Sunday, September 25, 2011

श्रद्धा भाव है श्राद्ध




डॉ. सौरभ मालवीय
पितर हमारे किसी भी कार्य में अदृश्य रूप से सहायक की भूमिका अदा करते। क्योंकि अन्ततः हम उन्हीं के तो वंशज हैं। ज्योतिष विज्ञान की मान्यता के अनुसार वे हमारे सभी गतिविधियों पर अपनी अतिन्द्रीय सामर्थ के अनुसार निगाह रखे रहते हैं। यदि हम अपना भाव भावात्मक लगाव उनसे जोड़ सके तो वे हमारी अनेक सहायता करते हैं जो हरदम कल्पनातीत होती है। विज्ञान भी इन बातों को स्वीकार करता है कि मनुष्य जो कुछ भी कार्य कर रहा है वह केवल मनुष्य की सामर्थ में ही नहीं है अपितु कुछ ऐसे भी कार्य हैं जो होने लायक नहीं है और हो जाते हैं। पिछली शताब्दी में विज्ञान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण वेन्जीन की अंतर-संरचना की खोज सपने में हुई थी। केकुले नाम के एक प्रख्यात वैज्ञानिक के तीन वर्ष का परिश्रम काम नहीं आ रहा था और एक दिन सपने में उसने एक सापीन को उसकी पूछ अपने मुंह में डाले हुए देखा और उसे सपने में किसी ने कहा बेटे मैं तुम्हारे परिश्रम से अत्यंत प्रसन्न हूं। यही तो वेन्जीन की संरचना है और उसके बाद केकुले की नींद खुल गई अब वह अत्यंत हल्कापन और आन्नद अनुभव कर रहे थे। उन्हें लगा की सपने में बोलने वाला वह पुरूष उन्हीं के वंश परम्परा का कोई हैं। आज रसायन विज्ञान में जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उस सबका आधार वेन्जीन की संरचना है। इसी प्रकार सिलाई मशीन के लिए भी आयुवान होने बहुत परिश्रम किया था। फिर भी सफलता तो उसे सपने में ही मिली थी। यह भी कोई संयोग नहीं था, बल्कि उसके पूर्वजों का अदृश्य सहयोग था। भारत के दर्शन में भगवान वेद व्यास ने लिखा है कि ब्यतिरेस्त्दभावा भवित्वानंतूफ्लदिवत (उत्तरमीमांसा-3,54) अर्थात शरीर से आत्मा भिन्न है क्योंकि शरीर के विद्यमान होते हुए भी उसमें आत्मा अस्पृत रहती है। आत्मा की अतिसूक्ष्म गति है जो लोकान्तरों तक भी जा सकती है और अपने संकल्प के अनुसार शरीर भी धारण करती रहती है। जर्मन वैज्ञानिक हेकल ने अपने शोध ग्रन्थ दी रीडल ऑफ दी इनवर्ष में इसी सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। वे अन्त में यह भी लिखते हैं कि मनुष्य बिना इन्द्रियों की सहायता के भी बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। भारत में जो कर्मकाण्ड तय किये गये हैं वह अत्यंत गहन अनुभव के बाद प्रयोग में आये हैं। अब तो विज्ञान भी यह स्वीकार कर रहा है कि पूनःर्जन्म होता है और पूनःर्जन्म में अधिकांशतः अपने पितरों की आत्मायें भी अवतरित होती रहती है। क्योंकि किसी सत्यकर्म के करने पर प्रसन्न होती है या पापकर्म के कारण दुख भी होता है। प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं भी होती हैं किसी कारण बस यदि शरीर पूर्ण हो जाये तो भी वे इच्छाएं सूक्ष्म तरंगों के रूप में आत्मा के साथ जुड़ी रहती है। उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए हम श्राद्ध इत्यादि का प्रक्रम करते हैं। अनेक भूगोल विज्ञानी भी शरद ऋृतु के आश्विनकृष्ण पक्ष में ग्रह नक्षत्रों की स्थिति कितनी अनुकूल होती है कि पितर अपने वंशजों से अपना पाथेय चाहते हैं। इस प्रक्रिया को श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध शब्द का अर्थ श्राद्ध भाव से जुड़ा हुआ है। इसलिए यह कर्म अत्यंत श्राद्ध के साथ संपादित होना चाहिए।
ऋृग्वेद में ऐसा लिखा है कि। अग्निष अग्निष्वातः पितरएतगच्छातः। सदः सदः सदतः सूप्रणीतयः।।
हिमांद्री रत्नाकर में श्राद्ध उसी तिथि को सम्पन्न करने को कहा गया है जिस तिथि में पूर्वज की मृत्यु हुई हो वे लिखते हैं – यातिथिर्थस्यमासस्य मृताहेतूप्रवर्तते पितर की दिश दक्षिण मानी जाती है हाथ की हथेलियों में अंगुष्ठ भाग की ओर पितरों का स्थान माना जाता है। अतएव अपने पितरों के लिए श्रद्धापूर्ण ढंग से श्राद्ध संपन्न करना चाहिए। जिसे अपने पितर के तिथि का ज्ञान न हो उसे अमावस्या के दिन श्राद्ध करना मान्य है। भगवान मनु कहते हैं कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होते हैं पौरूषवान, निरोगी, प्रतिष्ठिावान और लम्बी आयु वाला व्यक्ति पैदा नहीं होता है। न तत्रबीरा जायत्रे निरोगी न शतायुसः न च। श्रीयोधीगच्छित यंत्र श्राद्धं-विर्वत्रितम्।। भारत में पिण्डदान के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान अल्गू नदी के तट पर गया भूमि में है। इस पवित्र नदी का पौराणिक नाम निरंजना भी है यह इतना पवित्र स्थान है कि स्वयं भगवान विष्णु अपना चरण चिन्ह दे गये हैं। इस भूमि की ऊर्जा और महत्ता का अनुमान मानवता ने हरदम श्रेष्टतम लगाया है । भगवान बुद्ध आचार्य शाम्वत्यकास्यप, मतंग ऋृषि, संजयवेल्किपुत्र और महावीर स्वामी समेत लाखों महापुरूषों ने इस पवित्र स्थान का यशोगान किया है। इसके इतर अग्नि तीर्थ कुमारी अन्तरीय (कन्याकुमारी) तीन समुद्रों से घिरी हुई पवित्र भूमि रामेश्वरम् प्रभाव क्षेत्र (सोमनाथ)श्री क्षेत्र नासीक, ब्रह्म क्षेत्र कुरूक्षेत्र, कमल क्षेत्र पुष्कर और पवित्र धाम श्रीबद्रीनारायण भी श्राद्धकर्म के लिए प्रस्सत भूमि है। इसमें आनन्दवन काशी और व्रह्म कपाल वद्रीधाम तो जीवित व्यक्ति द्वारा स्वयं के श्रृाद्ध के लिए उपयुक्त माना जाता है। श्राद्ध कर्म प्रकाश में आचार्य और संतों के लिए भी श्राद्ध करने का विचार है। जिस व्यक्ति के जन्मपत्री में काल सर्प दोष हो उसे अवश्य ही श्रद्धापूर्ण ढ़ंग से यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए। पितृ क्षेत्र से ग्रस्त व्यक्ति कभी स्थायी तौर पर सफलता नहीं पाता है। पितृदोष समन के लिए अरूणाचल प्रदेश के तेजू जिले में लोहित नदी तट पर स्थित परशुराम कुण्ड और हिमक्त क्षेत्र लेह स्थित सिन्धु तट भी उत्तम माना गया है। सामान्य रूप से पितृश्राद्ध हेतु उत्तम ब्राह्मणों को दान, मान, आदि से तृप्त कर के भेजना चाहिए गाय, कुत्ता, कौवा और का भोजन उत्तम माना जाता है। हमें श्रृद्धापूर्ण ढंग से अपने पितरों के लिए अपनी सामथ्र्य के अनुसार श्राद्ध तरपण आदि कर्म करने चाहिए। यूं तो प्रत्येक शुभ कर्म में पितरों का आहन्वान, नानदीमुख श्राद्ध एवं विसर्जन, सविधि सम्पन्न करना चाहिए। यह नित्य कर्म न हो सके तो नैमित्रिक रूपेण (महालय पक्ष) में अवश्य ही होना चाहिए।
सर्वमातृ, पितृ चरण कमलेभ्योनमः।
संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मो. +919907890614
ईमेल : drsourabhmalviya@gmail.com

2 टिप्पणियाँ:

Pravin Dubey said...

इस पोस्ट के लिए आप धन्यवाद् के पात्र है|

Unknown said...

YEH EK ROCHAK JANKARI HAI LOK KALYAN KE HIT KELIYE AAPKA LEKH MAZBOOT AADHAR HAI. DHANYABAD.

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है