बलबीर पुंज
हिंदुत्व एजेंडे का अर्थ नागपुर बैठक के बाद राजनीतिक हलके में चुनावी रणनीति के तहत भाजपा के अयोध्या और हिंदुत्व एजेंडे की ओर वापस लौटने की चर्चा चल रही है। यह बहस निरर्थक है, क्योंकि भाजपा ने कभी अयोध्या और हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ा ही नहीं था। भाजपा की विचारधारा में हिंदुत्व ही मूल है। भारत के पंथनिरपेक्ष और बहुलवादी चरित्र का मूलाधार भी यही सनातन चिंतन है। हिंदुत्व के बिना भारत मजहब आधारित जिहादी पाकिस्तान का प्रतिरूप होगा। विभाजन के साथ पाकिस्तान ने अपने हिंदू अतीत को नकारा और वहां बचे हिंदुओं को मतांतरण अथवा पलायन के लिए विवश किया। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद की राजधानी के रूप में कुख्यात हो चुका है।
वैदिक ऋचाओं के माध्यम से विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाला सिंधु नदी का पावन तट आज आतंकवाद की उपजाऊ भूमि के रूप में उभरा है। हिंदुत्वविहीन पाकिस्तान का एजेंडा जिहादी तय कर रहे हैं। क्यों? हमें जिस बहुलतावादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत पर गर्व है उसका यह स्वरूप संविधान के कारण नहीं है, बल्कि हिंदुत्व की बहुलतावादी सनातनी संस्कृति के कारण संविधान पंथनिरपेक्ष और सम्मानित है। जिस सभ्यता-संस्कृति में संविधान को क्रियाशील रहना है उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति से साम्य नहीं रखने वाला संविधान कभी भी दीर्घजीवी नहीं रह सकता। इसीलिए पाकिस्तान में पंथनिरपेक्षता और प्रजातंत्र जड़ नहीं पकड़ सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय मुस्लिम लीग को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल विभाजन के खिलाफ थे, किंतु कम्युनिस्टों ने जिन्ना को वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए जो मजहब आधारित राष्ट्र की मांग के लिए जरूरी थे। क्यों? इसलिए कि कम्युनिस्ट भारत की मूल प्रकृति व संस्कृति से कटे-छंटे थे। 1962 के चीन के आक्रमण के समय कम्युनिस्ट चीन के साथ थे। जब चीन परमाणु शक्ति से संपन्न हुआ तो कम्युनिस्टों ने तालियां बजाईं, किंतु पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण से उन्हें बड़ी तकलीफ हुई।
वामपंथियों और भारत के बीच जो असंगति है उसका कारण यही है कि मार्क्स के मानसपुत्रों में हिंदुत्व का अभाव है। दुर्भाग्य से मीडिया के एक बड़े वर्ग में विकृत सेकुलरवाद के प्रति आसक्ति और हिंदू विरोधी मानसिकता हावी है। तकरीबन पिछली दो पीढ़ी नेहरूवादी स्वाधीन भारत में पल कर बड़ी हुई हैं। नेहरूवादी पाश्चात्य उन्मुक्तता इस्लामी कट्टरवाद के लिए सहिष्णुता और हिंदू पहचान के प्रति वैमनस्य का ही नाम था। उनके बाद इंदिरा गांधी के दौर में वामपंथियों का गुट मीडिया और शीर्षस्थ बौद्धिक संस्थानों पर हावी हुआ। वामपंथियों के लिए राष्ट्रवाद कोई मायने नहीं रखता था, इसलिए इस राष्ट्र का गौरव उन्हें आकर्षित नहीं कर सका। जिस मानसिकता ने देश का विभाजन कराया, आजादी के बाद जिसने सांप्रदायिक वैमनस्य के बीज बोए उसके लिए देश की पुरातन मान्यताएं व उसकी गरिमा गौण है। रोम, मिस्त्र, यूनान आदि सभ्यताएं काल के गाल में समा गईं, किंतु हिंदू सभ्यता नित नूतन है। इसीलिए, क्योंकि भारत का सतत अस्तित्व हिंदू दर्शन पर आधारित है। भारत की पहचान किसी एक पंथ या पूजा पद्धति से नहीं जोड़ी जा सकती।
हिंदू दर्शन में अनंत काल से विचार-विमर्श और श्रेष्ठ चिंतन के आदान-प्रदान की दीर्घ परंपरा रही है। यूरोप में रोमन साम्राज्य की छत्रछाया में ईसाइयत ने मूर्तिपूजकों के साथ लड़ाई लड़ खुद को स्थापित किया। लिथुआनिया में 14वीं सदी तक मूर्तिपूजन विद्यमान था, किंतु ईसाइयत उसे निगल गई। वह एक बर्बर सामूहिक नरसंहार का दौर था जब श्वेत ईसाइयत लेकर अमेरिका पहुंचे और वहां के निवासियों को ईसाई बनाया। मध्यकाल इस्लामी बर्बरता और हिंसा के बल पर मतांतरण का साक्षी है। इस तरह की असहिष्णुता के लिए हिंदू दर्शन में कभी कोई स्थान नहीं रहा है। हिंदुत्व को फासीवादी और सांप्रदायिक संज्ञा देना वास्तव में भारत के सनातन चरित्र को कमजोर करने का षड्यंत्र है। इस कुप्रचार का लक्ष्य प्रजातांत्रिक और सहिष्णु मूल्यों को कमजोर कर मध्यकालीन कट्टरता को वापस लाना है।
आज भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश इस्लामी जिहाद से त्रस्त हैं। राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए भाजपा यदि इस्लामी आतंकवाद से कड़ाई से निपटने की मांग करती है, मौत के सौदागरों को मिल रहे स्थानीय समर्थन पर प्रश्न खड़ा करती है तो इसे किस तरह सांप्रदायिकता से जोड़ा जाता है? महात्मा गांधी ने रामराज्य के आधार पर ही एक पंथनिरपेक्ष जनकल्याणकारी राष्ट्र की कल्पना की थी। क्या गांधीजी और भाजपा के राम अलग-अलग हैं? राम तो हिंदुत्व के प्राण हैं। हिंदुत्व केवल राम मंदिर तक सीमित नहीं है। पोखरण द्वितीय भी हिंदुत्व एजेंडा का अंग था। भाजपा नीत राजग सरकार के काल में प्रारंभ किए गए राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण, दूरसंचार क्रांति, सर्व शिक्षा अभियान आदि भी उसी एजेंडे से प्रसूत थे। उसी एजेंडे से दीप्त गुजरात आज विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ रहा है। हिंदुत्व भारतीयों को खुशहाल, समृद्ध, शांतिप्रद भारत के लिए प्रेरित करता है, जहां सब के विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध हों, जहां सार्वजनिक जीवन में मर्यादा और शुचिता का महत्व हो। वर्तमान संप्रग सरकार में आधा दर्जन ऐसे मंत्री हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। एक पर हत्या का आरोप है, किंतु वह महत्वपूर्ण पद पर कायम हैं।
श्रीराम ने पिता के आदेश का पालन करने के लिए राजपाट का मोह छोड़ वनवास स्वीकार किया। उसी हिंदुत्व के कारण लालकृष्ण आडवाणी ने हवाला कांड में अपना नाम शामिल होने पर सार्वजनिक जीवन से तब तक के लिए अवकाश ले लिया था जब तक जांच में वह निर्दोष साबित न हो जाएं। क्या हिंदुत्व इस सनातन राष्ट्र की कालजयी सभ्यता का बोधक नहीं है? सेकुलरिस्ट अगर इसी देश में कश्मीरियत को स्वीकार सकते हैं तो समग्र रूप से पूरे हिंदुस्तान की सभ्यता के लिए हिंदुत्व के प्रयोग पर आपत्ति क्यों है? इस देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं तो उन पर समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जा सकती है? एक समुदाय अपने लिए अलग कानून और अदालत की मांग क्यों करता है और उस मांग को सेकुलरिस्टों का समर्थन क्यों मिलता है? हिंदुत्व का अर्थ सर्वधर्म समादर है। यह मजहब के आधार पर किसी समुदाय के लिए विशेष अधिकारों की व्यवस्था नहीं देता।
हिंदुत्व के समर्थक क्या कभी ऐसे राज्य की कल्पना करते हैं जिसमें शंकराचार्य फतवा जारी कर रहे हों और संत न्यायाधीश की कुर्सी पर विराजमान हों? भाजपा के हिंदुत्व का जिस सेकुलरवाद के नाम पर विरोध किया जा रहा है उसका भारत में क्या अर्थ है? बहुसंख्यक हिंदू समाज को अपनी शिक्षण संस्था चलाने के अधिकार से वंचित रखना और अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम व ईसाइयों को न केवल यह अधिकार देना, बल्कि उनकी संस्थाओं को राज्याश्रय और वित्तीय मदद उपलब्ध कराना, जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल चरित्र को कायम रखने के लिए धारा 370 की व्यवस्था के अंतर्गत शेष भारतीयों की वहां रिहायश पर पाबंदी लगाना, हिंदू तीर्थस्थलों का अधिग्रहण और उन तीर्थस्थलों से हुई आमदनी से हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये हज सब्सिडी के रूब में बांट देना क्या सेकुलरवाद की विकृति को उजागर नहीं करते? इस विकृत सेकुलरवाद का विरोध आज सांप्रदायिकता है। क्यों?
साभार-जागरण
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
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