हृदयनारायण दीक्षित
हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर राष्ट्रीय अन्तर्मंथन जारी है। भारत के राष्ट्रजीवन के लिए यह देवासुर संग्राम जैसा सागरमंथन है। भारत सनातन काल से तत्तव खोजी, सत्य अभीप्सु राष्ट्र है। तर्क, प्रतितर्क, विचार विमर्श हमारे राष्ट्रजीवन की सनातन परम्परा है। तर्क-प्रतितर्क की लोकतंत्री व्यवस्था को जन्म देने का स्वयंभू दावा करने वाला पश्चिमी जगत भी जानता है कि लोकतंत्र भारत का सहज स्वभाव है। पश्चिम का जनतंत्र राजतंत्र की प्रतिक्रिया से आया। भारतीय लोकतंत्र भारत का सहज स्वभाव है और स्वभाव हिन्दुत्व का प्राण है।
आज हिन्दुत्व के आयामों पर मजेदार बहस जारी है। मसलन अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दुत्व क्या है? लालकृष्ण आडवाणी और वाजपेयी के हिन्दुत्व में फर्क क्या है? नरेन्द्र मोदी और विनय कटियार के हिन्दुत्व की दिशा क्या है? क्या अशोक सिंहल और प्रवीण तोगड़िया का हिन्दुत्व किसी और तरह का है? यो प्रागदर्शन में बहस के ये आयाम राजनीतिक हैं। पर हमारे राष्ट्रजीवन में ऐसी बहसें सनातन काल से जारी हैं। महात्मा गांधी, वीर सावरकर, योगी अरविन्द और लोकमान्य तिलक के भी हिन्दुत्व दृष्टिकोण अपने समय अलग-अलग दिखाई पड़े रहे थे। हिन्दुत्व पर डॉ। राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के भी दृष्टिकोण राष्ट्रीय बहस का विषय बने।
भारतीय दर्शन के इसके भी पहले के सम्मानित कालखण्ड में उपनिषद प्रतीतियों और ऋग्वैदिक मंत्र अभिव्यक्तियों के बीच भी इसी किस्म की इन्द्रधानुषी रंग वाली भिन्नताएं रही। द्वैत, विशिष्ट द्वैत और अद्वैत जैसी प्रतीतियां उगीं। वर्ण व्यवस्था से देखें तो अब्राह्मण ऋषि ऐतरेय ने ऐतरेय ब्राह्मण गाया। अब्राह्मण ऋषि विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र रचा। अब्राह्मण ऋषि व्यास ने महाभारत गीता की सर्जना की। अब्राह्मण ऋषि वाल्मीकी ने रामायण की रचना की। यों ब्राह्मण कभी जाति नहीं थे। समग्रता/टोटेलिटी/सत्य के पर्याय ''ब्रह्म'' नामक तत्व के अध्ययन की एक शाखा का नाम ब्राह्मण था। इसी शाखा के ग्रंथ ''ब्राह्मण'' कहलाये। सो हिन्दू प्रतीति की दृष्टि से ऐतरेय, विश्वामित्र व्यास और रविदास ब्राह्मण थे।
भारतीय समाज व्यवस्था के विकार के चलते इन्हें शूद्र कहने की हाहाहूती गलती हुई। सो हिन्दुत्व का सीधा मतलब है तर्क-प्रतितर्क सोच-विचार और सतत् प्रवाही बहस का अनुसंधानपरक अधिष्ठान। डॉ। अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म पर बेशक उत्तेजक सवाल उठाये। उनके सवाल हिन्दू समाज की जाति-वर्ण आधारित व्यवस्था की सहज पीड़ा से आये। लेकिन यह हिन्दुत्व का कमाल है कि उसकी ही कोख से डॉ. अम्बेडकर जैसा अग्निधर्मा विद्रोही पैदा हुआ। उसी की कोख से बुध्द जैसा परिपूर्ण ज्ञानी। बुध्द ने भी हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की तमाम मान्यताओं को काटा। स्वामी दयानन्द ने भी। लेकिन सारा कमाल हिन्दुत्व का है। यहां ज्ञान की यात्रा लगातार जारी ही रहती है। विश्व ज्ञान का प्राचीनतम एनसाइक्लोपीडिया, ऋग्वेद कहता है ''हे परमात्मा, श्रेष्ठ विचार सभी दिशाओं से हमारे पास आयें।'' एतदर्थ हिन्दुत्व की सनातन धारा में सद्विचारों के स्वागत की परम्परा है। हिन्दू आदिकाल से सत्य, शिव और सुन्दर की शोधा यात्रा पर है।
इस्लाम में तर्क असंभव है। सांस्कृतिक धारा के कारण भारत तर्क की धरती है। इस्लाम अव्वल से आखिर तक सब कुछ जान लेने और अपनी ही जानकारियों को श्रेष्ठ मानने का दावा करता है। इस्लाम असहमति पर आक्रमक रहा है। हिन्दुत्व की इस धरती पर ज्ञान की यात्रा और नित्य नई उपलब्धियों के वसंतोत्सव खिलते ही रहते हैं। इस्लाम में डॉ। अम्बेडकर जैसा आग्नेय व्यक्तित्व पैदा नहीं हो सका। चार्वाक जैसा मनमौजी ऋषि समूह भी इस्लाम नहीं पैदा कर सका। स्वामी दयानन्द जैसा रूढ़ि विरोधी महान संत भी इस्लाम नहीं दे सका। ऐसे तमाम सात्विक क्रांतिकारी इस्लाम दे भी नहीं सकता। क्योंकि इस्लाम में तर्क, विचार, शोध, मनन और सतत् चिंतन की परम्परा नहीं है। इस्लाम में तर्क परम्परा होती तो निश्चित ही सलमान रूश्दी, तसलीमा नसरीन, पाकिस्तान लेखिका तहमीना दुर्रानी जैसे प्रख्यात विद्वानों के तर्क भी आदरपूर्वक सुने जाते। तब मौलाना बुखारी हमीद दलवाइ, शाहवल्लीउल्ला, शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी के इस्लामी दृष्टिकोण का मूल्यांकन होता। जिन्ना और अब्दुल कलाम आजाद के इस्लाम को भी अलग-अलग व्याख्या का विषय बनाया जाता।
हिन्दू जीवन रचना और हिन्दुत्व की अवधारणा का कमाल है कि हिन्दुत्व की सनातन बहस में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिस्सा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सुनवाई की। दुनिया के इतिहास में किसी पंथ, मजहब, रिलीजन या सेक्ट को किसी भी देश के न्यायालय में कभी प्रश्नगत नहीं किया गया। क्या विश्व के किसी भी देश की अदालत ''इस्लाम क्या है'' जैसे आस्था भरा प्रश्न पर कड़वी दलीलें सुन सकती है? हिन्दू बहुसंख्यक इस हिन्दुस्थान की सबसे बड़ी अदालत ने हिन्दुत्व के पक्ष और प्रतिपक्ष में तीखे पैने तर्क सुने। सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिसम्बर 1995 को तिरसठ पेजी फैसले में कहा कि हिन्दुत्व का अर्थ है ''भारतीय जन की जीवन शैली।'' यही जीवन शैली हमारी संस्कृति है और हमारे सांस्कृतिक राष्ट्र की मुख्यधारा।
भारतीय लोगों की इस तार्किक जीवन शैली का विकास अचानक नहीं हुआ। हिन्दू संस्कृति की सदा प्रवाहित गंगा से ही इस परिवर्तनकामी, सदा गतिशील और प्रगतिशील राष्ट्रीय राष्ट्रजीवन का विकास हुआ। यूरोप में राष्ट्र की कोई जन्मतिथि नहीं है। सृष्टि की पहली किरण के साथ प्रज्ञा रूपी मन (मनन-सोच विचार) जन्मा। यही प्रज्ञा प्राण ही हिन्दुत्व है। पवित्र हिन्दू भूमि इस प्रज्ञा की धारक है। हिन्दुत्व गंगोत्तरी है। इसी का गंगा-प्रवाह हिन्दू संस्कृति है। हिन्दू संस्कृति की यह गंगा कूड़ा करकट किनारे करती रहती है, पर अमृत जल का प्रवाह जारी रहता है। सो संस्कृति ही इस राष्ट्र का प्राण है। संस्कृति ही इस राष्ट्र की धारक है। संस्कृति ही इसकी नियामक है। सो यही भारतीय राष्ट्रीयता है। भारत राष्ट्र सदा से एक भू-सांस्कृतिक अवधाारणा है। राजनीतिक इकाई नहीं।
सवाल यह है कि भारत का प्राण हिन्दू संस्कृति नहीं तो आखिरकार है क्या? सेकुलरिज्म हमारी राष्ट्रीयता नहीं है। यह हमारी संस्कृति का एक आयाम है। हिन्दू संस्कृति स्वभाव से ही ''आध्यात्मिक पंथनिरपेक्ष'' है। राजनीति और राज्य व्यवस्था में पंथनिरपेक्षता की वकालत करना आसान है। हिन्दू दर्शन अध्यात्म में भी पंथनिरपेक्ष और तार्किक है। वैदिक काल के ऋषि तर्क करते थे और उपनिषद काल तर्क काल है ही। फिर तो बहस का ही वातायन बना। सूत-शौनक, शंकर-पार्वती, यम-नचिकेता, अष्टावक-जनक, अर्जुन-कृष्ण और तुलसी की रामकथा में काक भुसुण्डी और गरूड़ जैसे पक्षी भी बहस करते हैं। इसी पंथनिरपेक्षी-आध्यात्मिकता और सदा लोकतंत्री जन-गण-मन व्यवस्था वाली सनातन संस्कृति से यह राष्ट्र है। इसलिए सांस्कृतिक राष्ट्र भाव ही भारत का मूल विचार है।
पं। दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं, ''राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंत:करण में अपनी भूमि के प्रति श्रध्दा की भावना का होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है।''स्वराष्ट्र के प्रति पुलक स्वाभाविक है। क्योंकि स्व हमारा स्वभाव है। हमारे स्व का आदर्श हमारी संस्कृति है। स्वदेश और विदेश में आधारभूत फर्क है। स्वदेश में आत्मीयता है। विदेश में परायापन है। यह तत्व राष्ट्रजीवन के अंतस् में सहज प्रवाहित रहते हैं। त्याग, प्रेम, बंधुत्व हमारा स्वभाव है। यह स्वसंस्कृति से आया। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरूषार्थ हमारे राष्ट्रजीवन में रचे बसे हैं। भारत ने भोग की जगह त्याग अपनाया। भोग रोग है। त्याग योग है। भारत उपयोग पर धयान देता है। पश्चिम उपभोग पर।साधारण सा प्रतीत होने वाला एक असाधारण प्रश्न भारत के लोकजीवन में अक्सर उठता है, किसी भी अनुष्ठान की शुरूआत का उत्सव कैसे प्रारम्भ करे? दारू के गिलासों को टकराकर चियर्स बोलते हुए या एक नारियल फोड़कर? समष्टि/भगवत्ता के प्रति अनुग्राही होते हुए हाथ जोड़कर या सीना तानकर? उत्सव धर्म ज्योति प्रतीक दीपक को जलाकर अपना कोई अनुष्ठान प्रारम्भ करे? या कैंची से फीता काटकर? दीपक प्रज्ज्वलन और नारियल का समर्पण भारत के सनातन मन को आह्लाद देता है। यह भारत के सनातन चित्त की सत्य, शिव और सुंदरतम सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां है। श्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने एक आलेख (जेन्टिलमैन 13 जनवरी- 97) में उक्त सवाल उठाते हुए ''सेकुलरिज्म'' की अच्छी खबर ली थी। आलेख में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद होने वाले जलसे में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की उपस्थिति का विवरण देते हुए श्री आडवाणी ने लिखा सेकुलरिज्म से अभिभूत पं. नेहरू को राष्ट्रपति का ऐसे कार्यक्रम के लिए समय देना नागवार लगा। इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के हजारों मंदिर हिन्दू संस्कृति को नष्ट करने की खातिर ही ढहाये थे। मंदिर भारतीय संस्कृति की शिखर अभिव्यक्तियां ही तो हैं। मंदिर और मस्जिद एक नहीं है। दोनों के अलग-अलग मतलब है। अलग-अलग मकसद।लेकिन
हिन्दुत्व के अधिष्ठान में बहस है। बाकी में नहीं। हिन्दुत्व को हिन्दुज्म कहने वाले गलती पर है। इज्म विचार होता है। हिन्दुत्व विचार नहीं है। यह समग्रता का स्वीकार है। अंग्रेजी अनुवाद की त्रुटिवश हिन्दुत्व को हिन्दुज्म कहा जाता है। साजिशन इसे उग्र या फंडामैंटलिस्ट जैसी संज्ञाएं दी जा रही है। इसे हिन्दूनेस कहना ठीक होगा। इसी राष्ट्रीय अधिष्ठान के दृष्टिकोण से हिन्दुत्व पर जारी बहस का स्वागत है। ध्यान रहे इस बहस में सबका आदर है। तर्क चलें। विचार और विमर्श चले। अब कुतर्क नहीं चल सकते। क्योंकि हिन्दुत्व के उपासक जाग गये हैं। बेशक बहस जारी रहे। इसी में से अपने इस सांस्कृतिक राष्ट्र का भविष्य खिलेगा।
(लेखक प्रसिध्द विचारक हैं)
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