में नेपाल के गणतंत्र घोषित होने के बाद राजा से नागरिक बने ज्ञानेन्द्र शाह भी भारतीय मूल के पुजारियों को हटाये जाने के विरोध में खुलकर सामने आ गए हैं। जबसे नेपाल गणतंत्र घोषित हुआ है, तब से पूर्व राजा सरकार के सारे फैसले सहजता के साथ स्वीकार कर उसका पालन कर रहे थे। किन्तु पशुपतिनाथ मंदिर संबंधी सरकारी फैसले का विरोध करते हुए उन्होंने कहा है कि विश्व भर में हिन्दू धर्म की आस्था, विश्वास और श्रद्धा के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर को राजनीतिक विवाद से मुक्त रखने के लिए मैं सरकार, श्रद्धालु भक्तजनों और संबंधित पक्षों से अपील करता हूं। 3 जनवरी, 2009 को जारी एक वक्तव्य में पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र ने आग्रह किया है कि शताÎब्दयों से नेपाल धार्मिक और सामाजिक सद्भाव का जो उदाहरण प्रस्तुत करता आ रहा है, वह धूमिल न हो, इसके लिए सभी को प्रयास करना चाहिए।

प्रमुख पुजारी को जान का खतरा
प्रमुख पुजारी महाबलेश्वर का त्यागपत्र स्वीकृत होने पर भी दूसरी व्यवस्था नहीं होने तक उन्हें पूजा करते रहने के लिए कहा गया है। लेकिन महाबलेश्वर इसके लिए तैयार नही हैं। अपने नजदीकी व्यक्तियों को उन्होंने बताया है कि उन्हें अपनी और अपने परिजनों की जान का खतरा है। इसलिए वे जल्द से जल्द सुरक्षित भारत लौटना चाहते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में
याचिका नाराज लोगों ने सरकार के इस हिन्दू विरोधी फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और न्यायालय ने अन्तरिम आदेश जारी कर कहा है कि जब तक इस विषय पर अन्तिम निर्णय नहीं हो जाता तब तक पुराने पुजारी से ही पशुपतिनाथ की पूजा कराई जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि बहुसंख्यक नेपाली नागरिक और हिन्दू धर्मावलम्बी पशुपतिनाथ को आस्था के देवता के रूप में मानते हैं। इसलिए पशुपतिनाथ की पूजा-अर्चना भी प्रचलित रीतिरिवाज, परम्परा और कानून के अनुसार ही होनी चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि नये पुजारियों की नियुक्ति, परंपरा से चली आ रही प्रक्रिया और कानून के विरुद्ध होने से उसे खारिज कर पुराने पुजारियों द्वारा पूजा कराने का अन्तरिम आदेश जारी किया जाए। कृष्ण राजभण्डारी सहित पशुपतिनाथ के चार राजभण्डारी और अधिवक्ता द्वय लोकध्वज थापा एवं विनोद फुयांल ने संयुक्त रूप से यह याचिका दायर की थी। दूसरी याचिका भरत जंगम ने दायर की थी। भरत जंगम को राजपरिवार का समर्थक माना जाता है और राजा ज्ञानेन्द्र के शासन काल में इन्हें राजनीतिक नियुक्ति भी मिली थी।

सर्वोच्च अदालत ने अपने अन्तरिम आदेश में इस बात का भी उल्लेख किया है कि अन्तरिम संविधान की धारा 23 में प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा की मर्यादा कायम रखते हुए परंपरागत धर्म का अवलम्बन करना और उसकी रक्षा करने का अधिकार नेपाली नागरिकों को है। इस आधार पर पुराने पुजारी द्वारा ही पशुपतिनाथ की पूजा कराई जाए। अदालत का आदेश आने से पूर्व पशुपतिनाथ की पूजा करने के सवाल पर पशुपति विकास कोष और स्थानीय लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होने से सुबह पशुपतिनाथ की पूजा नहीं हो पाई और पशुपति क्षेत्र तनावग्रस्त रहा। यह पहला अवसर था जब करीब 7 दिनों तक भगवान पशुपतिनाथ की पूजा नहीं हुई हो।

अदालत की अवमानना
संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर पशुपति विकास कोष किसी भी सूरत में नये पुजारियों द्वारा पशुपतिनाथ की पूजा कराने पर तुला है तो राजभण्डारी नये पुजारियों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दे रहे हैं। राजभण्डारी बन्धुओं ने पशुपतिनाथ मंदिर के चारों दरवाजों पर ताले भी लगा दिये थे। तब संस्कृति मंत्रालय के निर्देश और माओवादी लड़ाकू दस्ते (वाईसीएल) के सहयोग से पशुपति विकास कोष ने मंदिर का ताला तोड़कर नये पुजारियों के हाथों जबरन पूजा करवाई। सर्वोच्च अदालत द्वारा पुराने पुजारी के हाथों पूजा कराने का अन्तरिम आदेश देने के बावजूद प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल (प्रचण्ड) के साथ ही अन्य माओवादी मंत्री न्यायालय के आदेश को मानने से इनकार करते रहे। प्रधानमंत्री का कहना है कि न्यायालय का अन्तरिम आदेश आने से पहले ही नये पुजारियों की नियुक्ति हो जाने से नये पुजारी के हाथों ही पूजा करायी जाएगी। इस विषय को लेकर जब परंपरागत धर्म संस्कृति संरक्षण समिति ने पशुपति मंदिर के पश्चिमी द्वार पर पत्रकार सम्मेलन करना चाहा तब कोष के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं ने पत्रकार सम्मेलन करने का प्रयास करने वालों की जमकर पिटाई की।

इसके बाद से पशुपति मंदिर के नजदीक नये पुजारी की नियुक्ति के विरोध में धर्म-संस्कृति संरक्षण समिति, हिन्दू स्वयंसेवक संघ, नेपाल और नेपाल जनता पार्टी की संयुक्त अगुआई में विरोध प्रदर्शन जारी है। स्थानीय लोगों की बढ़ती सहभागिता को देख प्रशासन ने पशुपति क्षेत्र के आसपास के इलाके को निषिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया है। प्रधानमंत्री दहल और उनकी पार्टी अब यह प्रचारित करना चाहती है कि यह विरोध प्रदर्शन भारत एवं नेपाल के हिन्दूवादियों के बहकावे में हो रहा है। साथ ही इस विवाद को नेपाल-भारत विवाद के रूप में भी प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है। जबकि, बहुसंख्यक नेपाली जनता इसे हिन्दू रीतिरिवाज पर प्रहार मान रही है। हिन्दुत्वनिष्ठ नेपाली समाज का मानना है कि पंथनिरपेक्षता के बहाने माओवादी पार्टी हिन्दू परम्परा को समाप्त करने पर तुली हुई है।

हिन्दू संस्कृति पर माओवादी हमला काठमाण्डू से राकेश मिश्र

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