-डॊ. सौरभ मालवीय
`माई कंट्री माइ लाइफ´ बस नाम ही काफी है लेखक के उदात्त चित्त को समझने के लिए। राष्ट्रीय संवेदना से इतना एकाकार कि लेखक का जीवन ही देश का जीवन बन गया या राष्ट्र जीवन ही लेखक का प्राण तत्व हो गया। अनादिकाल के ऋषियों से लेकर प्रभु श्रीराम, श्रीकृष्ण, आचार्य चाणक्य, स्वामी विवेकानंद, योगी अरविन्द, हेडगेवार आदि समेत श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपनाम श्री गुरुजी तक लाखों महापुरुषों ने राष्ट्र को ऐसे ही जिया है। इनकी साधना से प्रकाशित होने पर ही भारत नाम धन्य होता है। पश्चिमोत्तर भारत के प्रमुख औद्योगिक केंद्र कराची के इस दिव्य प्रतिभाशाली पुत्र ने भारत को काल्पनिक स्वप्न में या मुंह में चांदी की चम्मच के साथ, नहीं जिया है, अपितु कांग्रेस की कापुंसता के कारण खंडित और आहत भारत माता की साक्षात पीड़ा से गुजरकर भारत को जिया है। भारत द्वेष की कुंठा से त्रस्त पश्चिमी इतिहास बोध की आंखों से वे न तो भारत जानते हैं न ही किसी एडविना के बांह पाश की क्रीड़ा भूमि भारत मानते हैं। इन्हीं कारणों से उनमें छत्रपति शिवाजी के समान अदम्य जीवट भर गया है जो वामपंथ के खोखले शब्द जालों और कांग्रेसियों द्वारा शैतानी छवि गढ़ने पर भी अपने भरपूर आत्मविश्वास से चमचमाता रहता है। उन्हें अपने हिन्दूपन पर भी गर्व है, क्योंकि वह `एक्सीडेंटल´ नहीं है, परंपरागत रूपेण श्रेष्ठ है।
विगत 60 वर्षों की राजनीतिक यात्रा में उन्होंने अजेय कीर्ति स्थापित की है। एक दूरगामी षड्यंत्र के अंतर्गत जब हवाला कांड में वे आरोपित हुए तो तत्काल त्यागपत्र देकर निर्दोष होने तक राजनीति में न आने का भीष्म संकल्प कर लिया। भारत के इतिहास में यह अप्रतिम और एकमेव है। स्वतंत्रता के बाद एक ही परिवार ने इस देश को मनमाने ढंग से हांकने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया औ इस मार्ग में सर्वाधिक सहायक चाटुकारों की फौज रही जो विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों पर अपने अन्नदाता का गुणगान करती रही। फलत: सामान्य देशवासी `हू इज आफटर नेहरू´ और `इंदिरा इज इंडिया´ के बाहर कुछ जान ही नहीं पाया। अन्यथा लोकमान्य तिलक, पंडित मदन मोहन मालवी, राजेंद्र बाबू, सुभाष चंद्र बोस, श्री अरविन्द घोष, डॉण् श्यामाप्रसाद मुखर्जी आचार्य जेबी कृपलानी, पुरुषोत्तम दास टंडन, जयप्रकाश बाबू, अम्बेडकर, निजलिगंप्पा, सरदार बल्लभ भाई पटेल इत्यादि सहस्रावधि महानायक पुस्तकालयों के खंडहर में नहीं समाहित हो गए होते। इसी छलकपट और सामाजिक वंचना के भ्रामक शिकार आडवाणी जी भी बने हैं। इसका सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संपूर्ण भारतवर्ष में लगभग तीन हजार सरकारी संस्थान और सड़कें केवल गांधी नेहरू वंश के नाम हैं।
पूर्वाग्रह ग्रस्त मीडिया का एक ज्वलंत प्रमाण यह है कि 18 नवंबर 2002 को संसद में श्री आडवाणी जी ने कहा था कि-
सन् 1947 में स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान अपने को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया परंतु उस समय भारत में किसी ने यह सुझाव तक नहीं दिया कि भारत भी एक हिन्दू राज्य होना चाहिए।´´
वरिष्ठ पत्रकार श्री एण् सूर्य प्रकाश ठीक ही कहते हैं कि-``यथार्थ और छवि के बीच की खाई छद्म पंथ-निरपेक्षता और छदम् लोकतांत्रिक परिवेश की उपज है जो नेहरू-गांधी परिवार के शुभचिंतकों की देन है।
परंतु यह दुर्योग ही था कि गैर तो गैर अपनों ने भी बिना कुछ आगा-पीछा सोचते हुए धरती सिर पर उठा ली। उनमें इतिहास बोध का स्पष्ट अभाव था। वे लोग सच में दया के पात्र हैं। उन्हें जिन्ना का पूर्व चरित्र और भारत विभाजन के गुनाहगारों का कुछ भी ज्ञान नहीं है।
श्री बी .वी कुलकर्णी लिखते हैं कि -जिन्ना स्वयं को जिन्ना भाई सुनकर प्रसन्न होते थे। वे कहते थे कि वह इस्लाम के ऐसे पंथ के अनुयायी हैं जो हिन्दुओं के दशावतारों को मानता है। उनके पंथ में अधिकांशत: उन्हीं सामाजिक परिपाटियों और संपत्ति संबंधी अधिकारों की परंपरा है जो हिन्दू समाज में प्रचलित है। वे मोतीलाल नेहरू से एक बार यहां तक कह दिया था कि ``वह मुल्लाओं की किसी बकवास में विश्वास नहीं करते, यद्यपि उन्हें किसी तरह इन मूर्खो को साथ में चलाना पड़ता है।
श्री अम्बेडकर जिन्ना के बारे में कहते हैं कि-
``उनका निष्ठावान या दीनी मुसलमान का रूप तो कभी नहीं रहा। जब कभी उन्हें विधानसभा की शपथ दिलाई जाती थी तभी वह कुरान को चूमते थे। इसमें भी संदेह है कि कभी उन्होंने उत्सुक्ता या श्रद्धावश किसी मिस्जद में अपने पैर रखे हों। वे कभी मजहबी या राजनीतिक मुस्लिम सम्मेलनों में नहीं देखे गए। अरबी, फारसी और उर्दू का तो उन्हें लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था।जिन्ना सगर्व कहते थे कि राजनीति की शिक्षा उन्होंने सुरेंद्रनाथ बनर्जी के चरणों में बैठकर ली है।
``जिन्ना में सत्यभाव है और वह सभी सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त है। अत: वे हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य हेतु सर्वोत्तम राजदूत सिद्ध होंगे।´´
जिन्ना ने ही लोकमान्य तिलक जी का मुकदमा स्वयं लड़ा था और उस दौरान वे तिलक जी की राष्ट्र भक्ति से इतना प्रभावित हुए कि उनके चेले बन गए। तिलक जी पर राजद्रोह के मुकदमे में जिन्ना ने सरकार की बोलती बंद कर दी थी।
रोजनी नाडयू ने लिखा है कि--``जिन्ना स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि उनकी प्रथम निष्ठा राष्ट्रीय हित के प्रति है।
जिन्ना ने अपनी राष्ट्रवादी प्रवृत्ति के कारण ही खिलाफत आंदोलन का विरोध किया। उन्होंने गांधी जी के 1920 वाले असहयोग आंदोलन का भी विरोध किया था, क्योंकि इसमें मुस्लिम तुष्टिकरण सिद्ध हो रहा था।
जिन्ना के राष्ट्रवादी चित्त से ही आगा खान उनका विरोध करते थे।
-द मेमाइर्स आफ आगा खान पृष्ठ ९४
-और देश बंट गया पृष्ठ ११६
एक बहुत बढ़िया अवसर इस देश ने खो दिया जो श्री लालकृष्ण आडवाणी ने उठाया था। जिन्ना के पंथ निरपेक्षता पर यदि पूरा राष्ट्र बहस में भिड़ जाता तो इन पाखंडियों की पोल खुल जाती जो स्वयमेव भारत का कर्णधार बने हुए हैं। पूरा विश्व इस सत्य को भी जान जाता कि किन-किन कारणों से जिन्ना पाकिस्तान के प्रति समर्पित हो गए। वह जिन्ना जो सुरेंद्रनाथ बनर्जी , लोकमान्य तिलक और गोखले जी को पूजते थे, जबकि उपयुZक्त नेतागण विशुद्ध हिन्दुत्व के पुरोधा थे।
इस बहस के बहाने स्वातंत्रय समर को भी पूरा खंगाल दिया गया होता और सच्चे मोती रत्न जवाहर देश के समक्ष उपलब्ध होते। नकली मुखौटे वाले नंगे होते और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का धर्माधििष्ठत नैिष्ठक शासन तंत्र स्थापित होता।
5 टिप्पणियाँ:
Saurabh Ji
Party mein apani pakad banaiye aur rajya sabha ka ticket le ligiye. Lekh wagairah apne jagah par thik lagata hai. Samay aa raha hai......
Subhkamnao ke saath
सुरेंदर जी से सहमत ,
भैया अगर राजनीती मैं कुछ बनना चाहते हो तो किसी कल्याण सिंह की कुसुम राय बनो . किस आडवानी की बात करते हो आज के अडवानी तो रीड विहीन हो चुके है
बहुत ही जानकारी परक लेख....बधाई
यह संग्रह तो कमाल का है। उदाहरणों के माध्यम ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद समझाने का तरीका बहुत ही कारगर है। आडवाणी जी का भारत के प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो, यही शुभकामना है।
ऋषि मत कहिये अडवाणी जी को, वरना अपेक्षाएं बहुत बढ़ जायेंगी. उन्हें एक आम आदमी की तरह देखिये जो भारत के करोड़ों आम आदमियों का ट्रस्टी बन कर इस देश का कुछ ऐसा पबंध कर सके जैसा भरत ने राम के लिए किया था.
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