आरिफ मोहम्मद खां
सर सैयद अहमद खां (1817-1898) किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हर साल 17 अक्टूबर को उनके जन्मदिन पर दुनिया भर में लोग इस महान सुधारक को याद करते हैं। सर सैयद के देहांत को एक शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है, परंतु शिक्षा, समाज तथा पंथ के विषयों पर उनकी रचनाएं आज भी पूर्णतया सामयिक और प्रासंगिक लगती हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित कर दिया उसका पूरा महत्व तभी समझा जा सकता है जब हम उस भयंकर विरोध तथा प्रतिरोध का ध्यान रखें जो उन्हें पंथ के स्वयंभू ठेकेदारों की तरफ से झेलना पड़ा। सर सैयद के पुत्र न्यायमूर्ति सैयद महमूद ने 1893 में अलीगढ़ में दिए अपने एक भाषण में कहा था कि जब 1824 में तत्कालीन कंपनी सरकार ने कोलकाता में एक संस्कृत विद्यालय खोलने की घोषणा की तो हिंदू नेताओं को यह नागवार गुजरा और उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि वह अधिक से अधिक अंग्रेजी कालेज खोले, ताकि नई पीढ़ी की आधुनिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो सके।
इसके विपरीत जब 11 साल बाद 1835 में सरकार ने सभी सार्वजनिक स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य की तो आठ हजार मौलवियों द्वारा हस्ताक्षरित एक ज्ञापन सरकार को सौंपा गया, जिसमें अंग्रेजी शिक्षा को तुरंत रोकने की मांग की गई थी। ज्ञापन में आरोप लगाया गया कि अंग्रेजी पढ़ाने के पीछे सरकार की मंशा उन्हें ईसाई बनाने की है। इसके बाद सरकार ने स्पष्ट घोषणा की कि पंथिक आस्था के मामले में सरकार पूरी तरह निष्पक्ष तथा तटस्थ है और मतांतरण से उसका कोई सरोकार नहीं है, लेकिन इस सफाई के बावजूद मौलवियों का विरोध बना रहा। उनका कहना था कि अंग्रेजी में पढ़ाया जाने वाला दर्शनशास्त्र तथा तर्कशास्त्र इस्लाम के पंथिक सिद्धांतों से टकराता है, अत: इस शिक्षा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
धार्मिक तटस्थता की सरकारी घोषणाओं को भी यह कहकर रद कर दिया गया कि यह चालाकीपूर्ण रणनीति है जिसका उद्देश्य मुसलिम धर्म को खत्म करना है। इसी के साथ मौलवियों द्वारा मुस्लिमों का आवाहन किया गया कि वे अपने बच्चों को इन स्कूलों में बिल्कुल न भेजें। मौलवियों द्वारा आधुनिक शिक्षा के विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय का जो नुकसान हुआ उसका विस्तृत ब्यौरा सर सैयद ने शिक्षा आयोग के सामने पेश किया। उन्होंने आयोग को बताया कि इस विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा का बहुत कम लाभ उठा सका है। उनके अनुसार 1858 से लेकर 1878 तक 20 वर्ष की अवधि में पास होने वाले स्नातकों की संख्या 3155 थी। इनमें केवल 57 ही मुसलमान थे। स्थिति इतनी खराब है कि जो मुस्लिम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं उन्हें काफिर कहा जाता है और उनके बहिष्कार की धमकी दी जाती है। सर सैयद यह जान गए थे कि मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए पंथिक वर्ग की कट्टरता तथा जड़ता जिम्मेदार है।
इस कट्टरता से मुक्ति पाए बगैर मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। यही कारण है कि 1875 में अलीगढ़ कालेज खुलने से पहले उन्होंने 1870 में तहजीबुल अखलाक नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। इसका उद्देश्य सामाजिक तथा पंथिक सुधार था। अगले छह वर्षो में इस पत्र में 222 लेख छपे, जिनमें 122 लेख सर सैयद ने स्वयं लिखे थे। इसके मुखपृष्ठ पर अरबी भाषा में एक पंक्ति छपी रहती थी, जिसका अर्थ है कि अपने राष्ट्र से प्रेम करना पंथिक आस्था का अनिवार्य तत्व है। तहजीबुल अखलाक के लेखों के पश्चात कट्टर पंथिक वर्ग की ओर से सर सैयद का विरोध और अधिक उग्र होता चला गया। सर सैयद को काफिर बताते हुए उनके खिलाफ साठ फतवे जारी किए गए। सर सैयद के जीवनी लेखक मौलाना हाली ने लिखा है कि इन फतवों को देखकर लगता है जैसे सभी आलिम शिया, सुन्नी, मुकल्लिद (परंपरावादी), गैर मुकल्लिद, वहाबी, बिदअती मतभेद भूलकर सर सैयद को काफिर बनाने के लिए इकट्ठे हो गए हों। मौलवी अली बख्श खां ने मक्का-मदीना की यात्रा की ताकि वहां से सर सैयद के कुफ्र की घोषणा कराई जा सके।
अली बख्श की पहल पर मक्के के चार मुफ्तियों ने फतवे जारी कर कहा कि यह शख्स खुद गुमराह है तथा दूसरों को गुमराह कर रहा है। यह शैतान का खलीफा है। इसको समझाना चाहिए। बाज आ जाए तो बेहतर, वरना इसको पिटाई और कैद की सजा दी जानी चाहिए। मदीना से जारी होने वाले फतवे में यह भी कहा गया, यह शख्स या तो नास्तिक है या फिर इस्लाम से कुफ्र की ओर चला गया है। अगर यह तौबा कर ले तो ठीक, वरना इसका कत्ल कर देना चाहिए। अलीगढ़ कालेज के बारे में कहा गया कि इस संस्था की सहायता करना गुनाह है। इसके संस्थापक तथा सहायकों को इस्लाम से निकाल देना चाहिए। इन फतवों के बाद सर सैयद ने बस इतना कहा कि मुझे खुशी है कि मेरे जैसे गुनहगार की वजह से मौलवी अली बख्श हज तो कर आए।
विरोध और फतवे सर सैयद के निश्चय और साहस को डिगा नहीं सके। उन्होंने एक लेख में लिखा कि वह आलिम जो धर्म का मर्म जानते थे आज नापैद हो गए हैं, अब जो हैं वे तो इस्लाम का भजन गाकर रोटी कमाने वाले और अपना दोजख भरने के लिए तमाम दुनिया को दोजख में भेजने वाले बाकी रह गए। समाज सुधार के विषय में उन्होंने लिखा कि मैं इस विचार से सहमत नहीं कि सामूहिक कार्यक्रम द्वारा सामाजिक बुराइयों को खत्म किया जा सकता है। सुधार के लिए सहमति नहीं प्रतिरोध तथा साहस और धैर्य की आवश्यकता है। सुधार की इच्छा करने वाले को अपने समुदाय की रीति रिवाज का उल्लंघन करना पड़ेगा। उसे बहुत से विरोधों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन अंतत: लोग उसकी बात मानेंगे। क्या अब समय नहीं आ गया है जब हम इस महान सुधारक को शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि उसके पद-चिन्हों पर चलकर श्रद्धासुमन अर्पित करें। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
1 टिप्पणियाँ:
bahut hee achcha lekh.
Aashchrya hai ki jis kee sthapana sir sayyad jaise vichrak ne kee, vahee Aligarh university pakistaan banane valon aur azadee ke baad bhee deshdrohiyon ka adda kaise ban
gayee ? is par bhee vichar ho.
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