डॊ. सौरभ मालवीय
सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॊ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणीय है. उन्हें बाबा साहेब के नाम से जाना जाता है. एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामजिक मसले पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था. उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया. वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है.
4 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव आंबेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे. वह हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे. इसके कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था. उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे. पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, लेकिन उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया, जो बाद में आंबेडकर हो गया.
पिता की स्वानिवृति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया. उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और बॉम्बे में जाकर बस गए. यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की. वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया. वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया. उन्हें गायकवाड़ के राजा सहयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी.
वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए. वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया. इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा. आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए. वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे. इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए. वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ’रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया. उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ साईंस’ की उपाधि प्रदान की गई. उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया. स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा. उन्हें 8 जून, 1927 कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई.
भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा. विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा. इस भेदभाव और निरादर ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई. उन्होंने छूआछूत के समूल नाश के लिए कार्य करने का प्रण लिया. उन्होंने कहा कि नीची जाति व जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए. उन्होंने देशभर में घूम-घूम कर दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक करने का कार्य किया. उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूक्नायका’ (लीडर ऑफ़ साइलेंट) प्रारंभ किया. एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक शाहूकर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसकी देशभर में चर्चा हुई. इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया.
वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की. अगले वर्ष 1937 के केन्द्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की. उन्होंने इस दल को ऒल इंडिया शिड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया. वह वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में खड़े हुए, किन्तु उन्हें असफलता मिली. वह रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे. वह देश के पहले कानून मंत्री बने. उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया.
भीमराव आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे. वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जाति एक दुसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता. यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए. हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं. एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है. राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं. जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं.यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए.
भीमराव आंबेडकर का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था. उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले. वह कहते थे- मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाये. वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए, जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए. स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध व उनके धर्म के बारे में पुस्तक लिखी. उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. उन्होंने वर्ष 1955 में भारतीय बौध्या महासभा की स्थापना की. उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को एक आम सभा का आयोजन किया, जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया. इसके कुछ समय पश्चात 6 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया. उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया. वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं.
बाबासाहब ने जीवनपर्यंत छूआछूत का विरोध किया. उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए. वह कहते है कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें. पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए.
निसंदेह, देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा.
सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॊ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणीय है. उन्हें बाबा साहेब के नाम से जाना जाता है. एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामजिक मसले पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था. उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया. वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है.
4 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव आंबेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे. वह हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे. इसके कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था. उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे. पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, लेकिन उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया, जो बाद में आंबेडकर हो गया.
पिता की स्वानिवृति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया. उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और बॉम्बे में जाकर बस गए. यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की. वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया. वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया. उन्हें गायकवाड़ के राजा सहयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी.
वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए. वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया. इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा. आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए. वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे. इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए. वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ’रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया. उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ साईंस’ की उपाधि प्रदान की गई. उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया. स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा. उन्हें 8 जून, 1927 कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई.
भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा. विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा. इस भेदभाव और निरादर ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई. उन्होंने छूआछूत के समूल नाश के लिए कार्य करने का प्रण लिया. उन्होंने कहा कि नीची जाति व जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए. उन्होंने देशभर में घूम-घूम कर दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक करने का कार्य किया. उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूक्नायका’ (लीडर ऑफ़ साइलेंट) प्रारंभ किया. एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक शाहूकर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसकी देशभर में चर्चा हुई. इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया.
वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की. अगले वर्ष 1937 के केन्द्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की. उन्होंने इस दल को ऒल इंडिया शिड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया. वह वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में खड़े हुए, किन्तु उन्हें असफलता मिली. वह रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे. वह देश के पहले कानून मंत्री बने. उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया.
भीमराव आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे. वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जाति एक दुसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता. यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए. हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं. एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है. राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं. जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं.यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए.
भीमराव आंबेडकर का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था. उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले. वह कहते थे- मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाये. वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए, जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए. स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध व उनके धर्म के बारे में पुस्तक लिखी. उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. उन्होंने वर्ष 1955 में भारतीय बौध्या महासभा की स्थापना की. उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को एक आम सभा का आयोजन किया, जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया. इसके कुछ समय पश्चात 6 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया. उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया. वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं.
बाबासाहब ने जीवनपर्यंत छूआछूत का विरोध किया. उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए. वह कहते है कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें. पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए.
निसंदेह, देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा.
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