Monday, April 24, 2017

राष्ट्र की अस्मिता का गीत


सौरभ मालवीय
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. फिर अपनी मातृभूमि से प्रेम क्यों नहीं ? अपनी मातृभूमि की अस्मिता से संबद्ध प्रतीक चिन्हों से घृणा क्यों? प्रश्न अनेक हैं, परंतु उत्तर कोई नहीं. प्रश्न है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का. क्यों कुछ लोग इसका इतना विरोध करते हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जिस भूमि पर रहते हैं, जिस राष्ट्र में निवास करते हैं, यह उसी राष्ट्र का गीत है, उस राष्ट्र की महिमा का गीत है?

वंदे मातरम को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होते रहे हैं, परंतु इसकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती चली गई.  2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है. इस सर्वेक्षण विश्व के लगभग सात हज़ार गीतों को चुना गया था. बीबीसी के अनुसार 155 देशों और द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था.  उल्लेखनीय है कि विगत दिनों कर्नाटक विधानसभा के इतिहास में पहली बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही राष्ट्रगीत वंदे मातरम के साथ शुरू हुई. अधिकारियों के अनुसार कई विधानसभा सदस्यों के सुझावों के बाद यह निर्णय लिया गया था. विधानसभा अध्यक्ष कागोदू थिमप्पा ने कहा था कि लोकसभा और राज्यसभा में वंदे मातरम गाया जाता है और सदस्य बसवराज रायारेड्डी ने इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव दिया था, जिसे आम-सहमति से स्वीकार कर लिया गया.

वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. वंदे मातरम बहुत लंबी रचना है, जिसमें मां दुर्गा की शक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है. उल्लेखनीय है कि 1870 के दौरान ब्रिटिश शासन ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था. बंकिमचंद्र चटर्जी को इससे बहुत दुख पहुंचा. उस समय वह एक सरकारी अधिकारी थे. उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में वंदे मातरम की रचना की. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया. 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया. वास्तव में बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को सम्मिलित कर लिया. उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया, अर्थात बाद में जोड़े गए भाग में ही दशप्रहरणधारिणी, कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं. बाद में इस गीत को लेकर विवाद पैदा हो गया.



वंदे मातरम स्वतंत्रता संग्राम में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था. इसके बावजूद इसे राष्ट्रगान के रूप में नहीं चुना गया. वंदे मातरम के स्थान पर वर्ष 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जॊर्ज पंचम के सम्मान में रबींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे और गाये गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि कुछ मुसलमानों को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति थी. उनका कहना था कि वंदे मातरम में मूर्ति पूजा का उल्लेख है, इसलिए इसे गाना उनके धर्म के विरुद्ध है. इसके अतिरिक्त यह गीत जिस आनंद मठ से लिया गया है, वह मुसलमानों के विरुद्ध लिखा गया है. इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है.  1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठे. कुछ मुसलमानों की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने इस पर विचार-विमर्श किया. पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव भी शामिल थे. समिति का मानना था कि इस गीत के प्रथम दो पदों में मातृभूमि की प्रशंसा की गई है, जबकि बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का उल्लेख किया गया है. समिति ने 28 अक्टूबर, 1937 को कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस गीत के प्रारंभिक दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा. इस समिति का मार्गदर्शन रबींद्रनाथ ठाकुर ने किया था. मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारंभिक दो पदों का गीत वंदे मातरम राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ. 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ वंदे मातरम के साथ हुआ. फिर 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध वंदे मातरम के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था. डॊ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी, 1950 को  वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया.  वंदे मातरम को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर यह  गीत गाया जाता है. आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों का प्रसारण वंदे मातरम से ही होता है. वर्ष 1882 में प्रकाशित इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितंबर, 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया था. इसलिए वर्ष 2005 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर साल भर समारोह का आयोजन किया गया. 7 सितंबर, 2006 को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया था.  इसके बाद देशभर में वंदे मातरम का विरोध प्रारंभ हो गया. परिणामस्वरूप तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को संसद में यह वक्तव्य देना पड़ा कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है. यह व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह वंदे मातरम गाये अथवा न गाये. इस तरह कुछ दिन के लिए यह मामला थमा अवश्य, परंतु वंदे मातरम के गायन को लेकर उठा विवाद अब तक समाप्त नहीं हुआ है. जब भी वंदे मातरम के गायन की बात आती है, तभी इसके विरोध में स्वर सुनाई देने लगते हैं. इस गीत के पहले दो पदों में कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है. इसके बाद भी कुछ मुसलमानों का कहना है कि इस गीत में दुर्गा की वंदना की गई है, जबकि इस्लाम में किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने की मनाही है. इसके अतिरिक्त यह गीत ऐसे उपन्यास से लिया गया है, जो मुस्लिम विरोधी है. गीत के पहले दो पदों में मातृभूमि की सुंदरता का वर्णन किया गया है. इसके बाद के दो पदों में मां दुर्गा की अराधना है, लेकिन इसे कोई महत्व नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों को वंदे मातरम के गायन पर आपत्ति है या सब हिन्दू इसे गाने पर विशेष बल देते हैं. कुछ वर्ष पूर्व विख्यात संगीतकार एआर रहमान ने वंदे मातरम को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ. उल्लेखनीय बात यह भी है कि ईसाई समुदाय के लोग भी मूर्ति-पूजा नहीं करते, इसके बावजूद उन्होंने कभी वंदे मातरम के गायन का विरोध नहीं किया.  वरिष्ठ साहित्यकार मदनलाल वर्मा क्रांत ने वंदे मातरम का हिन्दी में अनुवाद किया था. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने उर्दू में अनुवाद किया. उर्दू में ’वंदे मातरम’ का अर्थ है ’मां तुझे सलाम’. ऐसे में किसी को भी अपनी मां को सलाम करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. शाइरा, लेखिका और पत्रकार फ़िरदौस ख़ान ने पंजाबी में वंदे मातरम का अनुवाद किया है. आशा है कि आगे भी देश-विदेश की अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद होगा.

Monday, April 3, 2017

गाय की रक्षा पर बहस क्यों ?

डॊ. सौरभ मालवीय
वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में गाय का विशेष महत्व है. दुख की बात है कि भारतीय संस्कृति में जिस गाय को पूजनीय कहा गया है, आज उसी गाय को भूखा-प्यासा सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है. लोग अपने घरों में कुत्ते तो पाल लेते हैं, लेकिन उनके पास गाय के नाम की एक रोटी तक नहीं है. छोटे गांव-कस्बों की बात तो दूर देश की राजधानी दिल्ली में गाय को कूड़ा-कर्कट खाते हुए देखा जा सकता है. प्लास्टिक और पॊलिथीन खा लेने के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती है. भारतीय राजनीति में जाति, पंथ और धर्म से ऊपर होकर लोकतंत्र और पर्यावरण की भी चिंता होनी चाहिए. गाय की रक्षा, सुरक्षा बहस का मुद्दा आख़िर क्यों बनाया जा रहा है?

धार्मिक ग्रंथों में गाय को पूजनीय माना गया है. श्रीकृष्ण को गाय से विशेष लगाव था. उनकी प्रतिमाओं के साथ गाय देखी जा सकती है.
बिप्र धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार॥
अर्थात ब्राह्मण (प्रबुद्ध जन) धेनु (गाय) सूर (देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरित होते हैं. परमात्मा स्वयं के इच्छा से निर्मित होते हैं और मायातीत, गुणातीत एवम् इन्द्रीयातीत इसमें गाय तत्व इतना महत्वपूर्ण है कि वह सबका आश्रय है. गाय में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास रहता है. इसलिए गाय का प्रत्येक अंग पूज्यनीय माना जाता है. गो सेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते हैं. गाय सरलता शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है. गऊ माता की पीठ में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते हैं, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महार्षि बसते हैं. सभी दानों में गो दान सर्वधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.

गाय को भारतीय मनीषा में माता केवल इसीलिए नहीं कहा कि हम उसका दूध पीते हैं. मां इसलिए भी नहीं कहा कि उसके बछड़े हमारे लिए कृषि कार्य में श्रेष्ठ रहते हैं, अपितु हमने मां इसलिए कहा है कि गाय की आंख का वात्सल्य सृष्टि के सभी प्राणियों की आंखों से अधिक आकर्षक होता है. अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस गाय की आंखों और उसके वात्सल्य संवेदनाओं की महत्ता स्वीकारने लगे हैं. ऋषियों का ऐसा मंतव्य है कि गाय की आंखों में प्रीति पूर्ण ढंग से आंख डालकर देखने से सहज ध्यान फलित होता है. श्रीकृष्ण भगवान को भगवान बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका गायों की ही थी. स्वयं ऋषियों का यह अनुभव है कि गाय की संगति में रहने से तितिक्षा की प्राप्ति होती है. गाय तितिक्षा की मूर्ति होती है. इसी कारण गाय को धर्म की जननी कहते हैं. धर्मग्रंथों में सभी गाय की पूजा को महत्वपूर्ण बताया गया है. हर धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश और देवी पार्वती को गाय के गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है.

परोपकारय दुहन्ति गाव:
अर्थात यह परोपकारिणी है. गाय की सेवा करने से से परम पुण्य की प्राप्ति होती है. मानव मन की कामनाओं को पूर्ण करने के कारण इसे कामधेनु कहा जाता है.
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा।।
ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि।
मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि।।

उल्लेखनीय यह भी है कि ज्योतिष शास्त्र में नव ग्रहों के अशुभ फल से मुक्ति पाने के लिए गाय से संबंधित उपाय ही बताए जाते जाते हैं. हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय ईश्वर का श्रेष्ठ उपहार है. भारतीय परम्परा के पूज्य पशुओं में गाय को सर्वोपरि माना जाता है. गाय से संबंधित गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है. यह कार्तिक शुक्ल की अष्टमी को मनाया जाता है, इस कारण इसका नाम गोपाष्टमी पड़ा. इस पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन किया जाता है. गाय की परिक्रमा कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है. गोवर्धन के दिन गोबर को जलाकर उसकी पूजा और परिक्रमा की जाती है. धार्मिक प्रवृत्ति के बहुत लोग प्रतिदिन गाय की पूजा करते हैं. भोजन के समय पहली रोटी गाय के लिए निकालने की भी परंपरा है.

भारत में प्राचीन काल से ही गाय का विशेष महत्व रहा है. मानव जाति की समृद्धि को गौ-वंश की समृद्धि की दृष्टि से जोड़ा जाता है. जिसके पास जितनी अधिक गायें होती थीं, उसे समाज में उतना ही समृद्ध माना जाता था. प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं की अपनी गौशालाएं होती थीं, जिनकी व्यवस्था वे स्वयं देखते थे. विजय प्राप्त होने, कन्याओं के विवाह तथा अन्य मंगल उत्सवों पर गाय उपहार स्वरूप या दान स्वरूप दी जाती थीं.

गोहत्या को पापा माना जाता है, जिनका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है.
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥

भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥

गाय संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है. एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल गायों की संख्या 13 खरब है. गाय से उत्तम प्रकार का दूध प्राप्त होता है, जो मां के दूध के समान ही माना जाता है. जिन बच्चों को किसी कारण वश उनकी माता का दूध नहीं मिलता, उन्हें गाय का दूध पिलाया जाता है.
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में गाय की 30 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें सायवाल जाति, सिंधी, कांकरेज, मालवी, नागौरी, थरपारकर, पवांर, भगनाड़ी, दज्जल, गावलाव, हरियाना, अंगोल या नीलोर और राठ, गीर, देवनी, नीमाड़ी, अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी, वत्सप्रधान, कंगायम, कृष्णवल्ली आदि प्रजातियों की गाय सम्मिलित हैं. गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होती है. इसीलिए गाय का दूध अमृत के समान माना जाता है. गाय के दूध से बने घी-मक्खन से मानव शरीर पुष्ट बनता है. गाय का गोबर उपले बनाने के काम आता है, जो अच्छा ईंधन है. गोबर से जैविक खाद भी बनाई जाती है. इसके मूत्र से भी कई रोगों का उपचार किया जा रहा है. यह अच्छा कीटनाशक भी है.

वास्तव में गाय को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की बजाय राजनीति से जोड़ दिया गया है, जिसके कारण इसे जबरन बहस का विषय बना दिया गया. गाय सबके लिए उपयोगी है. इसलिए गाय पर बहस करने की बजाय इसके संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह सड़कों पर विचरती गायों के लिए गौशालाओं का निर्माण कराए. 
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है