Friday, October 13, 2023

भारतीय संस्कृति में गाय को माता के रूप में पूजा जाता है



-डॊ. सौरभ मालवीय

वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में गाय का विशेष महत्व है.  भारतीय संस्कृति में जिस गाय को पूजनीय कहा गया है, आज उसी गाय को भूखा-प्यासा सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है. लोग अपने घरों में कुत्ते तो पाल लेते हैं, लेकिन उनके पास गाय के नाम की एक रोटी तक नहीं है. छोटे गांव-कस्बों की बात तो दूर देश की राजधानी दिल्ली में गाय को कूड़ा-कर्कट खाते हुए देखा जा सकता है. प्लास्टिक और पॊलिथीन खा लेने के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती है. भारतीय राजनीति में जाति, पंथ और धर्म से ऊपर होकर लोकतंत्र और पर्यावरण की भी चिंता होनी चाहिए. गाय की रक्षा, सुरक्षा बहस का मुद्दा आख़िर क्यों बनाया जा रहा है?

धार्मिक ग्रंथों में गाय को पूजनीय माना गया है. श्रीकृष्ण को गाय से विशेष लगाव था. उनकी प्रतिमाओं के साथ गाय देखी जा सकती है. 
बिप्र धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार॥
अर्थात ब्राह्मण (प्रबुद्ध जन) धेनु (गाय) सूर (देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरित होते हैं. परमात्मा स्वयं के इच्छा से निर्मित होते हैं और मायातीत, गुणातीत एवम् इन्द्रीयातीत इसमें गाय तत्व इतना महत्वपूर्ण है कि वह सबका आश्रय है. गाय में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास रहता है. इसलिए गाय का प्रत्येक अंग पूज्यनीय माना जाता है. गो सेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते हैं. गाय सरलता शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है. गऊ माता की पीठ में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते हैं, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महार्षि बसते हैं. सभी दानों में गो दान सर्वधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.

गाय को भारतीय मनीषा में माता केवल इसीलिए नहीं कहा कि हम उसका दूध पीते हैं. मां इसलिए भी नहीं कहा कि उसके बछड़े हमारे लिए कृषि कार्य में श्रेष्ठ रहते हैं, अपितु हमने मां इसलिए कहा है कि गाय की आंख का वात्सल्य सृष्टि के सभी प्राणियों की आंखों से अधिक आकर्षक होता है. अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस गाय की आंखों और उसके वात्सल्य संवेदनाओं की महत्ता स्वीकारने लगे हैं. ऋषियों का ऐसा मंतव्य है कि गाय की आंखों में प्रीति पूर्ण ढंग से आंख डालकर देखने से सहज ध्यान फलित होता है. श्रीकृष्ण भगवान को भगवान बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका गायों की ही थी. स्वयं ऋषियों का यह अनुभव है कि गाय की संगति में रहने से तितिक्षा की प्राप्ति होती है. गाय तितिक्षा की मूर्ति होती है. इसी कारण गाय को धर्म की जननी कहते हैं. धर्मग्रंथों में सभी गाय की पूजा को महत्वपूर्ण बताया गया है. हर धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश और देवी पार्वती को गाय के गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है. 

परोपकारय दुहन्ति गाव:
अर्थात यह परोपकारिणी है. गाय की सेवा करने से से परम पुण्य की प्राप्ति होती है. मानव मन की कामनाओं को पूर्ण करने के कारण इसे कामधेनु कहा जाता है. 
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा।।
ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि।
मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि।।

उल्लेखनीय यह भी है कि ज्योतिष शास्त्र में नव ग्रहों के अशुभ फल से मुक्ति पाने के लिए गाय से संबंधित उपाय ही बताए जाते जाते हैं. हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय ईश्वर का श्रेष्ठ उपहार है. भारतीय परम्परा के पूज्य पशुओं में गाय को सर्वोपरि माना जाता है. गाय से संबंधित गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है. यह कार्तिक शुक्ल की अष्टमी को मनाया जाता है, इस कारण इसका नाम गोपाष्टमी पड़ा. इस पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन किया जाता है. गाय की परिक्रमा कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है. गोवर्धन के दिन गोबर को जलाकर उसकी पूजा और परिक्रमा की जाती है. धार्मिक प्रवृत्ति के बहुत लोग प्रतिदिन गाय की पूजा करते हैं. भोजन के समय पहली रोटी गाय के लिए निकालने की भी परंपरा है. 

भारत में प्राचीन काल से ही गाय का विशेष महत्व रहा है. मानव जाति की समृद्धि को गौ-वंश की समृद्धि की दृष्टि से जोड़ा जाता है. जिसके पास जितनी अधिक गायें होती थीं, उसे समाज में उतना ही समृद्ध माना जाता था. प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं की अपनी गौशालाएं होती थीं, जिनकी व्यवस्था वे स्वयं देखते थे. विजय प्राप्त होने, कन्याओं के विवाह तथा अन्य मंगल उत्सवों पर गाय उपहार स्वरूप या दान स्वरूप दी जाती थीं. 

गोहत्या को पापा माना जाता है, जिनका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है. 
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ 

भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥

गाय संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है. एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल गायों की संख्या 13 खरब है. गाय से उत्तम प्रकार का दूध प्राप्त होता है, जो मां के दूध के समान ही माना जाता है. जिन बच्चों को किसी कारण वश उनकी माता का दूध नहीं मिलता, उन्हें गाय का दूध पिलाया जाता है. 
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में गाय की 30 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें सायवाल जाति, सिंधी, कांकरेज, मालवी, नागौरी, थरपारकर, पवांर, भगनाड़ी, दज्जल, गावलाव, हरियाना, अंगोल या नीलोर और राठ, गीर, देवनी, नीमाड़ी, अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी, वत्सप्रधान, कंगायम, कृष्णवल्ली आदि प्रजातियों की गाय सम्मिलित हैं. गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होती है. इसीलिए गाय का दूध अमृत के समान माना जाता है. गाय के दूध से बने घी-मक्खन से मानव शरीर पुष्ट बनता है. गाय का गोबर उपले बनाने के काम आता है, जो अच्छा ईंधन है. गोबर से जैविक खाद भी बनाई जाती है. इसके मूत्र से भी कई रोगों का उपचार किया जा रहा है. यह अच्छा कीटनाशक भी है.

वास्तव में गाय को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की बजाय राजनीति से जोड़ दिया गया है, जिसके कारण इसे जबरन बहस का विषय बना दिया गया. गाय सबके लिए उपयोगी है. इसलिए गाय पर बहस करने की बजाय इसके संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह सड़कों पर विचरती गायों के लिए गौशालाओं का निर्माण कराए.

Thursday, October 12, 2023

हिन्दुत्व एक जीवन दर्शन है

 





हिन्दू शब्द का प्रयोग कब प्रारंभ हुआ यह बताना कठिन है. परंतु यह सत्य है कि हिन्दू शब्द अत्यंत प्राचीन वैदिक वाङ्मय के ग्रन्थों मे साक्षात् नहीं पाया जाता है. परन्तु यह भी निर्विवाद है कि हिन्दू शब्द का मूल निश्चित रूप से वेदादि प्राचीन ग्रन्थों में विद्यमान है.

भारत में हिन्दू नाम की उपासना पद्धति है ही नही यहां तो कोई वैष्णव है या शैव अथवा शक्य है कबीरपंथी है सिख है आर्यसमाजी है जैन और बौद्ध है. वैष्णवों में भी उपासना के अनेक भेद हैं. अर्थात् जितने व्यक्ति उपासना और आस्था की उतनी ही विधियां हर विधि को समाज से स्वीकारोक्ति प्राप्त है. पश्चिम के राजनीतिज्ञ व समाजशात्री  भारतीय संस्कृति और समाज के इस पक्ष को या तो समझ ही नहीं सके या उन्होने पश्चिमी अवधारणाओं के बने सांचों में ही भारत को ढ़ालने का प्रयास किया.


अनेक सज्जनों द्वारा विभिन्न प्रकार की व्याख्याओं से यह शब्द भी विवादित हो गया है. यद्यपि यह शब्द भारत का ही पर्याय है और यह जीवन पद्धति की ओर इंगित करता है. विख्यात स्तम्भकार पद्म श्री मुजफ्फर हुसैन कहते हैं -

‘‘भारतीयता तो भारत की नागरिकता है, भारत की राष्ट्रीयता हिन्दुत्व है.’’

ऐसा भी प्रचारित किया गया है कि हिन्दू नाम अपमानजनक   है जैसा कि भारतीय फारसी के शब्दकोशों में मिलता है. इनमें हिन्दू का अर्थ द्वेषवश, काला, चोर आदि किया गया है जो कि पूर्णतया असत्य है. अरबी व फारसी भाषा में ‘हिन्द’ का अर्थ है ‘सुन्दर’ एवं ‘भारत का रहने वाला’ आदि. हिंदू चिंतक श्री कृष्णवल्लभ पालीवाल बताते हैं कि जब 1980-82 में, मैं बगदाद में ईराक सरकार का वैज्ञानिक सलाहकार था तो मुझे वहां यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अनेक युवक व युवतियों के नाम ‘अलहिन्द’ व ‘विनत हिन्द’ थे. तो मैंने आश्चर्यवश उनसे पूछा कि ये नाम तो हिन्दुओं जैसे लगते है जिसका अर्थ है ‘सुन्दर’ और इसी भाव में हमारे ये नाम है.

कुछ लोगों ने अपने को ‘हिन्दू’ न कहकर ‘आर्य‘ कहना ज्यादा उचित समझा है, किंतु रामकोश में सुस्पष्ट लिखा है कि-

हिन्दूर्दुष्टो न भवति नानार्याे न विदूषकः।

सद्धर्म पालको विद्वान् श्रौत धर्म परायणः।।

यानी ‘‘हिन्दू दुष्ट, दुर्जन व निन्दक नहीं होता है. वह तो सद्धर्म का पालक, सदाचारी, विद्वान, वैदिक धर्म में निष्ठावान और आर्य होता है.“ अतः हिन्दू ही आर्य है और आर्य ही हिन्दू है. समय की मांग है कि हम इस विवाद को भूलकर मिल जुलकर हिन्दू धर्म व हिन्दू संस्कृति को उन्नत करने और हिन्दू राज्य स्थापित करने प्रयास करें.


स्वामी विज्ञानानन्द ने हिन्दू नाम की उत्पति के विषय में कहा कि हमारा हिन्दू नाम हजारों वर्षों से चला आ रहा है जिसके वेदो संस्कृत व लौकिक साहित्य में व्यापक प्रमाण मिलते है. अतः हिन्दू नाम पूर्णतया वैदिक, भारतीय और गर्व करने योग्य है. वस्तुतः यह नाम हमें विदेशियों ने नहीं दिया है बल्कि उन्होंने अपने अरबी व फारसी भाषा के साहित्य में उच्च भाव में प्रयोग किया है.

शताब्दियों से सम्पूर्ण भारतीय समाज ‘‘हिन्दू“ नाम को अपने धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं जातिय समुदाय के सम्बोधन के लिए गर्व से प्रयोग करता रहा है. आज भारत ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में बसे करोड़ों हिन्दू अपने को हिन्दू कहने में गर्व अनुभव करते हैं. वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने धर्म एवं संस्कृति से प्रेरणा पाकर असीम सफलता प्राप्त कर रहे हैं. वे हिन्दू जीवन मूल्यों से स्फूर्ति पाकर समता और कर्मठता के आधार पर, भारत में ही नहीं, विदेशों में भी, अपनी श्रेष्ठता का परिचय दे रहे हैं. वे श्रेष्ठ मानवीय जीवन मूल्यों के आधार पर समाज में प्रतिष्ठित भी हो रहे है.


हिन्दू पुनर्जागरण के पुरोधा महर्षि दयानन्द सरस्वती, युवा हिन्दू सम्राट स्वामी विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, योगी श्री अरविंद, भाई परमानन्द, स्वातान्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर आदि महापुरुषों ने ‘हिन्दू’ नाम को गर्व के साथ स्वीकार कर आदर प्रदान किया है. स्वामी विवेकानन्द एवं स्वातन्त्र्य वीर सावरकर ने हिन्दू नाम के विरूद्ध चलाए जा रहे मिथ्या कुप्रचार का पूर्ण सामथ्र्य से विरोध किया. सावरकर जी ने प्राचीन भारतीय शास्त्रों के आधार पर इस नाम की मौलिकता को बड़ी प्रामाणिता के साथ पुनः स्थापित किया तथा बल देकर सिद्ध किया कि ‘‘हिन्दू नाम पूर्णतया भारतीय है जिसका मूल वेदों का प्रसिद्ध ‘सिन्धु’ शब्द है.’

हिन्दू शब्द का प्रयोग कब प्रारम्भ हुआ, इसकी निश्चित तिथि बताना कठिन अथवा विवादास्पद होगा. परन्तु यह सत्य है कि हिन्दू शब्द अत्यन्त प्राचीन वैदिक वाङ्मय के ग्रन्थों में साक्षात् नहीं पाया जाता है. परन्तु यह भी निर्विवाद है कि हिन्दू शब्द का मूल निश्चित रूप से वेदादि प्राचीन ग्रन्थों में विद्यमान है. औपनिषदिको काल के प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं मध्यकालीन साहित्य में हिन्दू शब्द पार्यप्त मात्रा में मिलता है. अनेक विद्वानों का मत है कि हिन्दू शब्द प्राचीन काल से सामान्य जनों की व्यावहारिक भाषा में प्रयुक्त होता रहा है. जब प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग साहित्यिक भाषा के रूप में होने लगा, उस समय सर्वत्र प्रचलित हिन्दू शब्द का प्रयोग संस्कृत ग्रन्थों में होने लगा. ब्राहिस्र्पत्य कालिका पुराण, कवि कोश, राम कोश, कोश, मेदिनी कोश, शब्द कल्पद्रुम, मेरूतन्त्र, पारिजात हरण नाटक, भविष्य पुराण, अग्निपुराण और वायु पुराणादि संस्कृत ग्रंन्थों में हिन्दू शब्द जाति अर्थ में सुस्पष्ट मिलता है.


इससे यह स्पष्ट होता है कि इन संस्कृत ग्रन्थों के रचना काल से पहले भी हिन्दू शब्द का जन समुदाय में प्रयोग होता था.

संस्कृत साहित्य में ‘हिन्दू’ शब्द

संस्कृत साहित्य में पाए गए हिन्दू शब्द प्रस्तुत है-

हिंसया दूयते यश्च सदाचरण तत्परः।

वेद… हिन्दू मुख शब्दभाक्।।

(वृद्ध स्मृति)

‘‘जो सदाचारी वैदिक मार्ग पर पर चलने वाला, हिंसा से दुःख मानने वाला है, वह हिन्दू है.“

बलिना कलिनाच्छन्ने धर्मे कवलिते कलौ।

यावनैर वनीक्रान्ता, हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्।।

(कालिका पुराण)

‘जब बलवान कलिकाल ने सबको प्रच्च्छन्न कर दिया और धर्म उसका ग्रास बन गया तथा पृथ्वी यवनों से आक्रान्त हो गई, तब हिन्दू खिसककर विन्ध्याचल की ओर चले गए.’’

इसी प्रकार का भाव यह श्लोक भी प्रकट करता हैः

यवनैरवनी क्रान्ता, हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्।

बलिना वेदमार्र्गायं कलिना कवलीकृतः।।

(शार्ङ्धर पद्धति)

‘यवनों के आक्रमण से हिन्दू विन्ध्याचल पर्वत की ओर चले गए.’

हिन्दूः हिन्दूश्च प्रसिद्धौ दुष्टानां च विघर्षणे.

(अमर कोश)

‘हिन्दू’ और ‘हिन्दू’ दोनों शब्द दुष्टों को विघर्षित करने वाले अर्थ में प्रसिद्ध हैं.’

‘‘हिन्दू सद्धर्म पालको विद्वान् श्रौत धर्म परायणः।

(राम कोश)

हिन्दूः हिन्दूश्च हिन्दवः।

(मेदिनी कोश)

“हिन्दू, हिन्दू और हिन्दुत्व तीनों एकार्थक है.’

हिन्दू धर्म प्रलोप्तारौ जायन्ते चक्रवर्तिनः।

हीनश्च दूषयप्येव स हिन्दूरित्युच्यते प्रिये।।

(मेरु तन्त्र)

‘‘हे प्रिये! हिन्दू धर्म को प्रलुप्त करने वाले चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हो रहे हैं. जो हीन कर्म व हीनता का त्याग करता है, वह हिन्दू कहा जाता है.’’

हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान् दुष्टमानसान्।

हेतिभिः शत्रुवर्गः च स हिन्दूः अभिधीयते।।

(परिजातहरण नाटक)

‘जो अपनी तपस्या से दैहिक पापों को दूषित करने वाले दोषों का नाश करता है, तथा  अपने शत्रु समुदाय का भी संहार करता है, वह हिन्दू है.’

हीनं दूषयति इति हिन्दू जाति विशेषः

(शब्द कल्पद्रुमः)

‘हीन कर्म का त्याग करने वाले को हिन्दू कहते हं.’

इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि प्राचीन एवं अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में हिन्दू शब्द का पर्याप्त उल्लेख के साथ  साथ हिन्दू के लक्षणों को भी दर्शाया गया है.


लेखक ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर शोध किया है। 

Wednesday, October 11, 2023

आपातकाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

 



-डॉ. सौरभ मालवीय  

आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद एवं अलोकतांत्रिक काल कहा जाता है। आपातकाल को 48 वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु हर वर्ष जून मास आते ही इसका स्मरण ताजा हो जाता है। इसके साथ ही आपातकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका भी स्मरण हो जाती है। संघ ने आपातकाल का कड़ा विरोध किया था। संघ के हजारों कार्यकर्ता जेल गए थे एवं बहुत से कार्यकर्ताओं ने बलिदान दिया था।         

 

उल्लेखनीय है कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया था कि इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में अनुचित तरीके अपनाए। न्यायालय ने उन्हें दोषी ठहराते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया था। इंदिरा गांधी के चुनाव क्षेत्र रायबरेली से उनके प्रतिद्वंदी राज नारायण थे। यद्यपि चुनाव परिणाम में इंदिरा गांधी को विजयी घोषित किया गया था। किन्तु इस चुनाव में पराजित हुए राज नारायण चुनावी प्रक्रिया से संतुष्टं नहीं थे। उन्हों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इंदिरा के विरुद्ध याचिका दाखिल करते हुए उन पर चुनाव जीतने के लिए अनुचित साधन अपनाने का आरोप लगाया। उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का अनुचित उपयोग किया है। 

 

25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। यह आपातकाल  21 मार्च 1977 तक रहा। इस समयावधि में नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। सभी स्तर के चुनाव भी स्थगित कर दिए गए। सत्ता विरोधियों को बंदी बना लिया गया। प्रेस पर भी प्रतिबंधित लगा दिया गया। पत्रकार भी बंदी बनाए गए। श्रीमती इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी के नेतृत्व में पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया। कहा जाता है कि इस अभियान में अविवाहित युवकों की भी जबरन नसबंदी कर दी गई। इससे लोगों में सत्ता पक्ष के प्रति भारी क्रोध उत्पन्न हो गया।    

 

माणिकचंद्र वाजपेयी अपनी पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा में लिखते हैं- “कांग्रेस ने 20 जून, 1975 के दिन एक विशाल रैली का आयोजन किया तथा इस रैली में देवकांतबरुआ ने कहा था, “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय” और इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।“ 

 

जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल का विरोध किया। उन्होंने इसे 'भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि' कहा। माणिकचंद्र वाजपेयी आगे लिखते हैं- “जयप्रकाश नारायण जी ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख 25 जून, 1975 को कहा, “सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहां तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जाएगी।” लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने वहीं पर उत्साह के साथ घोषणा कर दी, “इसके बाद इंदिराजी के त्यागपत्र की मांग लेकर गांव-गांव में सभाएं की जाएंगी और राष्ट्रपति के निवास स्थान के सामने 29 जून से प्रतिदिन सत्याग्रह होगा।” उसी संध्या को जब रामलीला मैदान की विशाल जनसभा से हजारों लोग लौट रहे थे, तब प्रत्येक धूलिकण से मानो यही मांग उठ रही थी कि “प्रधानमंत्री त्यागपत्र दें और वास्तविक गणतंत्र की परम्परा का पालन करें।“  

 आपातकाल के कारण जनता त्राहिमाम कर रही थी। एच वी शेषाद्री की पुस्तक कृतिरूप संघ दर्शन के अनुसार सभी प्रकार की संचार व्यवस्था, यथा- समाचार-पत्र- पत्रिकाओं, मंच, डाक सेवा और निर्वाचित विधान मंडलों को ठप्प कर दिया गया। प्रश्न था कि इसी स्थिति में जन आंदोलन को कौन संगठित करे? इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता था। संघ का देश भर में शाखाओं का अपना जाल था और वही इस भूमिका को निभा सकता था। संघ ने प्रारम्भ से ही जन से जन के संपर्क की प्रविधि से अपना निर्माण किया है। जन संपर्क के लिए वह  प्रेस अथवा मंच पर कभी भी निर्भर नहीं रहा। अतः संचार माध्यमों को ठप्प करने का प्रभाव अन्य दलों पर तो पड़ा, पर संघ पर उसका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। अखिल भारतीय स्तर के उसके केन्द्रीय निर्णय, प्रांत, विभाग, जिला और तहसील के स्तरों से होते हुए गांव तक पहुच जाते हैं। जब आपात घोषणा हुई और जब तक आपातकाल चला, उस बीच संघ की यह संचार व्यवस्था सुचारू ढंग से चली। भूमिगत आंदोलन के ताने-बाने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के घर महानतम वरदान सिद्ध हुए और इसके कारण ही गुप्तचर अधिकारी भूमिगत कार्यकर्ताओं के ठोर ठिकाने का पता नहीं लगा सके। 

 सर संघचालक बालासाहब देवरस को 30 जून को नागपुर स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पूर्व उन्होंने आह्वान किया था कि इस असाधारण परिस्थिति में स्वयंसेवकों का दायित्व है कि वे अपना संतुलन न खोयें। सर कार्यवाह माधवराव मुले तथा उनके द्वारा नियुक्त अधिकारी के आदेशानुसार संघ-कार्य जारी रखें तथा यथापूर्व जनसंपर्क, जनजागृति और जनशिक्षा का कार्य करते हुए अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन करने की क्षमता जनसाधारण में निर्माण करें। संघ कार्यकर्ताओं ने उनके आह्वान के अनुसार ही कार्य किया।    

 आपातकाल की घोषणा के कुछ दिन पश्चात 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लोक संघर्ष समिति द्वारा आयोजित आपातकाल विरोधी संघर्ष में एक लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल एक लाख 30 हजार सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। मीसा के अधीन जो 30 हजार लोग बंदी बनाए गए, उनमें से 25 हजार से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांशतः बंदीगृहों और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीर सागर भी थे। 

 सत्ता पक्ष के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को संघ के पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं ने जारी रखा। मोहनलाल रुस्तगी की पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा के अनुसार श्री जयप्रकाश नारायण ने अपनी गिरफ्तारी से पूर्व 'लोक संघर्ष समिति' का आन्दोलन चलाने के लिए 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के पूर्णकालिक कार्यकर्ता श्री नानाजी देशमुख को जिम्मेदारी सौंपी थी। जब नानाजी देशमुख गिरफ्तार हो गए तो नेतृत्व की जिम्मेदारी श्री सुन्दर सिंह भण्डारी को सर्वसम्मति से सौंपी गई। आपातकाल लगाने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से देश को सचेत रखने के लिए तथा जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए भूमिगत कार्य के लिए संघ के कार्यकर्ता तय किए गए।

संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता की नीतियों के विरोध में सत्याग्रह किया। इस कड़ी में 9 अगस्त,1975 को मेरठ नगर में सत्याग्रह किया गया। उसी दिन मुजफ्फरपुर में जगह- जगह जोरदार ध्वनि करने वाले पटाखे फोड़े गए। तत्पश्चात 15 अगस्त,1975 को लाल किले पर जब प्रधानमंत्री भाषण देने के लिए माइक की ओर बढीं उसी समय जनता के बीच से 50 सत्याग्रहियों ने नारे लगाए और पर्चे वितरित किए। इसके पश्चात 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के सामने महात्मा गांधी की समाधि पर सत्याग्रह किया गया।  28 अक्टूबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सांसदों का एक दल जब दिल्ली आया था, तब कार्यकर्ताओं ने उन्हें आपातकाल विरोधी साहित्य वितरित किया। 14 नवंबर, 1975 को प्रधानमंत्री के सामने नेहरू की समाधि के पास आपातकाल के विरोध में नारे लगाए गए। 24 नवंबर 1975 को अखिल भारतीय शिक्षक सम्मेलन में प्रधानमंत्री के सामने मंच पर जाकर सत्याग्राहियों ने पर्चे बित्रित किए और तानाशाही के विरोध में नारे लगाए। 7 दिसम्बर, 1975 को ग्वालियर में महान संगीतज्ञ तानसेन की समाधि पर सत्याग्रह किया गया। उस दिन रजत जयंती के कार्यक्रम का आयोजन था। 12 दिसम्बर, 1975 को दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद की मूर्ति के सामने सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा सत्याग्रह किया गया। बंबई की मिलों में मजदूरों द्वारा सत्याग्रह किया गया।

 आपातकाल से कांग्रेस को बहुत हानि हुई। जनता में सरकार की छवि धूमिल होने लगी तथा उसके प्रति आक्रोश बढ़ता गया। इसके दृष्टिगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके चुनाव करवाने की अनुशंसा कर दी। 

चुनाव में कांग्रेस पराजित हो गई। स्वयं इंदिरा गांधी अपने क्षेत्र रायबरेली से चुनाव में पराजित हो गईं। जनता पार्टी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस प्रकार स्वतंत्रता के पश्चात प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। नई केंद्र सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए निर्णयों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया। शाह कमीशन में अपनी रिपोर्ट में आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं का उल्लेख करते हुए शासन व्यवस्था को हुई हानि पर चिंता व्यक्त की। 

 

वास्तव में आपातकाल कांग्रेस के लिए हानिकारक रहा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आपातकाल का जमकर विरोध किया। इसके कारण उसे सत्ता के क्रोध का दंश झेलना पड़ा, किन्तु आपातकाल के दौरान संघ द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों ने लोगों में उसे विख्यात कर दिया। इस प्रकार लोकतंत्र की विजय घोष के साथ संघ बढ़ता गया।

 


 

Saturday, October 7, 2023

भारतीय संस्कृति में जीवन मूल्य

 

 

                      


 डॉ . सौरभ मालवीय 

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां की संस्कृति सबसे प्राचीन है। जिस समय विश्व के अनेक देश असभ्य थे, उस समय भी भारत की संस्कृति अपने उच्च स्थान पर विराजमान थी। भारत एक ऐसा देश है, जहां कण-कण का महत्त्व है। यहां के लोगों की मान्यता है कि कण-कण में ईश्वर का वास है। यहां पर्वतों, वृक्षों, पौधों, नदियों, कुंओं एवं पशुओं आदि को पूजा जाता है। यहां पूर्वजों को पूजने की परम्परा है। उनके चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। नारी को शक्ति का प्रतीक माना जाता है। नारी को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। कन्याओं को देवी मानकर नवरात्रि में उनकी पूजा की जाती है। ये सब संस्कारों के कारण ही होता है। मनुष्य के जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हीं के अनुसार व्यवहार करता है।

 

वास्तव में हमारी प्राचीन गौरवशाली संस्कृति में संस्कारों का विशेष महत्त्व है। बालकों को बाल्यकाल से ही संस्कार दिए जाते हैं, जो उनके मन एवं मस्तिष्क में रच बस जाते हैं। उदाहरण के लिए मातृवत् परदारेषुअर्थात् पराई स्त्री को मां के समान समझो। यह एक अति उत्तम संस्कार है। ऐसे संस्कारों से उनके चरित्र का निर्माण होता है। वे अपने परिवार की महिलाओं के साथ-साथ अन्य महिलाओं का भी मान-सम्मान करते हैं। उनके लिए उनके मन में आदर और सत्कार का भाव पैदा होता है। ऐसी स्थिति में वे वासना जैसे अवगुण से बचे रहते हैं। इसी प्रकार बालकों को सिखाया जाता है कि परद्रव्याणि लोष्ठवत्अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। ऐसे उत्तम संस्कार के कारण उनके मन में लालच उत्पन्न नहीं होता तथा वह परोपकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार उन्हें सिखाया जाता है कि आत्मवत् सर्वभूतेषुअर्थात् सभी को अपने समान या अपनी आत्मा से जुड़ा समझो। इस संस्कार के कारण समस्त प्राणियों के लिए उनके मन में दया भाव पैदा होता है। इसी प्रकारवसुधैव कुटुम्बकम्सनातन धर्म का मूल संस्कार है। यह महा उपनिषद सहित अनेक ग्रन्थों में लिखा हुआ है। इसका अर्थ है कि धरती ही परिवार है। इस संस्कार के कारण व्यक्ति पूरे विश्व को अपना परिवार मानता है तथा इसमें निवास करने वाले सभी मानवों के प्रति वह बन्धुत्व की भावना रखता है।

  

वास्तव में किसी भी समाज को चिरस्थायी प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई कोई व्यवस्था देनी ही पड़ती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से अधिक चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है, जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि के प्रति अगाध श्रद्धा हो। मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है, वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिंतनीय विषय सहस्रों वर्ष पूर्व से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके।

संस्कार क्या है?

संस्कार शब्द का मूल अर्थ है- शुद्धीकरण अर्थात् संस्कार शुद्धीकरण की एक प्रक्रिया है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि किसी दोषयुक्त वस्तु को दोष रहित करना ही संस्कार है अर्थात् जिस प्रक्रिया से वस्तु को दोष रहित किया जाए, उसमें अतिशय का आदान करना ही संस्कारकहलाता है। संस्कार मन:शोधन की एक प्रक्रिया है। संस्कार को सजावट से जोड़कर भी देखा जा सकता है अर्थात् किसी वस्तु को सजाना ही संस्कार है। संस्कार ही मनुष्य को देव तुल्य बनाते हैं। संस्कारवान मनुष्य मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करता है।  

 

गौतम धर्मसूत्र के अनुसार- “संस्कार उसे कहते हैं, जिससे दोष हटते हैं और गुणों की वृद्धि होती है।

मनु स्मृति के अनुसार-

वैदिकै: कर्ममि: पुण्यैनिषेकादिद्वि जन्मानाम

कार्य: शरीर संस्कार: पावन: प्रेत्य चेह ।।

अर्थात् मनुष्य के जीवन को नियमित पवित्र एवं गुणवान बनाने के लिए भारतीय वैदिक ऋषियों ने जीवन को धार्मिक कृत्यों से संबद्ध कर दिया है। मानव के जन्म से पूर्व से मृत्यु के पश्चात तक होने वाले धार्मिक कृत्यों को संस्कार कहा जाता है।         

 

आयुर्वेद के जनक महर्षि आचार्य चरक के अनुसार-

संस्कारोहि गुणान्तराधानम् उच्चते

अर्थात् यह प्रभाव भिन्न है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।

 

अंगिरा ऋषि के अनुसार-

चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते षनैः।

ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।

अर्थात् जिस प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से शनै- शनै निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से मनुष्य को ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।

 

पद्मपुराण में भगवान वेद व्यास मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-

चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां वर्जयेत्।

वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।।

अर्थात् स्वयं की प्रशंसा करने वाला, भगवान की निंदा करने वाला, वेदों को मानने वाला इसकी निंदा करने वाला तथा दूसरों की सदैव निंदा करने वाले का शीघ्र ही विनाश हो जाता है।

 

प्राचीन गौरवशाली भारत के ऋषि-मुनियों के अनुसार जीवात्मा अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही नई योनि में जन्म लेती है आर्थात पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुरूप ही जीव नया शरीर धारण करता है। इसलिए जीवात्मा सर्वथा संस्कारों की दास होती है। मीमांसा दर्शनकार के अनुसार- कर्मबीज संस्कार: अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है तथा तन्न्मित्ता सृष्टि:अर्थात् वही सृष्टि का आदि कारण है।

 

भारतीय ऋषियों ने इस संबंध में गहन चिंतन-मनन किया। आयुर्वेद के वंदनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं-

संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते

अर्थात् यह प्रभाव भिन्न है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।

राजबली पाण्डेय के अनुसार- “वास्तव में संस्कार-व्यंजक तथा प्रतीकात्मक अनुष्ठान है। उनमें बहुत से अभिनयात्मक उद्गार और धर्म, वैज्ञानिक मुद्रायें एवं इंगित पाई जाती है।"

आचार्य जैमिनी के अनुसार- " संस्कार वह प्रक्रिया है जिसके करने से पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य को करने के योग्य हो जाता है।"

 

वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से संपन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शास्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सुविचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसंपन्नता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यंत मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है। प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं, तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता, तब तक वह व्यक्ति आर्षेय नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य-कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक हैं। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाते हैं। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं, क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है, तो परिभाषा कौन करेगा। अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख- दुख हानि- लाभ, जीवन- मरण, यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से अधिक विचार ही नहीं करता। उसका तो आनंद परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम, ईश्वर प्रणिधान, स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होती है।

 

संस्कारों से अनुप्राणित व्यक्ति की सत्य की खोज एक सनातन यात्रा बन जाती है। और वह प्राप्त सत्य केवल एक भीतरी आनंद देता है, जिसकी ऊर्जा से आपलावित होकर व्यक्ति समाज और मानवता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। उस सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि वे शब्द छोटे पड़ जाते और जो अनुभूति है वह इतनी विराट है कि अनादि, अनंत। इस अनंत को मानव शब्दों में कैसे पकड़ सकता है, वहां तो सबकुछ अद्वैत हो जाता है।नारद भक्ति सूत्रमें आता है कि सत्य एक है, वह अद्वैत है। साधारण ढंग से देखने पर दर्शक, दृश्य और द्रष्टा या ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान तीन दिखाई देते हैं। थोड़ी और गहराई में दो ही बच जाते हैं, परन्तु सत्य तो यह है कि वह केवल अद्वैत है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिट जाते हैं। केवल ज्ञान बच जाता है।

तस्या ज्ञान मेव साधनमृत्यके

(नारद भक्ति सूत्र 28)

यह संस्कार वही ज्ञान है, इस त्रिभंग से मुक्त होना ही संस्कार का परिणाम है। ऊपरी तौर पर भी हिन्दू संस्कृति ने इसकी बड़ी सुंदर व्यवस्था रखी ही है। कुंभ मेले में अमृत रसपान हेतु लाखों लोग लाखों वर्षों से एकत्र होते रहते हैं। वहां भी वे दृश्य गंगा और यमुना में स्नान करते हैं, लेकिन अनुभूति तो अदृश्य सरस्वती की होती है। यह सरस्वती ही ज्ञान है। यही संस्कार का सुफल है। यह सरस्वती दृश्यमान नहीं है। अनुभूति जन्य है। इस सरस्वती को व्याख्यायित करना संभव ही नहीं है, केवल कुछ लक्षणों को पकड़ा जा सकता है। यह अद्भुत प्रेम है, जिसमें प्रेमी और प्रेयसी दोनों डूब जाते हैं। केवल प्रेम बच जाता है। यह प्रेम केवल करने से समझ में आता है। शब्दों से इसका स्वाद नहीं मिल पाएगा।

 

प्रेमैव कार्यम् प्रेमैव कार्यम्।।

यही संस्कार है। यूं तो प्रत्येक समाज अपने घटकों को सुसंस्कारित करने का प्रयास करता है। उसके लिए आदर्श भी रखता है। संस्कार की परिधि इतनी व्यापक है कि उसमें श्वास प्रश्वास से लेकर प्रत्येक कर्म समाविष्ट है।

ब्राह्सस्कारसंसकृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां

समानलोकतां सामयोज्यतां गच्छति

दैवेनोत्तरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां

समानलोकतां सायोज्यतां गच्छति

(हारित संहिता)

संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है। वह ऋषि लोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देव तुल्य हो जाता है। वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर को प्राप्त करता है।

अव्याकृत किंतु अनुभव गम्य संस्कारों के फूल जिसके हृदय में खिले हैं और जिसकी पवित्र सुगंध वातावरण को मुग्धकारी बना देती है उन ऋषियों ने लोक कल्याण हेतु संस्कारों के लक्षण कहने का प्रयास किया है। यद्यपि वे अनुभोक्ता अपने आनन्द को शब्दों में परिभाषित तो नहीं कर सकते। फिर भी कुछ संकेत उन्होंने उसी दिशा में दिए हैं, जिससे प्राणी मात्र उसी का अनुसरण कर अपना लौकिक और पारलौकिक उन्नयन कर सके।

 

संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः

प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत च।।

(महाभारत)

जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन औैर इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती।

 

संस्कारों से ही मानव के आचरण पवित्र होते हैं।

आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः

हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति।।

 

सभी शास्त्रों का यह निश्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।

 

संस्कारों के प्रयोजन पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि यही एक माध्यम है जब हम परम सत्य की अनुभूति को कल्याणकारी और लोकरंजक बना सकते हैं।

उपायः सोडवताराय

(मांडूक्यकारीका)

सत्यं शिवं सुंदरम् में मनोयोग ही सृष्टि का प्रयोजन है और इस परम प्राप्ति का एकमेव कारण संस्कार है।

 

संस्कार कितने हैं? 

हिन्दू धर्म में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। यहां गर्भ से लेकर मृत्यु के उपरान्त तक के लिए अनेक संस्कार हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। व्यक्ति के जीवन में कुल कितने संस्कार होते हैं? इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं है, क्योंकि इस सम्बन्ध मे शास्त्रों में भिन्नता हैं। विद्वानों ने संस्कारों की भिन्न-भिन्न विद्वानों संख्या बताई है।

गौतम धर्म सूत्र में व्यक्ति के लिए 40 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। महर्षि अंगिरा के अनुसार 25 संस्कार हैं। पारस्कर गृहसूत्र, वाराह गृहसूत्र, मनुस्मृति तथा बौधायन गृहसूत्र में कुल 13 संस्कारों का उल्लेख किया गया है। दस कर्मपद्धति के अनुसार 10 संस्कार हैं। कुछ धर्म ग्रंथों में 11 तथा कुछ में 18 संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है।

किन्तु वेद का कर्म मीमांसा दर्शन के अनुसार 16 संस्कार होते हैं। समाज में इसी संख्या की मान्यता अधिक है। वास्तव में संस्कार अनेक प्रकार के होते हैं, परन्तु मुख्य 16 संस्कार हैं, जिनमें गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमान्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, चूड़ाकर्म संस्कार, कर्ण वेधन संस्कार, उपनयन संस्कार, वेदारम्भ संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अन्त्येष्टि संस्कार सम्मिलित हैं।

 

विद्वानों का मानना है कि प्राचीन काल में व्यक्ति के लिए 40 संस्कार होते थे, परन्तु समय के साथ इनकी संख्या कम होती गई। किन्तु भारतीय संस्कृति में इन संस्कारों का आज भी विशेष महत्त्व है। आज के आधुनिक युग में भी भारतीय लोग अपने संस्कारों से जुड़े हुए हैं। आज के भौतिकतावादी युग में लोगों की जीवन शैली में अत्यधिक परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन सब ओर दिखाई देता है। किन्तु संस्कारों के मामले में लोग आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। वे गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु पश्चात के अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध संस्कार का विधिवत पालन करते हैं। विवाह संस्कार तो अत्यधिक हर्षोल्लास से संपन्न होता है। इसी प्रकार अन्य संस्कार भी विधिवत पूर्ण किए जाते हैं। इन संस्कारों के मध्य वानप्रस्थ संस्कार तथा संन्यास संस्कार अब लुप्त हो गए हैं।

 

आचारः परमो धर्म

आचारः परमं तपः।

आचारः परमं ज्ञानम्

आचरात् किं साध्यते॥

सदाचरण सबसे बड़ा धर्म है, सदाचरण सबसे बड़ा तप है, सदाचरण सबसे बड़ा ज्ञान है, सदाचरण से क्या प्राप्त नहीं किया जा सकता है?       

 

वास्तव में भारतीय संस्कृति के अनुसार आत्मा अजर- अमर है। यह तो शरीर है, जो अपने कर्मों के आधार पर रूप धारण करता है अर्थात एक योनि से दूसरी योनि को प्राप्त करता है। जीवात्मा को मनुष्य योनि बहुत ताप के पश्चात ही प्राप्त होती है, इसलिए मोक्ष प्राप्त करने के लिए संस्कारों का पालन करना अति आवश्यक है।  

 

खेद का विषय है कि आज कुछ लोग पाश्चात्य कल्चर की अंधी दौड़ में सम्मिलित होकर अपनी ही संस्कृति एवं संस्कारों का उपहास उड़ाने लगे हैं। उन्हें अपनी संस्कृति तुच्छ लगती है तथा विदेशी कल्चर श्रेष्ठ लगता है। उन्हें अपनी भाषा बुरी लगती है और विदेशी भाषा अच्छी लगती है। उन्हें भारतीय पारंपरिक परिधान भी लज्जाजनक लगते हैं तथा विदेशी परिधान सम्मानजनक लगते हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि हम अपनी जड़ों से कट रहे हैं। यदि यही स्थिति रही तो इससे हमारी संस्कृति को ह्रास होगा। हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए अपने बालकों को उत्तम संस्कार देने होंगे। बाल्यकाल में सिखाई गई बातें बालकों को जीवनपर्यन्त स्मरण रहती हैं। संस्कार मनुष्य के जीवन को श्रेठ बनाते हैं। इसलिए जीवन में संस्कारों को अत्यधिक महत्त्व देना चाहिए।      

  

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है