प्रो ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है अंतिम भाग-
मूल्याधारित राजनीतिमूल्य का अर्थ है यह दृष्टि या विवेक कि क्या सही है और क्या गलत है, क्या महत्वपूर्ण है और क्या महत्वहीन, क्या मूल्यवान है, ग्राह्य है, वांछनीय है, क्या मूल्यहीन है, अग्राह्य है, अवांछनीय है। मूल्य उन उच्च मानदण्डों का नाम है जिनके पालन से श्रेष्ठता का सृजन होता है, आदर्शों का निर्माण होता है। मूल्य वह विवेक दृष्टि है जो अच्छे और बुरे का बोध जगाती है। जो अच्छा है उसका आचरण करने और जो बुरा है उससे निवृत्त होने की प्रेरणा देती है। संक्षेप में श्रेष्ठता का मानदण्ड मूल्य कहलाते हैं।राजनीति का क्षेत्र सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के लिए जिन मानदण्डों का पालन ज़रूरी है, वे ही मूल्य हैं। भारतीय जनता पार्टी राजनीति में उच्च मानदण्डों के पालन के प्रति प्रतिबध्द है। मूल्यों के आग्रह के कारण ही किसी समय राजनीति, राजनेता और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त था। मूल्यों का आग्रह छूट जाने से, राजनीति विकृत हो गई और राजनेता तथा राजनैतिक कार्यकर्ता की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंची है। हमें राजनीति को पुन: मूल्यों पर अधिष्ठित करने की अपनी प्रतिबध्दता को सुदृढ़ करना होगा।भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण।
भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति का तात्कालिक उद्देश्य था देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त करना, भारत माता के पाँव में पड़ी बेड़ियों को काटना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का उद्देश्य है राष्ट्रीय विकास, पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय अभ्युदय। इसी से विश्व के देशों की मालिका में भारत को गौरवपूर्ण स्थान मिल सकेगा। कहीं स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति अपने इस महान ध्येय से भटक तो नहीं गई है? श्री दीनदयालजी ने सलाह दी थी कि 'राष्ट्र को क्षीण करने वाली राजनीति को त्याज्य ही मानना चाहिए। उनका मत था कि 'राजनीति अन्तत: राष्ट्र के लिए ही होती है। राष्ट्र का विचार त्याग दिया-अर्थात् राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता का विचार ही नहीं किया- तो राजनीति किस काम की'?आज के राजनीतिक दलों के व्यवहार और कार्यकलापों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि राजनीति राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के ध्येय से विमुख होकर सत्ताभिमुखी हो गई है। राष्ट्रसेवा का स्थान सत्ता की आंकाक्षा और सत्ता के भोग ने ले लिया है। इसमें से अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा, दलबदल, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, विशेषरूप से सार्वजनिक जीवन के उच्च स्थानों पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सहकार नहीं विरोध, सामंजस्य नहीं वैमनस्य, रचना नहीं विध्वंस, तात्कालिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति, वोट बैंक की राजनीति जिसके चलते जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया जाता है, तुष्टीकरण की विभाजनकारी राजनीति। उक्त विकृतियों के कारण आज भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भारी कमी आ गई है।भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें।
भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें। भाजपा की पहचान एक अनुशासित कैडर वाली पार्टी के रूप में होती आई है। आज अनुशासन में कुछ शिथिलता दिखाई पड़ती है, जो भाजपा के कर्णधारों के लिए चिन्ता का विषय है। अनुशासन के पहले जैसे ऊँचे मानदण्डों का आग्रह बढ़ाने की दिशा में ठोस उपाय किए जा रहे हैं। भाजपा दल-बदल की विरोधी हैं, क्योंकि दलबदल से जहां एक ओर राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है, वहीं यह मतदाताओं से विश्वासघात भी है। इसके लिए हमारे चुनाव कानूनों में सुधार किए जाने की ज़रूरत है। भारतीय राजनीति में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का प्रभाव बढ़ा है।परिणामत: चुनाव भयमुक्त और निष्पक्ष वातावरण में नहीं हो पाते और इनसे उपजा जनादेश कई बाद छद्म जनादेश होता है। इसके लिए जहाँ एक ओर राजनीतिक दलों में आमसहमति से आचार संहिता विकसित किया जाना जरूरी है, वहीं चुनाव कानूनों में आवश्यक सुधार करने होंगे। भारतीय राजनीति की एक विकृति अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन है। राजनीतिक गठबंधन समय की आवश्यकता होने पर भी, ये कुछ सिध्दान्तों और मर्यादाओं पर आधारित होने चाहिए। चुनाव परिणाम के बाद महज़ सत्ता प्राप्त करने के लिए किए गए सिध्दान्तविहीन संगठन जहां टिकाऊ नहीं होते वहाँ वे मतदाता से भी छल होता है। यूपीए सरकार कांग्रेस के कुछ अन्य दलों और वामपंथी दलों से गठबन्धान का परिणाम है। लेकिन वामपंथी दल और कांग्रेस में न आर्थिक नीतियों को लेकर और न ही वैदेशिक नीतियों को लेकर सामंजस्य है। उलटे वामपंथी दल यूपीए सरकार पर न्यूनतम सांझा कार्यक्रम से भटक जाने का आरोप लगाते रहते हैं। ऐसे अवसरवादी गठबन्धनों से लोकविश्वास आहत होता है। सार्वजनिक जीवन में उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के प्रसंग अक्सर समय-समय पर सामने आते रहते हैं। इन प्रसंगों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने के बजाय अक्सर इनकी जांच को अनावश्यक रूप से वर्षों-वर्षों लटकाया जाता है और कार्रवाई के नाम पर लीपापोती की जाती है। भ्रष्टाचार विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। कांग्रेस और कुछ अन्य सत्ताालोलुप दल आरक्षण की राजनीति और अल्संख्यक तुष्टीकरण को हवा देने में लगे रहते हैं। राष्ट्रीय हित गौण और दलीय हित प्रमुख हो गए हैं। जातीय और सामाजिक विभाजन की राजनीति की प्रचण्ड प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस अन्धी प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी हो रही है- फिर वह चाहे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सरोकार हों या आंतरिक सुव्यवस्था के सरोकार। दलीय हितों की पूर्ति के लिए लोकतान्त्रिक परम्पराओं और संस्थाओं का अवमूल्यन करने से परहेज़ नहीं किया जाता, राज्यपाल के पद का दुरूपयोग कर सरकारें गिराई जाती हैं, न्यायपालिका और संसद के निर्णयों और भावनाओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित किया जाता है, कानून में रातोंरात संशोधन या परिवर्तन कर न्यायपालिका के सुविचारित निर्णयों को प्रभावहीन बना दिया जाता है। उक्त विकृतियों के चलते मतदाताओं का राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग होता जा रहा है। इस स्थिति का समय रहते कठोरतापूर्वक उपचार करना ज़रूरी है। पटरी से उतर गई राजनीतिक संस्कृति को पुन: पटरी पर बैठाने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने को शुचिता के मूल्य के प्रति प्रतिबध्द करें।
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