पुस्तक की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार शिशिर सिन्हा
सीनियर डिप्टी एडिटर
द हिंदू बिजनेस लाइन की कलम से....
विकास के आंकड़ों में आम आदमी हमेशा ही एक
सवाल का जवाब ढ़ूंढता है। सवाल ये है कि इन आंकड़ों का ‘मेरे’ लिए क्या मतलब है? सवाल तब और भी अहम बन जाता है कि एक ही
दिन अखबार की दो सुर्खियां अलग-अलग कहानी कहती हैं। पहली सुर्खी है, ‘भारत दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने
वाला देश बना’ या फिर ‘भारत अगले दो वर्षों तक सबसे तेजी से
विकास करने वाला बना रहेगा देश,’ वहीं दूसरी सुर्खी
है ‘अरबपतियों की
संपत्ति रोजाना औसतन 2200 करोड़ रुपये बढी, भारी गरीबी में जी रही 10 फीसदी आबादी
लगातार 14 सालों से कर्ज में है डूबी’। ऐसे
में ये सवाल और भी अहम बन जाता है कि 7.3, 7.5 या 7.7 फीसदी की सालाना विकास दर के
मायने आबादी के एक बहुत ही छोटे हिस्से तक सीमित है, या फिर इनका फायदा समाज में
आखिरी पायदान के व्यक्ति को भी मिल पा रहा है या नहीं?
ऐसे ही सवालों का जवाब जानने के लिए ये
जरुरी हो जाता है कि विकास को सुर्खी से आगे जन-जन तक पहुंचाने के लिए आखिरकार
सरकार ने किया क्या, या फिर जो किया वो पहले से किस तरह से अलग था? इस सवाल का जवाब जानने के लिए आइए आपको
2014 में वापस लिए चलते हैं। लालकिले की प्राचीर से अपने पहले स्वतंत्रता दिवस
भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वित्तीय समावेशन की नयी योजना की घोषणा की।
इसके तहत हर परिवार के लिए कम से कम एक बैंक खाता खोले जाने की बात कही गयी। घोषणा
के ठीक 14 दिन के भीतर योजना की शुरुआत भी हो गयी। ऐसा नहीं था कि वित्तीय समावेशन
की पहले कोई योजना नहीं थी, लेकिन पहले जहां जोर निश्चित आबादी वाले गांव के लिए
बैंकिंग सुविधा शुरु करने की बात थी, वहीं नयी योजना में पहले हर परिवार (ग्रामीण
व शहरी, दोनो) और अब हर वयस्क को बैंकिंग के दायरे में लाने का लक्ष्य है।
बैंक खाता तो खुला ही, ये भी सुनिश्चित
करने की पहल हुई कि खाते में पैसा आता रहे। इसीलिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का
पैसा सीधे-सीधे लाभार्थियों तक पहुंचाने के लिए बैंक खाते का इस्तेमाल किया जाने
लगा। फायदा लक्ष्य तक पहुंचने, इसके लिए जैम (जनधन-आधार-मोबाइल) को अमल में लाया
गया। याद कीजिए, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के उस बयान का जिसमें
कहा गया था कि दिल्ली से चलने वाला एक रुपये में महज 15 पैसा ही जरुरतमंदों तक
पहुंच पाता है। अब कहानी ये है कि जैम के जरिए सरकार ने अपने कार्यकाल में 31
दिसंबर 2018 तक विभिन्न सरकारी योजनाओं में 92 हजार करोड़ रुपये बचाने में कामयाबी
हासिल की है और ये संभव हो पाया जैम के सहारे चलने वाले प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण
यानी डीबीटी के जरिए। मतलब योजनाएं सिर्फ बनी ही नहीं या फिर पुरानी में बदलाव ही
नहीं किया गया, बल्कि कोशिश ये कही गयी कि दिल्ली से चले रुपये का एक-एक पाई लक्ष्य
तक पहुंचे। साथ ही सीमित संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो सके।
जन-धन से जन सुरक्षा का आधार तैयार हुआ।
जन सुरक्षा यानी कम से कम प्रीमियम पर बीमा (जीवन और गैर-जीवन) सुरक्षा। महज एक
रुपये प्रति महीने पर दुर्घटना बीमा और एक रुपये प्रति दिन से भी कम प्रीमियम पर
जीवन बीमा ने सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बडा बदलाव किया। और तो और इन सुरक्षा
के लिए भारी-भरकम कागजी कार्रवाई या दफ्तर के लगातार चक्कर काटने की जरुरत नहीं।
तकनीक के इस्तेमाल के जरिए सुरक्षा हासिल करने के लेकर दावे के निबटारे को आसान
बना दिया गया है। जन सुरक्षा के बाद अब कोशिश है ज्यादा से ज्यादा लोगों को
वित्तीय तौर पर साक्षऱ बनाने की।मतलब साफ है जन की योजनाएं सही मायने में जब तक
जनता की जिंदगी के ज्यादा से ज्यादा पहलुओं को नहीं छुएगी, तब तक उसकी कोई
सार्थकता नहीं होगी।
जन-धन सरकारी योजनाओं के बदलते स्वरुप का
एक उदाहरण है। सच तो यही है कि किसी भी सरकारी योजना की सार्थकता इस बात पर निर्भर
करती है कि कितनी जल्दी वो सरकारी सोच से आम आदमी की सोच में अपनी जगह बना पाती है।
साथ ही जरुरी ये भी है कि सरकारी योजनाओं को महज पैसा बांटने का एक माध्यम नही
माना जाए, बल्कि ये देखना भी जरुरी होगा कि वो किस तरह व्यक्ति से लेकर समाज,
राज्य और फिर देश की बेहतरी मे योगदान कर सके। ये भी बेहतर होगा कि मुफ्त में कुछ
भी बांटने का सिलसिला बंद होना चाहिए।क्या ऐसा सब कुछ पिछले साढे चार साल के दौरान
शुरु की गयी योजनाओं में देखने को मिला है, इसका जवाब काफी हद तक हां में होगा। एक
और बात। राज्यों के बीच भी नए प्रयोगों के साथ योजनाएं शुरु करने की प्रतिस्पर्धा
चल रही है और सुखद निष्कर्ष ये है कि चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने
शुरु की हो, उसकी उपयोगिता को दूसरी राजनीतिक दलों की सरकारों ने पहचाना। तेलंगाना की रायतु बंधु योजना और ओडीशा की
कालिया योजना को ही ले लीजिए। किसानों की जिंदगी बदलने की इन योजनाओं का केद्र
सरकार अध्ययन कर रही है, ताकि राष्ट्रीय स्तर की योजना में इन योजनाओं की कुछ खास
बातों को शामिल किया जा सके।
विभिन्न
सरकारी योजनाओं को शुरु करने का लक्ष्य यही है कि विकास का फायदा हर किसी को मिले
यानी विकास समावेशी हो। कुछ ऐसे ही पैमानों के आधार पर यहां उल्लेखित 36 योजनाओं
का आंकलन किया जाना चाहिए। फिर ये सवाल उठाया जा सकता है कि क्या ये योजनाएं
कामयाब है? अगर सरकार कहे कामयाब तो असमानता को लेकर जारी नयी
रिपोर्ट (उपर लिखित दूसरी सुर्खी का आधार) को सामने रख चर्चा करने से नहीं हिचकना
चाहिए। देखिए एक बात तो तय है कोई कितना भी धर्म-जाति-संप्रदाय को आधार बनाकर
राजनीति कर ले लेकिन मतदाता ईवीएम पर बटन दबाने के पहले एक बार जरुर सोचता है कि
अमुक उम्मीदवार ने विकास के लिए क्या कुछ किया है, या फिर क्या वो आगे विकास के
बारे में कुछ ठोस कर सकेगा। मत भूलिए सरकारी योजनाएं आपके ही पैसे से चलती हैं और
इन योजनाओं की सार्थकता पर अपना पक्ष रखने के लिए हर पांच साल में आपको एक मौका तो
मिलता ही है।
ऐसी सोच विकसित करने के लिए जरुरी है कि
आपके समक्ष सरकारी योजनाओं का ब्यौरा सरल और सहज तरीके से पेश किया जाए। उम्मीद है
कि प्रस्तुत पुस्तक ‘विकास के पथ पर भारत’ इस काम में मदद करेगा। उम्र से युवा
लेकिन विचारों से प्रौढ़ डॉक्टर सौरभ मालवीय ने गहन अध्ययन के बाद केंद्र व राज्य
सरकारों की 36 प्रमुख योजनाओं को समझाने की एक सार्थक पहल की है। सौरभ भाई
ऊर्जावान हैं और निरंतर कुछ-ना-कुछ करते रहते हैं, इसीलिए यकिन रखिए वो जल्द ही
बाकी कई दूसरी प्रमुख सरकारी योजनाओं को लेकर मार्गदर्शिका लेकर आपके समक्ष
उपस्थित होंगे।
शुभकामनाएं!
शिशिर सिन्हा
सीनियर डिप्टी
एडिटर
द हिंदू बिजनेस लाइन
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