Sunday, February 8, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण ही हम अपराजित हैं



डॉ. मुरली मनोहर जोशी
यह तो निर्विवाद ही है कि हिन्दुत्व भारत की वर्तमान राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन गया है।
कहते हैं सबसे पुराना यहूदी पूजा स्थल (साइनेगॉग) भारत में लगभग 2000 वर्ष पुराना है। पारसी ईरान से आये - सूफी, संत, विचारक और व्यापारी। कुछ आक्रमणकारी थे कुछ अन्य भी। अंत में सब एक देह के अंगी बने। भारत एक महामानव सागर बना। महाकवि रवीन्द्र ठाकुर के शब्दों में एई भारतेर महामानव सागर तीरे। इस्लाम को मानने वालों ने, जो इसी महामानव के अंग हैं, अलग उपासना पध्दति अपनायी पर अपने पुरखों से उन्होंने अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा था। उनमें से बहुतेरे अपने वंश के अनुसार मुसलमान, राजपूत, गूजर, चौहान आदि का उल्लेख गर्व से करते रहे हैं। इस देश में यूनान, फारस, अरब, मंगोल कौन नहीं आया? पर सब ने इस देश की संस्कृति को आत्मसात किया।जो लोग हिन्दुत्व को समझे बिना, उसके स्रोतों का अनुसंधान किये बिना पाश्चात्य लेखकों के अर्धपक्व ग्रंथों के आधार पर हिंदुत्व की आलोचना करते हैं उनके बारे में क्या कहा जाय? वस्तुत: यह मानसिकता नई नहीं है। अयोध्‍या एवं रामजन्मभूमि विवाद से भी यह नहीं उपजी।

सन् 1857 के बाद अंग्रेजों को यह अनुभव हुआ था कि भारत की राष्ट्रीयता की आधारशिला राजनीति नहीं थी वरन् उसका अधिष्ठान सांस्कृतिक था। प्राचीन संस्कृति और वाड्मय ने हिंदुओं को शिक्षा दी थी कि स्वदेश निर्जीव भूमि मात्र न होकर चैतन्यमयी मातृभूमि है। इस प्रकार देशभक्ति स्वधर्म का स्वरूप है। 1857 की लड़ाई में भारतवासियों ने पंथ, सम्प्रदाय, मजहब तथा जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर मातृभूमि पर ब्रिटिश आधिपत्य को चुनौती दी थी। अंग्रेज यह समझ गया कि भारत की सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रवाद के चलते भारत पर विजय असंभव है अत: उसने अपने आगे की नीति में इस सांस्कृतिक एकता को खंडित करने का सिध्दांत अपनाया। इसके बाद की ब्रिटिश नीति को जरा धयान से देखा जाय तो पता चलेगा कि साम्प्रदायिक परिवेश में हिन्दुत्व की परिभाषा ब्रिटिश कुटिलता की देन है। भारतीय जनमानस का मज़हब के आधार पर बंटवारा करने के बाद अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा प्रणाली और पाठयक्रम में आमूल परिवर्तन किये। चुन-चुन कर भारतीय कला-कौशल, शिल्प और उद्योगों को तबाह किया। ब्रिटिश संरक्षण में ईसाई मिशनरियों को धार्म परिवर्तन के लिए सुविधाएं दीं। इस प्रकार भारतीय मनोबल को हर प्रकार पराजित करने का प्रयत्न किया गया, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

ब्रिटिश दमनचक्र के बीच भारत का क्रांतिकारी आन्दोलन सक्रिय हुआ। यहां भी पंथ और मज़हब का कोई भेद नहीं था। पराधीन भारत में नवचेतना का संचार करने एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मन्त्र फूंकने का काम राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य बालगंगाधार तिलक, महर्षि श्री अरविन्द जैसे महानुभावों ने किया। इन क्रांतिकारियों का प्रेरणास्रोत कृष्ण की गीता थी। लक्ष्य मातृभूमि की स्वतंत्रता और वन्देमातरम् उनका राष्ट्रगान था। सैकड़ों युवकों ने इन प्रतीकों को लेकर मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये।

वस्तुत: देशभक्ति की यह अवधारणा भारतीय संस्कृति की अनूठी देन हैं। राष्ट्र का नियामक तत्व संस्कृति है। राजनीति उसका अधिष्ठान कभी नहीं रहा है। राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई है और राष्ट्रीयता उस संस्कृति से ही उद्भूत हुआ करती है। अत: भारत में राज्य सदा संस्कृति के संरक्षण का उपकरण रहा। जब राज्य ने संस्कृति के विरोध की भूमिका अपनाई उसी क्षण जनता ने उसे बदलने में कोई विलम्ब नहीं किया।

आज के परिप्रेक्ष्य में अगर इस बात को देखें तो दृष्टिगोचर होगा कि राष्ट्र का स्वर सांस्कृतिक एकता है। जबकि राज्य उस सांस्कृतिक एकता को गलत अर्थों में परिभाषित करके देश के एक समुदाय को विभाजन की ओर ले जा रहा है। अगर सारे भारतीय भारत की मूल सांस्कृतिक एकता की अनिवार्यता को समझकर एक पंक्ति में आ जायें तो विभेद नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति में सबकी विरासत एक होगी और भारतीय एकता के प्रतीक भारतमाता, वन्देमातरम्, भारत के महापुरुष, साधु, संत, सूफी, फकीर सब के सब सांझे होंगे। ''मेरा और तेरा'' के स्थान पर ''हमारा'' शब्द का प्रयोग होगा। थोड़े समय की बात है। भारतीय राजनीति के विभाजक तत्तव भारतीय संस्कृति की सर्वव्यापी सत्ता के समक्ष पराभूत हो जायेंगे।


हिंदुत्व की परिकल्पना विराट हैं। पहले कहा जा चुका है कि हिंदुत्व का सही आकलन सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है। उसे उपासना पध्दति तक सीमित करने की भूल के कारण अंग्रेजियत की मानसिकता वाले भटक रहे हैं। वेद, उपनिषद, आदि संकीर्णता या किसी संहिताबध्द मज़हब का प्रतिपादन नहीं करते, वरन् उनमें विराट मानव धर्म का प्रतिपादन किया गया है। उनमें ईश्वर की कल्पना ही विराट रूप में की गई हैं। ईश्वर शांत है, उसका स्वरूप शांत है वह गगन के सदृश विशाल है, वह एक है, वह बहुत भी हो जाता हैं, वह यहां-वहां सब जगह है और कहीं भी नहीं है। वह अणु-परमाणु से भी छोटा है और बड़ी से बड़ी जो कल्पना की जा सकती है वह उससे भी बड़ा है। वह सब प्राणियों में छोटे-बड़े ऊंच-नीच सभी में एक समान व्याप्त है। वह सबको शिवत्व की ओर ही नहीं वरन् शिव से भी श्रेयस्कर मन्तव्य पर ले जाता है। शिवाय च शिवतराय च। उसको प्राप्त करने का उपाय है समता के भाव को प्राप्त करना।

अपने परमात्मा को सर्वत्र देखना।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्चति।
सर्व मूतेष आत्मानं ततो न जुगुप्सति॥

यह है विराट हिन्दु संस्कृति। इसने नये विचारों का स्वागत किया। आ नो भद्रा: क्रतवोयन्तु विश्वत:। वस्तुत: कुछ ऐसा है ही नहीं जिसकी हिन्दु वाङ्मय में पूर्व कल्पना न की गयी हो। फिर भी हमारे यहां नये विचारों का समादर हुआ। यह आंगन इतना विराट है कि इसमें सभी के लिए जगह है। जो भी सताये हुए दुनिया के लोग थे, उनका भारतभूमि ने स्वागत किया। पृथ्वी सूक्त में देखिये :

जनं विभ्रति बहुधा विवाचसं
नाना धार्माणि पृथिवी यथौकसम्
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां
धरुवेव धेनुनपस्फुरन्ती

यह पृथ्वी अनेक प्रकार के जनों तथा अनेक धर्म एवं आस्था वाले जनों का भरण पोषण करती है। मानो वह एक शांतिपूर्ण गृह के वासी हों - ऐसी पृथ्वी पथ की सहस्त्रों धारा की तरह सौभाग्य की वर्षा करे।

ईश्वर के उस विराट रूप को कोई नाम नहीं दिया गया है। यह जगत जीव मात्र का उपास्य है क्योंकि चराचर सृष्टि उसकी उपज है। यह बात अनादिकाल से कही जा रही है और संतों-सत्पुरुषों ने अनेक रूपों में इसी सत्य का अनेक बार वर्णन किया है। गुरु ग्रंथ साहिब में बहुत सुंदर आरती आती है।

गगन में थाल रवि चंद दीपक बने
तारिका मंडल जनक मोती
धून मलियानलो पवन चंवर करे
सगल बनराय फूमंत जोती
कैसी आतरी होए भवखंडना तेरी आरती
अनहता शब्द बाजंत मेरी

विशाल गगन रूपी थाल में सूर्य और चंद्र दो दीपक हैं और तारा मंडल मोतियों की शोभा दे रहे हैं। मलय पर्वत की सुगंधित वायु आपको धूप का सुगंध दे रही है, पवन चंवर डुला रहा है। वचनों के वृक्षों के फूल आपको समर्पित हैं। अनहद, नाद मानों आपकी आरती का नाद है - हे भव खंडन कितनी अद्भुत आपकी आरती हो रही है।

यह है उस विराट की कल्पना जो भारत की संस्कृति को अनूठी पहचान और उदारता प्रदान करती है।

कहते हैं सबसे पुराना यहूदी पूजा स्थल (साइनेगॉग) भारत में लगभग 2000 वर्ष पुराना है। पारसी ईरान से आये - सूफी, संत, विचारक और व्यापारी। कुछ आक्रमणकारी थे कुछ अन्य भी। अंत में सब एक देह के अंगी बने। भारत एक महामानव सागर बना। महाकवि रवीन्द्र ठाकुर के शब्दों में एई भारतेर महामानव सागर तीरे। इस्लाम को मानने वालों ने, जो इसी महामानव के अंग हैं, अलग उपासना पध्दति अपनायी पर अपने पुरखों से उन्होंने अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा था। उनमें से बहुतेरे अपने वंश के अनुसार मुसलमान, राजपूत, गूजर, चौहान आदि का उल्लेख गर्व से करते रहे हैं। इस देश में यूनान, फारस, अरब, मंगोल कौन नहीं आया? पर सब ने इस देश की संस्कृति को आत्मसात किया।

राष्ट्रीयता और संस्कृति अविभाज्य हैं। मज़हब और उपासना पध्दतियों को इनसे जोड़ना भूल है। टर्की का उदाहरण हमारे सामने है। कमाल अतातुर्क क्रांतिकारी नेता थे। आज़ादी के बाद उन्होंने अपने नाम के पाशा को हटाकर अतातुर्क जोड़ा। अरबी का स्थान तुर्की ने ले लिया। उपासना पध्दति इस्लाम बनी रही। इस प्रकार टर्की ने अपने संस्कृति के प्रतीकों को पुन:स्थापित करके अपनी संस्कृति का पुनरुध्दार किया। स्मरण रखने की बात है कि संस्कृतियां बनाई नहीं जाती हैं, वह स्वत: प्रवाहमान होती हैं। पुरातन काल में हमारी संस्कृति को भारतीय संस्कृति या भारती कहते थे- वर्ष तत् भारत नाम भारती यत्र संतति। उस देश का नाम भारत है जिसकी संतति भारती है। भारती के पश्चिमी पड़ोसी इसकी पहचान सिंधु नदी के निकटवर्ती देश के रूप में करते थे। फारसी भाषा में ''स'' का उच्चारण ''ह'' हो जाने के कारण वह ''सिंधु'' को ''हिन्दू'' पुकारते थे। यथा सप्तसिंधु का उच्चारण ''हप्त हिन्दू'' हो गया था। प्राचीन फारसी में इस क्षेत्र का नाम ''हिन्दुश'' पुकारा जाता था। अत: भारत को ही हिन्दुस्थान कहा जाता था। इस प्रकार हिंदू संस्कृति एक दूसरे के पर्याय हो गये। यह भारतीय अथवा हिंदू संस्कृति एक दूसरे के पर्याय हो गये। यह भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति अछेद्य है और इसी से हर भारतीय की पहचान बनती है चाहे वह किसी भी मज़हब को मानने वाला हो।

भारत भूमि भारतीय मात्र की जननी है। सभी इस धरती को मस्तक झुका कर प्रणाम करते हैं। मरने पर यह धरती खाक को समेट लेती है। ऐसा नहीं है कि संस्कृति की प्रवाहमान धारा से मुसलमान पृथक रहे हैं। संतों-आचार्यों के साथ सूफियों और कबीर जैसे फकीरों ने संस्कृति को समृध्द बनाया है। बुल्लेशाह जैसे सूफी और कबीर जैसे निर्गुण संत की वाणियों का आदिग्रंथ जैसे ग्रन्थों में समावेश इसका प्रमाण है। मज़हबी मान्यता इसमें कोई बाधा नहीं बनी। इसलिये मज़हब को सांस्कृतिक विरासत से जोड़ना बुध्दिमानी नहीं है।

सारांश यह है कि मुसलमान, हिन्दू संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं। जो लोग इससे जुदा करने के प्रयत्न में लगे हैं वे पूरे भारतीय समाज के साथ द्रोह कर रहे हैं। मुस्लिम पृथकतावादी पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण और आज़ादी के बाद कांग्रेस तथा कट्टरपंथियों की सांठगांठ, वोट बैंक की राजनीति और कृत्रिम असुरक्षा भाव के कारण है। जब ये संकीर्ण लोग मुस्लिम सम्प्रदाय को राष्ट्र धारा के साथ बहने देंगे, मुस्लिम अल्पसंख्यक के स्थान पर बहुसंख्यक पंक्ति में आ जायेगा। तब वह अल्पसंख्यक की संकीर्णता और भय से मुक्त हो जायेगा। आज मज़हबी रहनुमा यह कह रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ा और ग़रीब है। ग़रीबी मज़हबी नहीं होती लेकिन मुस्लिम वर्गों को शिक्षा, संस्कृति, उद्योग तथा विकास के अन्य क्षेत्रों में पिछड़ा रखने की जितनी जिम्मेदारी कांग्रेस की है उतनी ही संकीर्ण मुस्लिम रहनुमाओं की भी है। विभाजन के समय समृध्द और शिक्षित नौकरी पेशा लोग पाकिस्तान चले गये। जो यहां रहे उन्होंने अपनी धन संपत्ति की हिफाज़त की। जो सम्पन्न थे उन्होंने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा केन्द्रों में शिक्षा दी। बाकी समाज को मज़हबी कट्टरपंथियों के हवाले कर दिया। दुर्भाग्य यह है कि आज़ादी के बाद मुसलमानों में कोई ऐसा नेतृत्व पैदा नहीं हुआ जो पूरे समाज को सही दिशा देता। इस प्रकार मुस्लिम वर्ग वोट बैंक तो बना पर उसे उसका फायदा कुछ नहीं मिला। उसे संकीर्ण प्रचार के द्वारा भारतीय संस्कृति की समृध्द परम्परा से काटने का जी तोड़ प्रयास किया गया जिसका परिणाम सामने है।

हमारा विश्वास है कि भ्रम के बादल छंटने वाले हैं। मुस्लिम समाज के अन्दर ही उदारवादी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है। इतना बड़ा मुस्लिम समाज ज्यादा देर तक मज़हब के नाम पर लोगों को अंधकार में रखने के प्रयत्न को बर्दाश्त नहीं करेगा। उसके अंदर ही समाज सुधार के स्वर मुखर हो रहे हैं। अपनी मज़हबी मान्यता और उपासना पध्दति को सुरक्षित रखते हुये मुस्लिम संप्रदाय आज नहीं तो कल सांस्कृतिक जागरण में हमारे साथ कंधे से कंधा मिला कर चलेगा और भारत की समृध्दि में अपना योगदान करेगा।
(लेखक भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व सांसद हैं)

2 टिप्पणियाँ:

सुशांत सिंघल said...

प्रिय बंधु,

विद्वान लेखक ने सामयिक विषय पर चिन्तन करने हेतु पर्याप्त सामग्री दी है।

लेख में एक स्थान पर दो अलग अलग पाठ्य एक दूसरे पर लदे हुए दिखाई दे रहे हैं - पता नहीं यह सिर्फ मेरे ब्राउज़र में ही किसी कमी के कारण है या पोस्ट में ही तकनीकी दोष है।

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी पोस्ट है।

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है