फ़िरदौस ख़ान
डॊ. सौरभ मालवीय जी ने अटलजी की सहाफ़ी ज़िन्दगी पर ऐसी किताब लिखी है, जिसमें उनकी सहाफ़ी ज़िन्दगी पर रौशनी डालने के साथ-साथ उनके विचारों और लेखों को भी संजोया गया है. सौरभ जी समर्पित प्राध्यापक हैं, ओजस्वी वक्ता हैं. अध्ययन से उनका गहरा नाता है. उनका इंद्रधनुषी व्यक्तित्व इस किताब में साफ़ झलकता है. बेशक उनका यह काम क़ाबिले-तारीफ़ है, इसके लिए सौरभ जी मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं.
सौरभ जी ने हमें किताब पर एक तहरीर लिखने की ज़िम्मेदारी सौंपी है, जो कोई आसान काम नहीं है. क्योंकि बहुत मुश्किल होता है किसी ऐसी शख़्सियत के बारे में लिखना, जो ख़ुद अपनी ही एक मिसाल हुआ करती है. श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ऐसी ही शख़्सियत हैं. वे मन से कवि, विचारों से लेखक, कर्म से राजनेता हैं. बहुआयामी प्रतिभा के धनी अटलजी ने कविताएं भी लिखीं, पत्रकारिता भी की, भाषण भी दिए, विपक्ष में रहकर सियासत भी ख़ूब की, सत्ता का सुख भी भोगा. इस सबके बावजूद वे मन से हमेशा कवि ही रहे. सियासत में मसरूफ़ होने की वजह से कविताओं से उनकी कुछ दूरी बन गई या यूं कहें कि वे कविता को उतना वक़्त नहीं दे पाए, जितना वे देना चाहते थे. इसकी कमी उन्हें हमेशा खलती रही. सियासत ने उनके काव्य जीवन को उनसे छीन लिया. बक़ौल श्री अटल बिहारी वाजपेयी, राजनीति में आना, मेरी सबसे बड़ी भूल है. इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा. अध्ययन और अध्वयव्साय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा. अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य के कुछ दे जाऊंगा. किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा. मन की शांति मर गई. संतोष समाप्त हो गया. एक विचित्र सा खोखलापन जीवन में भर गया. ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे. आत्मा को कुचलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. स्पष्ट है, सांप-छछूंदर जैसी गति हो गई है. न निग़लते बने, न उग़लते.
अटलजी सियासत के दलदल में रहकर भी इससे अलग रहे. उन्होंने सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध नहीं किया. वे ख़ुद कहते हैं, स्वतंत्रता के बाद हमारी उपलब्धियां कम नहीं हैं. मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो आलोचना के लिए आलोचना करूं. मैं प्रतिपक्ष में हूं, पहले भी कह चुका हूं, स्वतंत्रता के बाद हमने कुछ नहीं किया, ये कहना ग़लत होगा.
उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में उसूलों को अहमियत दी. वे कहते हैं, मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैंने कभी सत्ता के लालच में सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया है, और न भविष्य में करूंगा. सत्ता का सहवास और विपक्ष का वनवास मेरे लिए एक जैसा है. मैं आपको आश्वासन देना चाहता हूं कि कितनी भी आपत्तियां आएं, हम वरदान के लिए झोली नहीं फैलाएंगे. आख़िरी क्षण तक वरदान की तलाश नहीं करेंगे, न मैं संघर्ष का रास्ता छोड़ूंगा.
अटलजी सादगी पसंद हैं. कामयाबी की बुलंदी पर पहुंच कर भी वह अहंकार से दूर हैं, नम्रता से परिपूर्ण हैं. उन्हीं के शब्दों में-
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना...
बहरहाल, उम्मीद है कि अटल जी की ज़िन्दगी पर आई अन्य किताबों के बीच यह किताब अपनी मौजूदगी दर्ज कराएगी.
(शायरा, लेखिका व पत्रकार)
डॊ. सौरभ मालवीय जी ने अटलजी की सहाफ़ी ज़िन्दगी पर ऐसी किताब लिखी है, जिसमें उनकी सहाफ़ी ज़िन्दगी पर रौशनी डालने के साथ-साथ उनके विचारों और लेखों को भी संजोया गया है. सौरभ जी समर्पित प्राध्यापक हैं, ओजस्वी वक्ता हैं. अध्ययन से उनका गहरा नाता है. उनका इंद्रधनुषी व्यक्तित्व इस किताब में साफ़ झलकता है. बेशक उनका यह काम क़ाबिले-तारीफ़ है, इसके लिए सौरभ जी मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं.
सौरभ जी ने हमें किताब पर एक तहरीर लिखने की ज़िम्मेदारी सौंपी है, जो कोई आसान काम नहीं है. क्योंकि बहुत मुश्किल होता है किसी ऐसी शख़्सियत के बारे में लिखना, जो ख़ुद अपनी ही एक मिसाल हुआ करती है. श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ऐसी ही शख़्सियत हैं. वे मन से कवि, विचारों से लेखक, कर्म से राजनेता हैं. बहुआयामी प्रतिभा के धनी अटलजी ने कविताएं भी लिखीं, पत्रकारिता भी की, भाषण भी दिए, विपक्ष में रहकर सियासत भी ख़ूब की, सत्ता का सुख भी भोगा. इस सबके बावजूद वे मन से हमेशा कवि ही रहे. सियासत में मसरूफ़ होने की वजह से कविताओं से उनकी कुछ दूरी बन गई या यूं कहें कि वे कविता को उतना वक़्त नहीं दे पाए, जितना वे देना चाहते थे. इसकी कमी उन्हें हमेशा खलती रही. सियासत ने उनके काव्य जीवन को उनसे छीन लिया. बक़ौल श्री अटल बिहारी वाजपेयी, राजनीति में आना, मेरी सबसे बड़ी भूल है. इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा. अध्ययन और अध्वयव्साय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा. अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य के कुछ दे जाऊंगा. किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा. मन की शांति मर गई. संतोष समाप्त हो गया. एक विचित्र सा खोखलापन जीवन में भर गया. ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे. आत्मा को कुचलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. स्पष्ट है, सांप-छछूंदर जैसी गति हो गई है. न निग़लते बने, न उग़लते.
अटलजी सियासत के दलदल में रहकर भी इससे अलग रहे. उन्होंने सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध नहीं किया. वे ख़ुद कहते हैं, स्वतंत्रता के बाद हमारी उपलब्धियां कम नहीं हैं. मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो आलोचना के लिए आलोचना करूं. मैं प्रतिपक्ष में हूं, पहले भी कह चुका हूं, स्वतंत्रता के बाद हमने कुछ नहीं किया, ये कहना ग़लत होगा.
उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में उसूलों को अहमियत दी. वे कहते हैं, मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैंने कभी सत्ता के लालच में सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया है, और न भविष्य में करूंगा. सत्ता का सहवास और विपक्ष का वनवास मेरे लिए एक जैसा है. मैं आपको आश्वासन देना चाहता हूं कि कितनी भी आपत्तियां आएं, हम वरदान के लिए झोली नहीं फैलाएंगे. आख़िरी क्षण तक वरदान की तलाश नहीं करेंगे, न मैं संघर्ष का रास्ता छोड़ूंगा.
अटलजी सादगी पसंद हैं. कामयाबी की बुलंदी पर पहुंच कर भी वह अहंकार से दूर हैं, नम्रता से परिपूर्ण हैं. उन्हीं के शब्दों में-
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना...
बहरहाल, उम्मीद है कि अटल जी की ज़िन्दगी पर आई अन्य किताबों के बीच यह किताब अपनी मौजूदगी दर्ज कराएगी.
(शायरा, लेखिका व पत्रकार)
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