Monday, January 12, 2009

विवेकानंद की विचारधारा



जगमोहन
इतिहास के इस मोड़ से हम कहां जाएंगे? भारत का भविष्य क्या है? आजादी के साठ सालों के दौरान अपना पुरुत्थान करने और विश्व समुदाय में विशिष्ट स्थान पाने का मौका गंवाने के बाद क्या इससे सबक लेते हुए हम नई शुरुआत करेंगे? जब भी मैं खुद से ये सवाल करता हूं, तो मेरे जेहन में इसका सबसे बेहतर जवाब यही आता है कि भारत को आज स्वामी विवेकानंद जैसी आध्यात्मिक और बौद्धिक विभूति की आवश्यकता है। एक विशाल प्रकाश स्तंभ की तरह विवेकानंद ही समुद्री तूफान में डमगम करती भारत की नैया को पार लगा सकते हैं। शोषणकारी पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के गुरुओं द्वारा देश की सोच को बंधक बना लिए जाने के बाद विवेकानंद की दृष्टि और उत्साह ही देश को आध्यात्मिक खुदकुशी से बचा सकता है। बहुत कम लोगों को यह अहसास है कि विवेकानंद उन प्रमुख शिल्पियों में से एक थे जिन्होंने नई सांस्कृतिक धारा से बंजर भारतीय भूमि को सिंचित किया। इस उर्वर भूमि पर मनुष्यता की नई फसल लहलहाई। इन्हीं लोगों ने देश को आजादी दिलाई।


विवेकानंद ने घोषित किया, इस देश की धरा पर सर्वप्रथम आत्मा की नश्वरता का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ-एक कृपालु ईश्वर, जो तमाम लोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष है॥हम ऐसे ही देश के बच्चे हैं। इन प्रेरक शब्दों ने साम्राज्यवादी शासन से उपजे आत्मसंशय को मिटाकर जनता में आत्म सम्मान और आत्मबल का संचार किया, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी और तिलक जैसे युगपुरुष पैदा हुए। भारत की जो हैसियत होनी चाहिए थी वह आज उसकी छायामात्र है। भारत को तो विश्व में जीवनदायी विचारों का प्रवाह करना चाहिए था, लेकिन यह दूसरों के मूढ़ भौतिकवाद से निर्देशित हो रहा है। इसकी अर्थव्यवस्था आमजन की भलाई के लिए होनी चाहिए थी, लेकिन यह अमीरों के उपभोक्तावाद को स्थापित कर रहा है और गरीबों के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है। इसे विविधता में एक्य की अपनी समृद्ध परंपरा का निर्वहन करना चाहिए था, लेकिन यह टकराव और विभ्रम का शिकार होकर अलग-थलग हो गया है। यह सब कैसे हुआ? 19वीं सदी के उत्तरार्ध में, जब भारतीय क्षितिज पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के बादल मंडरा रहे थे, भारतीय जन को निर्मल करने के लिए विवेकानंद गतिशील लक्ष्य के साथ उठ खड़े हुए।


मुख्य दोषियों को इंगित करते हुए उन्होंने कहा, भारत के उच्च वर्ग, क्या तुम सोचते हो कि जिंदा हो? तुम दस हजार साल पुरानी ममी मात्र हो॥माया संसार में वास्तविक भ्रम हो। तुम अपने आपको शून्य में विलीन करके गुम हो जाओ। अपने स्थान पर एक नए भारत को जन्म लेने दो। अगर आज कोई विवेकानंद प्रकट होते तो वह उच्च वर्ग से कहते, आपने देश के साथ विश्वासघात किया है। आपने संविधान के लक्ष्यों में निहित प्रेरणा का गला घोंट दिया। आप प्रशासनिक और राजनीतिक संस्थानों की स्थापना करते रहे, किंतु लोगों में उस चेतना और प्रेरणा का संचार नहीं कर पाए जो उन्हें जीवन और अर्थ प्रदान करती हैं। आपने ऐसे शरीर बनाए हैं जिनमें आत्मा ही नहीं है। त्याग और तपस्या में निहित प्राचीन भाव की श्रेष्ठता की अवहेलना कर दी है और शक्ति व संपदा के नए ईश्वरों की अर्चना शुरू कर दी है। महान अतीत से आपको रत्न चुनने चाहिए थे और पत्थरों को बाहर फेंकना चाहिए था, किंतु आपने ठीक उलटा किया। पत्थर चुन लिए और रत्न फेंक दिए। आप बंदर के मरे हुए बच्चे की भांति देश की छाती से चिपक गए हैं।


आप काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं। जाओ, भारत माता के लिए निकल जाओ। विवेकानंद जानते थे कि स्वस्थ भारत के निर्माण में आध्यात्मिक परंपरा को अहम भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा था-प्रत्येक व्यक्ति की तरह देश के जीवन का भी एक ध्येय होता है। अगर कोई देश अपनी राष्ट्रीय जीवनशक्ति गंवा देता है तो वह राष्ट्र मर जाता है। विवेकानंद की धर्म की अवधारणा मनुष्यता की आराधना के चारों ओर घूमती है। उनके लिए जीव ही शिव है। गरीब, बीमार और जरूरतमंदों की सेवा ही ईश्वर की असली सेवा है। विवेकानंद ने व्यावहारिक वेदांत की वकालत की है। वह कहा करते थे कि तोला भर काम बीस हजार टन बड़ी-बड़ी बातों के बराबर है। कुछ आश्रमवासियों ने उनसे सवाल किया कि जन सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना संन्यासी परंपरा से तादात्मय कैसे बैठाएगी? उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से जवाब दिया, आपकी भक्ति और मुक्ति की चिंता कौन करता है? धार्मिक ग्रंथों के रचियताओं की चिंता कौन करता है? अगर मैं अपने देशवासियों को कर्म-योग के रास्ते पर लाकर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा कर सकूं तो मैं हजार नर्क भी खुशी-खुशी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं राम-कृष्ण या फिर किसी और का अनुयायी नहीं हूं।


मैं केवल उनका भक्त हूं जो भक्ति या मुक्ति की परवाह किए बिना दूसरों की सहायता करते हैं। एक बार विवेकानंद ने खुद अपने वर्ग पर ही सवाल उठा दिए, हम संन्यासियों ने किया क्या है? जनता के लिए हमने क्या किया है? उन्होंने ईसाई मिशनरियों को भी आड़े हाथों लिया, नास्तिकों की आत्मा को बचाने के लिए ईसाई मिशनरियों को भेजने वाले ईसाइयों, तुम उन्हें भुखमरी से बचाने की कोशिश क्यों नहीं करते। एक भूखे मनुष्य को पंथ का पाठ पढ़ाना उसका अपमान है। निर्विवाद रूप से विवेकानंद 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरू में प्रस्फुटित भारतीय पुनर्जागरण के सबसे चमकदार सितारे थे। पुनर्जागरण के प्रभाव में सोया हुआ विशाल भारत जाग कर खड़ा हो गया, किंतु दुर्भाग्य से कुछ कदम सही बढ़ाने के बाद वह गलत दिशा में मुड़ गया। पतन के इस दौर में एक और विवेकानंद की बेहद जरूरत है-ऐसा विवेकानंद जो भटके हुए भारत को सही रास्ता दिखाए। वह लापरवाही, निर्दयता, भ्रष्टाचार और मिथ्याभिमान की वर्तमान संस्कृति के स्थान पर देखभाल, समर्पण, सहिष्णुता और भाईचारे की भावना जागृत करे। तभी भारत अपनी वास्तविक नियति को तलाश सकता है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)

2 टिप्पणियाँ:

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

राष्‍ट्रवाद के नायक स्‍वामी विवेकानंद को शत-शत नमन।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप और संजीव जी, मुझे माफ करें। स्वामी जी राष्ट्रवादी नहीं थे। वे तो संपूर्ण सृष्टि में एकत्व देखते थे। उन्हें राष्ट्रवादी कहना उन का अपमान होगा।
वे तो कहते थे कि मैं ने जब से देखना शुरु किया है ईश्वर के सिवा किसी को देखा नहीं। राष्ट्रवाद तो स्वयं की विश्व मे एक भेद करता है, द्वैत उत्पन्न करता है। स्वामी जी तो अद्वैतवादी थे।

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है