गुरु बिन ज्ञान न
उपजै
-डॉ. सौरभ मालवीय
हमारे जीवन में गुरु
अथवा शिक्षक का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
गुरु
ज्ञान का भंडार होता है। वह हमें ज्ञान देता
है, हमारा
पाठ आलोकित करता है। ज्ञान वह अमूल्य वस्तु
है, जिसे कोई चुरा नहीं
सकता। ज्ञान ऐसा कोश है, जिसमें से जितना
व्यय करो वह उतना ही बढ़ता जाता है।
गुरु
ही हमारे जीवन का मार्गदर्शन करता है।
हमारे
जीवन को दिशा प्रदान करता है।
हमारी
प्राचीन गौरवशाली भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान
किया गया है। हमारे वेदों,
पुराणों,
उपनिषदों,
रामायण
एवं गीता आदि में गुरु की
महिमा का गुणगान किया गया है।
भारतीय
संस्कृति में गुरु को भगवान के समान पूज्य माना गया है।
गुरुर्ब्रह्मा
गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म
तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थात
गुरु
ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है तथा
गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं नमस्कार
करता हूं।
गुरु की सेवा करने
वाले लोगों को कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता। रामायण में ऋषि बाल्मीकि ने गुरु सेवा
का उल्लेख करते हुए कहा है-
स्वर्गो धनं वा धान्यं
वा विद्या पुत्राः सुखानि च।
गुरु वृत्युनुरोधेन
न किंचितदपि दुर्लभम्।।
अर्थात गुरुजनों की
सेवा करने से स्वर्ग, धन-धान्य, विद्या, पुत्र, सुख आदि कुछ भी
दुर्लभ नहीं है। अत: हमें अपने गुरु को
सेवा करनी चाहिए। कहने का अभिपाय यह
है कि गुरु की सेवा करने से सबकुछ प्राप्त होता है। गुरु की सेवा करने से देवगण भी
प्रसन्न होते हैं तथा परमधाम प्राप्त होता है।
जीवन में गुरु का
बहुत ऊंचा स्थान होता है। कोई भी गुरु का ऋण
नहीं चुका सकता। प्रत्येक वह
व्यक्ति गुरु हो, जो हमें ज्ञान देता
है, भले ही वह एक अक्षर
का ज्ञान हो।
एकमप्यक्षरं यस्तु
गुरुः शिष्ये निवेदयेत्।
पृथिव्यां नास्ति
तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्।।
अर्थात गुरु शिष्य
को एक अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में
पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जिसे देकर वह गुरु के ऋण में
से मुक्त हो सके।
संत कबीर ने गुरु
को भगवान से भी ऊंचा स्थान दिया है। वह कहते हैं-
गुरु गोविन्द दोऊ
खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु अपने
गोबिन्द दियो बताय।।
अर्थात गुरु और गोविन्द
एक साथ खड़े हों तो किसके पैर स्पर्श करने करना चाहिए, गुरु के अथवा गोविन्द के?
ऐसी
स्थिति में गुरु के चरणों में शीश झुकाना चाहिए, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का
दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
गुरु के बिना
मनुष्य को न ज्ञान प्राप्त हो सकता है और न ही वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। संत कबीर कहते हैं-
गुरु बिन ज्ञान न
उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न
सत्य को गुरु बिन मिटै न दोष।।
अर्थात हे सांसरिक
प्राणियो। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असम्भव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रूपी
अंधकार में भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बंधनों में जकड़ा रहता है जब तक उसे गुरु
की कृपा प्राप्त नहीं होती। मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले गुरु ही हैं। गुरु के बिना
सत्य एवं असत्य का ज्ञान नहीं होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता। फिर बिना गुरु के मोक्ष
कैसे प्राप्त हो सकता है?
संत शिरोमणि गोस्वामी
तुलसीदास भी कहते हैं कि गुरु के बिना कोई भी भवसागर पार नहीं कर सकता-
गुर बिनु भवनिधि
तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम
होई॥
अर्थात कोई व्यक्ति
ब्रह्मा एवं भगवान शंकर के समान
ही क्यों न हो, फिर भी वह गुरु के
बिना भवसागर पार नहीं कर सकता।
गोस्वामी तुलसीदास
कहते हैं कि वह गुरु ही है,
जो
अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है-
बंदउं गुरु पद कंज
कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज
जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात गुरु को हरि
का रूप माना गया है। हम सदैव अपने गुरु के चरण कमलों की वंदना करते हैं। जिस
प्रकार सूर्य के उदय होने से सारा अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गुरु हमारे मोह-रूपी अंधकार को
समाप्त कर देता है।
गुरु कौन होता है? 'गु'
शब्द
का अर्थ है अंधकार एवं 'रु'
शब्द
का अर्थ है प्रकाश। अर्थात जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाए, वही गुरु है। मनुस्मृति में गुरु
की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
निषेकादिनी कर्माणि
यः करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन
स विप्रो गुरुरुच्यते।।
अर्थात जो विप्र
आदि संस्कारों को यथा विधि करता है एवं अन्न से पोषण करता है वह गुरु
कहलाता
है। इस परिभाषा के अनुसार पिता प्रथम गुरु है,
तत्पश्चात
पुरोहित एवं शिक्षक आदि गुरु
हैं। मंत्रदाता को भी गुरु कहा जाता है। अर्थात प्रत्येक
वह व्यक्ति गुरु कहलाने के योग्य है,
जिससे
शिक्षा प्राप्त होती है।
जो ज्ञान प्रदान
करता है तथा बुरे कार्यों से रोकता है वह गुरु है। गुरु सदैव कल्याण चाहता है।
निवर्तयत्यन्यजनं
प्रमादतः
स्वयं च निष्पापपथे
प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं
हितमिच्छुरंगिनाम्
शिवार्थिनां यः स
गुरु र्निगद्यते।।
अर्थात जो किसी के
भी प्रमाद अर्था मद को करने से रोकते हैं,
स्वयं
कभी भी निष्पाप पथ पर चलकर दूसरों के लिए हित एवं
कल्याण की भावना रखते हैं, उसे तत्वबोध करवाते
हैं, उन्हें ही गुरु कहा
जाता है।
हमारी संस्कृति में
गुरु का कार्य केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित नहीं था। गुरु अपने शिष्य का संरक्षक होता था।
शिक्षक के अपने
विद्यार्थियों के प्रति अनेक कर्तव्य हैं। जिस प्रकार अच्छी
शिक्षा देना शिक्षक का कर्तव्य है,
उसी
प्रकार अच्छी शिक्षा प्राप्त करना विद्यार्थी का पूर्ण अधिकार है। इसलिए शिक्षक को
उस विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए,
जो
वह विद्यार्थियों को पढ़ा रहा है। इसके अतरिक्त
शिक्षक में वह सभी गुण होने चाहिए,
जिससे
वह विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण कर सके।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता
च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः
सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।
अर्थात धर्म के
ज्ञाता, धर्म के अनुसार
आचरण करने वाले, धर्मपरायण तथा सभी प्रकार
से शास्त्रों में से तत्वों के आदेश को धारण करने वाले को गुरु कहते हैं। अत: शिक्षक को सदाचारी
होना चाहिए। उसे धर्म के अनुसार
व्यवहार करना चाहिए। उसे सभी
विद्यार्थियों के साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए।
शिक्षक को गुणवान
होना चाहिए। यदि शिक्षा गुणवान
होगा, तो वह
विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क पर अच्छा
प्रभाव डाल पाएगा।
विद्वत्त्वं दक्षता
शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः
सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।
अर्थात ज्ञान,
योग्यता,
शिष्टता,
सहानुभूति,
अनुनय,
विवेक
तथा प्रसन्नता-
ये
एक शिक्षक के सात गुण हैं। शिक्षक को चाहिए कि वे इन गुणों को धारण करे। ऐसा शिक्षक ही
अपने विद्यार्थियों के जीवन को उज्जवल बनाने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
जिस प्रकार शिक्षक
के विद्यार्थियों के प्रति कर्तव्य हैं,
ठीक
उसी प्रकार विद्यार्थियों के भी अपने शिक्षक के प्रति कर्तव्य हैं। विद्यार्थियों को
चाहिए कि वे अपने शिक्षकों का आदर करें। उनके आदेश का पालन
करें। अनुशासन का पालन
करें।
नीचं शय्यासनं
चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षु
र्विषये न यथेष्टासनो भवेत्।।
अर्थात गुरु की
उपस्थिति में शिष्य का आसन गुरु के आसन से नीचे होना चाहिए। जब गुरु उपस्थित हो,
तब
शिष्य को सही प्रकार से बैठना चाहिए। अत:
उसे
मर्यादित व्यवहार करना चाहिए। गुरु का सम्मान
करने वाला विद्यार्थी ही शिक्षा का सदुपयोग कर पाता है, अन्यथा उसकी शिक्षा
व्यर्थ चली जाती है। अर्थात उसकी
शिक्षा उसे लाभ नहीं दे पाती।
हमारे जीवन में
गुरु का स्थान माता-पिता से भी ऊंचा होता
है। माता-पिता जन्म देते हैं
तथा पालन-पोषण करते हैं, किन्तु गुरु जीवन
जीने की कला सिखाता है। गुरु द्वारा बताए
मार्ग पर चलकर ही वह अपनी सदगति को प्राप्त करता है। विद्यालयों में होने वाली प्रात: कालीन प्रार्थना
में विद्यार्थियों को
यही संदेश दिया जाता है कि गुरु उनके सबकुछ हैं।
त्वमेव माता च पिता
त्वमेव।
त्वमेव बन्धुश्च
सखा त्वमेव।।
त्वमेव विद्या
द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्व मम
देवदेव।।
अर्थात हे प्रभु,
तुम
ही माता हो, तुम ही मेरे पिता
भी हो, बंधु भी तुम ही हो,
सखा
भी तुम ही हो। तुम ही मेरे लिए विद्या, तुम ही देवता भी हो। हे देवों के देव! तुम ही
मेरे
लिए सब कुछ हो।
उल्लेखनीय है कि विश्वभर
में शिक्षकों को सम्मान देने के लिए शिक्षक दिवस मनाने का चलन है। हमारे देश भारत
में प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक
दिवस के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में 5 सितंबर को महान
शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली
राधाकृष्णनन की जयंती है। उनकी जयंती को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने
का उद्देश्य शिक्षकों के प्रति सम्मान व्यक्त करना है।
शिक्षक दिवस मनाने
का उद्देश्य भी यही है कि विद्यार्थी अपने शिक्षकों को वह आदर-सत्कार दें, जिसके वे अधिकारी
हैं। इस दिन विद्यार्थी
अपने शिक्षाओं को उपहार एवं शुभकामनाएं देकर अपना प्रेम एवं श्रद्धा प्रकट करते
हैं। शिक्षक दिवस के
अवसर पर देशभर में विभिन्न समारोहों का आयोजन कर शिक्षकों को उनके उत्कृष्ट
कार्यों के लिए पुरस्कृत किया जाता है। हर वर्ष राष्ट्रीय
शिक्षक पुरस्कार के लिए देशभर से शिक्षकों को चुना जाता है, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत
किया जाता है।
इस वर्ष
इस पुरस्कार के लिए देश के विभिन्न भागों से 46 शिक्षिकों
को शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए चुना गया है। इनमें खुर्शीद
अहमद- उत्तर
प्रदेश से, प्रदीप
नेगी और कौस्तुभ चंद्र जोशी- उत्तराखंड से, सुनीता
और दुर्गा राम मुवाल- राजस्थान
से, नीरज
सक्सेना और ओम प्रकाश पाटीदार- मध्य प्रदेश से, सौरभ
सुमन और निशि कुमारी- बिहार से, जी पोंसकरी और उमेश टीपी- कर्नाटक से, माला
जिगदल दोरजी और सिद्धार्थ योनज़ोन- सिक्किम से, युद्धवीर, वीरेंद्र कुमार और अमित कुमार- हिमाचल प्रदेश से, हरप्रीत
सिंह, अरुण
कुमार गर्ग और वंदना शाही- पंजाब से, शशिकांत
संभाजीराव कुलठे, सोमनाथ
वामन वाके और कविता सांघवी- महाराष्ट्र-से, कंडाला रमैया, टीएन
श्रीधर और सुनीता राव- तेलंगाना
से, अंजू
दहिया- हरियाणा
से, रजनी
शर्मा- दिल्ली
से, सीमा
रानी- चंडीगढ़
से, मारिया
मुरेना मिरांडा- गोवा से, उमेश भरतभाई वाला- गुजरात से, ममता अहर- छत्तीसगढ़ से, ईश्वर चंद्र नायक- ओडिशा से, बुद्धदेव
दत्ता- पश्चिम
बंगाल से, जाविद
अहमद राथर- जम्मू
और कश्मीर से, मोहम्मद
जाबिर- लद्दाख
से, मिमी
योशी-
नागालैंड से, नोंगमैथेम
गौतम सिंह- मणिपुर
से, गमची
टिमरे आर मारक- मेघालय
से, संतोष
नाथ-
त्रिपुरा से, मीनाक्षी
गोस्वामी- असम से, शिप्रा- झारखंड
से, रंजन
कुमार विश्वास- अंडमान
और निकोबार से, अरविंदराजा-
पुदुचेरी से, रामचंद्रन-
तमिलनाडु से तथा रवि अरुणा- आंध्र प्रदेश से हैं।
( लेखक- मीडिया प्राध्यापक
एवं राजनीतिक विश्लेषक है। )
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