Friday, January 30, 2009

साहित्य और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


प्रो. चमनलाल गुप्त
हिंदी साहित्य चिंतन की परंपरा भारतीय चिंतन परंपरा का ही अंश है जो अत्यधिक समृध्द और प्राचीन है। भारत जैसी अविच्छिन्न साहित्यिक परंपरा कम ही राष्ट्रों के पास है। भारत के सांस्कृतिक प्रवाह से निरंतर पुष्ट होती हुई साहित्यधारा कभी विरल तो कभी विशाल नदी का रूप धारण कर भारतीय जनमानस को आप्लावित करती रही है। भारतीय संस्कृति प्राचीन, निरंतर प्रवाहशील, नित-नवीन और फिर भी सनातन रूप से विद्यमान रहनेवाली अद्भुत संस्कृति है। इस संस्कृति का बाह्य रूप स्थान समय और युगीन संदर्भों में बदलता रहा है, अपने को युगानुकूल एवं ग्राह्य बनाता रहा है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह ऊपर से बदलता रहा परंतु भीतर से वह शांत सुस्थिर रहा, अपने स्वरूप को बनाए रहा।
साहित्य और संस्कृति के विकास की दिशा और खोज का विषय एक ही है। साहित्य एक स्तर पर मनुष्य के ऐन्द्रिय बोध को संस्कारित एवं परिष्कृत करता है। उसे शब्द के भीतर छुपे सूक्ष्म भाव और अर्थ से ही परिचित नहीं करवाता, उसकी नाद शक्ति से आंदोलित भी करता है। साहित्य, भाषापरक अभिव्यक्ति है परंतु वह भाषेतर सूक्ष्म भावों और विचारों को व्यंजित करता है। संस्कृत साहित्य के महान विद्वान प्रोफेसर सिलवां लेवी ने भारत वर्ष की संपूर्ण चिंतन धारा को एक शब्द में समेटते हुए कहा है कि संपूर्ण साहित्य साधना का लक्ष्य है 'रस' की प्राप्ति। 'रस' जो शब्द और अर्थ के 'साहित्य' अर्थात् साथ-साथ रहने के भाव से जुड़ा है परंतु जिसे कहा नहीं जा सकता, अनुमित नहीं किया जा सकता, जो लक्षित भी नहीं होता बल्कि व्यंग्य होता है और समान हृदय वाले, अनुभवी सहृदय द्वारा ही ग्रहीत होता है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में जिसे सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म कहा गया उसे ही साहित्य में रस कहकर उसकी प्रकृति 'ब्रह्मानंद सहोदर' स्वीकार की गई। मैक्समूलर ने भारतीय अध्यात्म साधना का लक्ष्य सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति मानते हुए उसे सांसारिकता से परे अतीत अथवा वियाण्ड (Beyond) की खोज माना है। साहित्य और संस्कृति दोनों ही मनुष्य को जड़ से मुक्त कर चेतन की ओर ले जाते हैं, उसकी सुप्त चेतना को जागृत कर परम तत्व की ओर अग्रसर करते हैं। साहित्य और संस्कृति मनुष्य को बेहतर मनुष्य और बेहतर मनुष्य को देवत्व प्रदान करने का साधन है।

साहित्य और संस्कृति दोनों का संबंध किसी एक समाज से रहता है जो किसी भूखंड विशेष पर स्थिर रहता है। देश, देश में रहने वाले जन और उस जन के सामाजिक, आर्थिक जीवन से संस्कृति का स्वरूप निर्मित होता है। देश एक भौगोलिक इकाई है जिसका निर्माण प्राकृतिक तत्वों से होता है। पर्वत, नदियां, मरुस्थल अथवा घने वन आदि इसके निर्णायक होते हैं। राज्य एक प्रशासनिक इकाई है। एक देश में अनेक राज्यों का निर्माण्ा हो सकता है, होता है। देश के लिए भौगोलिक एकता और राज्य के लिए राजनीतिक, प्रशासनिक एकता अनिवार्य तत्व है। राष्ट्र इन दोनों की अपेक्षा अधिक व्यापक और सूक्ष्म इकाई है जिसका आधार सांस्कृतिक अथवा भू-सांस्कृतिक हुआ करता है। किसी विशेष भूखंड पर रहने वाले लोग अपने लौकिक और परलौकिक सुख और समृध्दि के लिए, जीवन यापन और मुक्ति साधना के लिए जो जीवन पध्दति, मूल्य चेतना, सौंदर्य बोध और चिंतन-मनन की प्रणालियां विकसित करते हैं वे ही उसकी संस्कृति के वाहक और परिचायक कहे जा सकते हैं। देश एक स्थूल एवं दृश्य इकाई है, राज्य एक प्रशासनिक परिकल्पना है, परंतु फिर भी उसकी निश्चित सीमाएं रहती हैं। राज्य, देश की अपेक्षा सूक्ष्म इकाई है। राष्ट्र, देश और राज्य की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं भावात्मक इकाई है। जिसका आधार मूलत: जन की सौंदर्य बोधात्म, भावात्म एवं वैचारिक एकता है जिसे संक्षेप में सांस्कृतिक एकता कह सकते हैं।

आज भी सुनने को मिल जाता है कि भारत राष्ट्र का निर्माण 1947 में हुआ था फिर हम राष्ट्र नहीं हैं बल्कि राष्ट्र बनने जा रहे हैं। (we are a nation in the making) यदि हम आजादी से पहले राष्ट्र नहीं थे तो क्या थे?

पश्चिम में राष्ट्र राज्य की कल्पना की गई और राजनीतिक इकाई राज्य को ही राष्ट्र का पर्याय मान लिया गया। 'संयुक्त राष्ट्र संघ' मूलत: 'संयुक्त राज्य संघ' है जिसमें संप्रभुता संपन्न अथवा स्वायत्ताशासी राज्य, सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं। एक सोवियत रूस, राष्ट्र के रूप में उसका सदस्य था। सोवियत रूस के अनेक टुकड़े होकर स्वतंत्र राज्य बन गए और आज उनमें से अधिकतर संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बनकर राष्ट्र कहलाते हैं। इंडोनेशिया से तैमूर टूट कर नया राष्ट्र बन गया है। राष्ट्र केवल राजनीतिक इकाई नहीं हो सकता। भारत सदा से ही राजनीतिक रूप से बंटा रहा परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इसमें एकता रही है। सांस्कृतिक एकता ही युगों से हमारी एकता का आधार रही है। भारत एक राजनीतिक इकाई के रूप में मनु, रघु, राम, युधिष्ठिर, अशोक अथवा विक्रमादित्य जैसे कुछ एक चक्रवर्ती शासकों के काल में भले ही एक रहा हो परंतु अधिकांश समय अनेक गणों, राज्यों अथवा सियासतों में बंटा रहा जो आपस में प्राय: लड़ते-भिड़ते भी रहते थे। इस देश का साधारण जन सदा ही राजनीतिक सीमाओं के पार सोचता था क्योंकि उसके लिए संस्कृति ही राष्ट्र का आधार थी। किसी भी पुण्य कार्य के लिए शुध्द जल की प्राप्ति देश की सातों प्रमुख नदियों के जल को मिलाकर ही होती थी और वह गाता था -

'गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेस्मिन सन्निधिं कुरू'॥

इसी प्रकार सात मोक्षदायक पुरियां, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्ति पीठ, चारधाम, चार महाकुंभ क्षेत्र, रामायण, महाभारत, श्रीमदभगवत जैसे ग्रंथ आदि हमारी एकता के मूलाधार थे। भारत की एकता और अखंडता का आधार सांस्कृतिक एकता रही है इसलिए यह स्वाभाविक है कि भारतीय राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संज्ञा दी जाए। हिंदुओं के लिए चारों धामों की यात्रा अर्थात् भारत भूमि की भारत माता की परिक्रमा पुण्यदायी और मोक्ष देने वाली मानी गई। यही हमारी राष्ट्रभक्ति है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोध छद्म धर्म निपरेक्षवादी और भौतिकवादी-साम्यवादी अपने-अपने कारणों अथवा स्वार्थों से करते हैं। भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को समझने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति निरंतर विकसनशील, बहुलवादी, उदार, विभिन्न मतों, पंथों, धर्मों, पूजा-पध्दतियों, जीवन-शैलियों, विचारधाराओं और आस्थाओं और विश्वासों को अपने में समेट कर चलने में समर्थ रही है। ऋग्वेद में कहा गया 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात् परमसत्ता एक ही है जिसे विद्वान विभिन्न नामों से पुकारते हैं। यही एकमात्र ऐसी संस्कृति है जो विभिन्न धर्मों को एक ही सत्य तक पहुंचने का मार्ग घोषित करती रही है। इसी संस्कृति में कहा गया 'अपनी भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार सीधे या टेढ़े मार्ग पर श्रध्दापूर्वक चले हुए सभी साधक, हे प्रभु, तुम तक उसी प्रकार पहुंचेंगे, जिस प्रकार उत्तार, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम किसी भी दिशा की ओर बहने वाली नदियां समुद्र तक पहुंच जाती हैं।' (शिवमहिम्नस्तोत्र) संत विनोबा भावे ने इसीलिए भारतीय संस्कृति को 'भी वाद' कहा था क्योंकि इसमें अपने मत के साथ दूसरों के मतों को भी स्वीकृति है। सभी धर्म और संस्कृतियां उनकी नजर में 'ही वाद' से ग्रस्त हैं अर्थात् वे अपने मार्ग के सिवा अन्य सभी मार्गों को व्यर्थ और गलत मानती हैं। जब कुछ धर्मनिरपेक्षवादी भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विकास से अन्य पंथों, धर्मों अथवा संस्कृतियों के विनाश की आशंका जताते हैं तो वे भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति के साथ-साथ इन सबका अस्तित्व इसी धरती पर सदियों से बना रहा है, बना रहेगा। भारतीय संस्कृति सहिष्णु भी है और गुणों को स्वीकारने वाली सारग्राही भी यही इसकी दीर्घजीविता का रहस्य भी है। साम्यवादी विचारक अपने भौतिकवादी दुराग्रहों के कारण संस्कृति के आदर्शपरक, आध्यात्मिक मूल्यों को अस्वीकार करते हुए भारतीय सांस्कृतिक चेतना को संकीर्ण सांप्रदायिक कहकर नकार देते हैं। भारत को वे राष्ट्र ही नहीं मानते। उनकी दृष्टि में संस्कृति सामाजिक-आर्थिक मूल से उपजी बाह्य रचना है जिसका जीवन मूलभूत भौतिक ढांचे अर्थात् उत्पादन के साधन और उत्पादन के संबंधों पर निर्भर करता है। भारतीय धर्म साधना उनके लिए आदिम युग की अज्ञता है और भारतीय सांस्कृतिक चिंतन का आध्यात्मिक अंश उन्हें निरर्थक प्रतीत होता है। जिस समाजवादी, भौतिकवादी संस्कृति पर वे गर्व करते थे उसके खंडहर पूरे पूर्वी युरोप और टूटे-बिखरे सोवियत गणराज्य में वे देख कर भी नहीं देख पा रहे। उनकी शुध्द भौतिकतावादी तथा कथित विज्ञान परक संस्कृति दो सौ वर्ष में ही भरभरा कर गिर पड़ी जबकि भारतीय संस्कृति सदियों से अपने स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए और अपने बाहरी रूप को समय, स्थान और परिस्थिति के अनुरूप बदलते हुए आगे बढ़ती रही है। परम तत्व की खोज और उस सच्चिदानंद स्वरूप तक पहुंचने की ललक भारतीय संस्कृति के ऐन्द्रिय बोध को सूक्ष्म सौंदर्यबोध में बदलती रही, भावबोध को उदार विश्व-बंधुत्व का गीत सुनाती रही और बौध्दिक चिंतन-मनन को षडदर्शन और ज्ञान-विज्ञान की ऊंचाइयों से भी आगे ब्रह्मांड की सूक्ष्म एकता में बांधती रही। भारतीय धर्म-साधना मानववाद की साधना है जो मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य बनाकर परम तत्व तक पहुंचाने का साधन बनती है, भारतीय सांस्कृतिक चिंतन, मनुष्य मात्र के उत्थान का चिंतन है। इसमें सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का विरोधी एक तीसरा वर्ग भी है जो पश्चिम की चिंतन परंपरा से अभिभूत है। पश्चिमी राजनीतिक चिंतन में राष्ट्र-राज्य' की परिकल्पना फलीभूत हुई इसलिए राष्ट्र एक राजनीतिक इकाई ही माना गया। हिटलर, मुसोलिनी जैसे राष्ट्रवादी नायकों के उभरने से राजनीतिक राष्ट्रवाद का विस्तारवादी, फासीवादी चेहरा सामने आया। पश्चिम में राष्ट्रवाद युध्द और हिंसा के साथ-साथ कट्टरवाद का पर्याय बन गया। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' में ये लोग सांस्कृतिक कट्टरवाद अथवा आधिपत्य जमाने की लालसा देखते हैं और इसका विरोध करते हैं। भारतीय सांस्कृतिक चेतना जिन उदार मानवीय और सार्वभौम तत्वों से निर्मित हुई है उसमें सार्वभौमिक आकर्षण मौजूद है परंतु भारतीय संस्कृति का अतीत साक्षी है कि इसका प्रचार कही भी, कभी भी आग और तलवार के बल पर नहीं किया गया।

भारतीय साहित्य अपने सांस्कृतिक मूलाधार का ऋणी रहा है। 'हिंदी साहित्य की भूमिका' पुस्तक में पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य पर प्राचीन संस्कृत साहित्य के प्रभाव को रेखांकित करते हुए महाभारत और रामायण को असंख्य महाकाव्यों, उपन्यासों, नाटकों, कहानियों का प्रेरक सिध्द किया है। रामायण और महाभारत तो निश्चय ही संपूर्ण भरतीय वांगमय के उपजीव्य ग्रंथ रहे हैं। बौध्द, जैन साहित्य जो पालि, प्राकृत, अपभ्रंश अथवा अन्य देशज् भाषाओं में रचा गया हमारी सांस्कृतिक चेतना का अंग है। हम जाने अनजाने में बुध्द के मध्यम मार्ग के अनुयायी हैं और उसकी करुणा हमारे रक्त में प्रवाहित है। जैनों की अहिंसा संस्कार बन हमारे जीवन को पोषित करती है। साहित्य में जैन और बौध्द साहित्य विद्रोह और विरोध का साहित्य है, परंतु उसे भी भारतीय संस्कृति ने आदर पूर्वक स्वीकार किया है। भगवान बुध्द और वृषभ हमारे यहां विष्णु के अवतार स्वीकार कर लिए गए। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत की विशिष्टता यही है कि भारतीय संस्कृति ने यहां पर विजेता बनकर आई जातियों को भी आत्मसात कर लिया और उनकी संस्कृति के सकारात्मक, जीवंत तत्वों को अपने में समेट लिया।

भारत में इस्लाम का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है। इससे पूर्व जो आक्रांता आए वे इतने संगठित और सुसंस्कृत न थे कि भारत की समृध्द परंपराओं को चुनौती दे सकते। इस्लाम नवीन चिंतन और समाज-दृष्टि से संपन्न सांस्कृतिक दृष्टि लेकर आया। इस्लाम के आने पर भारतीय संस्कृति को एक नए प्रकार की चुनौती का सामना करना पड़ा। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'संक्षेप में चुनौती का स्वरूप सामाजिक अधिक था, धार्मिक और दार्शनिक कम।' कई कारणों से भारतीय संस्कृति में पतनशीलता आ चुकी थी और उसकी पाचन शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पहले धक्के से एक बार लड़खड़ाने के पश्चात फिर एकाएक भक्ति आंदोलन के रूप में भारतीय संस्कृति के प्रवाह ने इस्लामी संस्कृति को भीतर तक भिगो दिया और अपनी भीतरी गंदगी को उठा कर तटों पर फेंक दिया। इस साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन में से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुन: स्थापित हुआ। इस महान सांस्कृतिक क्रांति में संपूर्ण भारतवर्ष ने भाग लिया। शिवकुमार मिश्र के शब्दों में -

'इस आंदोलन में पहली बार राष्ट्र के एक विशेष भूभाग के निवासी तथा कोटि-कोटि साधारण जन ही शिरकत नहीं करते, समग्र राष्ट्र की शिराओं में इस आंदोलन की ऊर्जा स्पंदित होती है, एक ऐसा जबर्दस्त ज्वार उफनाता है कि उत्तार, दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सब मिलकर एक हो जाते हैं और सब एक दूसरे को प्रेरणा देते हैं, एक दूसरे से प्रेरणा लेते हैं और मिलजुलकर भक्ति के एक ऐसे विराट नद की सृष्टि करते हैं उसे प्रवाहमान बनाते हैं, जिसमें अवगाहन कर राष्ट्र के कोटि-कोटि जनसाधारण जन सदियों से तप्त अपनी छाती शीतल करते हैं, अपनी आध्यात्मिक तृषा बुझाते हैं, एक नया आत्मविश्वास, जिंदा रहने की, आत्मसम्मान के साथ जिंदा रहने की, एक शक्ति पाते हैं।' भक्ति काव्य भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूर्तरूप था। हिंदी साहत्य ने इससे कबीर का सिंहनाद प्राप्त किया जिसने निर्गुण साधना और समतावादी जीवनदृष्टि को अपने काव्य में स्थापित किया। तुलसी का रामचरित मानस आदर्श राम राज्य की परिकल्पना लेकर आया। तुलसी ने क्रूर मुस्लिम राज को राक्षस राज के मिथक में बदल दिया। सूर की रागात्मक आशावादी दृष्टि जीवन में प्यार जगाने लगी और जायसी ने पद्मावत के माध्यम से भारतीय संस्कृति की गरिमा को स्वीकार किया। यह अद्भुत तथ्य है कि भयंकर संघर्षों के बीच रचा गया भक्ति साहित्य पूरी तरह असांप्रदायिक या धर्म निरपेक्ष है। यह भारतीय सांस्कृतिक चिंतन का प्रभाव है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्फोट पुन: पुनर्जागरण काल में देखा जा सकता है। राजा राममोहन राय जिस औपनिषदिक ज्ञान को लेकर समाज सेवा की ओर अग्रसर हुए वह शुध्द भारतीय था। स्वामी विवेकानंद ने जिस वेदांत और अद्वैतवाद के आगे पश्चिम को झुकने के लिए विवश किया वह शुध्द भारतीय-सांस्कृतिक चिंतन था। विवेकानंद 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के प्रखरतम विचारक और अजेय योध्दा थे। उनकी धर्म साधना, उनका प्रचार, उनकी दार्शनिकता, उनकी तपस्या, उनके जीवन के सारे क्रिया-कलाप जिस स्रोत से जीवन शक्ति पाते थे वह था राष्ट्रवाद। भारत में रहकर भारतीय शिष्यों के बीच उन्होंने अपने समाज की कमियों को रेखांकित किया, रूढियों पर प्रहार किया, विवशताओं पर आंसू बहाए परंतु पश्चिम में खड़े होकर उन्होंने भारत की आध्यात्मिक श्रेष्ठता का सिंहनाद किया और भारत को धर्म-आध्यात्म के क्षेत्र में विश्व गुरु के रूप में स्थापित किया। कभी भूलकर भी भारत की बुराई विदेश में नहीं की और ऐसा करने वालों को मुहतोड़ जवाब दिया। यह कार्य किसी विरक्त संन्यासी का नहीं, कर्मठ देशभिमानी योध्दा का था जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मजबूत धरती पर स्वतंत्र भारत की नींव रखना चाहता था। महर्षि अरविन्द हो या स्वामी दयानन्द या फिर शरच्चंद्र जैसा साहित्यकार सभी राष्ट्रवाद से प्रेरित थे। भारत का संपूर्ण स्वाधीनता संग्राम अमर बलिदानियों का सुलगता हुआ इतिहास और अहिंसावादियों की आंसुओं में डूबी कहानियां सभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रत्यक्ष रूप है। भारत माता का चित्र, वंदेमातरम् का नारा और तिरंगे की आन के लिए प्राणोत्सर्ग, राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। संपूर्ण भारतीय साहित्य में असंख्य साहित्यकारों ने अनेकानेक भाषाओं में भारतीय संस्कृति का यशोगान किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुनर्जागरण अथवा नवजागरण के युग का सत्य था, स्वाधीनता संग्राम का सत्य था इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य पराजित हुआ, हमें आजादी मिली।

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात,् स्वाधीन भारत ने अपनी सांस्कृतिक पहचान संवारने की जगह भुलाने की कोशिश की। भारतीय संस्कृति को सामूहिक या सामाजिक संस्कृति कहकर उसे कोई विशिष्ट पहचान देने से परहेज किया। 'वोट बैंक' की राजनीति हावी हुई और भारत की सांस्कृतिक पहचान को राजनीतिक स्वार्थ का अजगर निगलने लगा। साहित्यकार सत्ताा से आतंकित हुए या आकर्षित या फिर आजादी के पश्चात् दिग्भ्रमित, धीरे-धीरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राह छोड़ तात्कालिक यथार्थ, कंकड़-पत्थर बटोरने लगे। साहित्य क्रमश: समाज से दूर जा रहा है, उसकी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन पा रहा। आज के साहित्यकार जातीय अस्मिता के प्रतीक न बन कर तुच्छ स्वार्थों की पहरेदारी कर रहे हैं।

इस संक्रांति बेला में राष्ट्रवादी संगठनों का चाहे वे किसी भी क्षेत्र में क्रियाशील क्यों न हों यह दायित्व बनता है कि वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा उठायें, भारतीय संस्कृति के सर्व-समवेशी, सामाजिक रूप की रक्षा करते हुए भी उसकी मूल पहचान को न मिटने दें क्योंकि इससे अलग भारत की कोई पहचान न थी, न है और न हो सकती। वैश्वीकरण के दौर में जहां अस्मिता का संघर्ष और तेज होगा वहां पुन: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से सशक्त भारत, अपराजेय भारत को गढ़ने का काम भारतीय साहित्यकार करते हैं तो साहित्य लेखन को सार्थक करेंगे।
(लेखक हि.प्र. विश्वविद्यालय, शिमला में प्राध्यापक है)

Thursday, January 29, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ


नरेन्द्र मोहन
हिन्दुत्व एक ऐसी भू-सांस्कृतिक अवधारणा है, जिसमें सभी के लिए आदर है, स्थान है और सह-अस्तित्व का भाव भी। इस सह-अस्तित्व प्रधान सांस्कृतिक चेतना ने उसे अत्यंत उदार, सहिष्णु और लचीला भी बनाया। बात तब बिगड़ी जब विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृतियों ने इस अति सहिष्णु संस्कृति की उदारता का लाभ उठा कर इसकी जड़ें ही काटनी प्रारंभ कर दीं। हिन्दुत्व की इस अति-सहिष्णुता को उसकी कायरता माना गया तथा उसके जो भी मूल तत्व थे उन्हें नष्ट-भ्रष्ट करने की हर संभव चेष्टा की गई। अभी भी इस हेतु तरह-तरह के षडयंत्र रचे जा रहे हैं।आक्रमणकारियों के समक्ष पलायन करने की नीति का सह-अस्तित्व, सहिष्णुता के दर्शन और सिध्दांत से कुछ भी लेना देना नहीं है। सह-अस्तित्व व सहिष्णुता और 'आत्मवत्' दर्शन के जो भी शत्रु हैं उनसे मोर्चा लेने, युध्द करने तथा उन्हें पराजित करने का कर्त्तव्य-कर्म तो हिन्दुत्व का आधारस्तंभ अनादि काल से रहा है और रहेगा। जब-जब आक्रमणकारी शत्रुओं से युध्द करने में हिन्दुत्व से चूक हुई तब-तब न केवल अपमान सहना पड़ा है, बल्कि पराधीनता में भी रहना पड़ा है।आज हिन्दुत्व को राजनीति से जोड़ा जा रहा है। उसे एक राजनीतिक अथवा साम्प्रदायिक अवधारणा कह कर लांछित और अपमानित किया जा रहा है। दुख की बात यह है कि यह लांछन अभारतीय तो लगा ही रहे हैं, पर हम भारतवासी भी स्वयं लगा रहे हैं। स्वाधीनता के पहले हिन्दुत्व के प्रति अपमानजनक भाव रखने वालों की संख्या कम थी और केवल दुराग्रही व आक्रमणकारी संस्कृतियों के प्रति तुष्टिकरण का भाव रखने वाले ही 'हिन्दू' शब्द को साम्प्रदायिक बताते थे पर स्वाधीनता के बाद तो 'हिन्दुत्व' को गाली देना और उसका अपमान करना एक बौध्दिक फैशन बन गया और विडंबना यह है कि अपमान, लांछन व तिरस्कार के इस विष को बिना किसी प्रतिकार के 'प्रगतिवाद' के नाम पर सहन किया जा रहा है।लगभग दो हजार वर्षों की दासता ने यही सिखाया है कि विदेशी संस्कृतियां हमारा सहयोग नहीं करना चाहतीं, वे हमें तोड़ कर तथा धवस्त करके हम पर शासन करना चाहती है। विदेशी संस्कृतियां चाहती हैं कि भारत अपनी अस्मिता भुला दे, उसे छोड़ दें, अत: हमें विदेशी प्रचार के उनके प्रलोभनों के प्रति सावधान रहना होगा।भारत की मूर्छा धीरे-धीरे टूट रही है और यह एक शुभ लक्षण है। 'हिन्दुत्व' के प्रति जो भ्रम उत्पन्न किए गए हैं उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक ने नकार दिया है।
भारत के कुछ राजनीतिक दल अज्ञानवश आज भी हिन्दुत्व के प्रति शंकालु हैं। उन्हें हिन्दुत्व की ऊर्जा, उसका तप और उसका सर्वकल्याणकारी भाव ही नहीं दिखाई देता। ऐसे राजनीतिज्ञों से न तो डरने की आवश्यकता होती है और न ही चिन्तित होने की। हाल के वर्षों में वोट बैंक की राजनीति के दुष्प्रभाव में आकर हिन्दुत्व पर जितने अपमानजनक प्रहार किए गए हैं, वे चिंताजनक हैं। इन प्रहारों से भारत का आत्मविश्वास तो टूट ही रहा है, साथ ही नई पीढ़ी के भ्रमित होने की संभावनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। नई पीढ़ी को भ्रमित करने में पश्चिम से आये सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का भी बहुत बड़ा हाथ है। यद्यपि पहले की तरह आज का विश्व राजनीति उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद से पीड़ित नहीं है, पर आने वाली शताब्दी में आर्थिक, सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की समस्याओं से मानवता को जूझना ही होगा। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की तीन धाराएं इस समय विश्व में प्रबलता से चल रही हैं-पहली धारा ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित, पोषित और समर्थित, दूसरी, इस्लामी रूढ़िवादिता से संचालित, पोषित और समर्थित। इस्लाम के अनेक पक्षधार अत्यधिक आक्रामक व दुराग्रही हो चुके हैं। वे इतने अधिक असहिष्णुता-प्रधान हैं कि समस्त विश्व का इस्लामीकरण करने के लिए प्रतिबध्द हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की तीसरी धारा 'साम्यवादी विचारधारा' अर्थात् वामपंथी विचारधारा है। यह चुनौती प्रत्यक्ष कम प्रच्छन्न अधिक है।राष्ट्रीय अज्ञान व विभ्रम की यह स्थिति आज हर स्तर पर है और सर्वाधिक उस वर्ग में है जो राजनीति से जुड़ा हुआ है। राजनीति से जुड़ा यह वर्ग भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्तवों से न केवल अनभिज्ञ है वरन वह भारत के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को पश्चिमी विचारकों की ही दृष्टि से देखना चाहता है।
निस्संदेह भारतीय संस्कृति के संदर्भ में सर्वाधिक विभ्रम अंग्रेज इतिहासकारों ने फैलाया है। ऐसा इसलिए किया गया जिससे भारतीय जनमानस हमेशा-हमेशा के लिए अंग्रेजियत की दासता स्वीकार कर ले तथा भारत पर अंग्रेजी सत्ता का प्रभुत्व बना रह सके। भारतीय एकता और अखंडता को सबसे बड़ा खतरा उस अंग्रेजियत से है जिसका एकमात्र लक्ष्य भारतीय संस्कृति को लांछित करना और भारत को मानसिक स्तर पर विभाजित रखना रहा। यद्यपि रानाडे, लोकमान्य तिलक, मदन मोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, डा0 केशवराम बलिराम हेडगेवार और महात्मा गांधी सरीखे नेताओं ने अंग्रेजों की कुटिलता की कड़ी से कड़ी भर्त्सना की पर कुल मिलाकर भारतीय राजनीति का मन संशयग्रस्त ही रहा और रह-रह कर यह विचार ज्वार-भाटे की तरह उठता और गिरता रहा कि भारत की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है भी या नहीं। भारत की अपनी एक संस्कृति है, इसका सबसे प्रबल विरोध उस समय प्रारंभ हुआ जब मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी। उन्नीसवीं व बीसवीं शताब्दी के भारतीय राजनीतिज्ञों से सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने 'हिन्दू' के संदर्भ में उस परिभाषा को ग्रहण कर लिया जो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी। 'हिन्दू' शब्द एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा की उपज है, यह यथार्थ पता नहीं कैसे भारत में निरन्तर उपेक्षित होता चला गया और यह मान्यता प्रगाढ़ता से भारतीय मन पर छा गई कि 'हिन्दू' एक वैसा ही मजहब है जैसे कि इस्लाम या ईसाइयत।आश्चर्य की बात यह है कि जो भूल इस्लामी आक्रमणकारियों ने भ्रमवश की थी और जिस भूल को अपनी निहित स्वार्थों के कारण अंग्रेजों ने सैध्दांतिक व वैचारिक जामा पहना दिया उसे हम भारतीयों ने भी धीरे-धीरे बिना प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया और परिणामत: सांस्कृतिक स्तर पर नए विभ्रम को जन्म दिया।अंग्रेजी दासता के दौरान भारतीय संस्कृति की इतनी अधिक दुर्दशा कर दी गई कि उसकी सांस्कृतिक व आध्‍यात्मिक शब्दावली तक को भ्रष्ट किया गया और इस शब्दावली के राजनीतिक अर्थ निकाले गए। उदाहरणस्वरूप 'धर्म' शब्द का जैसा मनमाना अर्थ अंग्रेजों ने किया उसके पीछे उनके स्वयं के निहित स्वार्थ थे। उन दिनों यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं, वह तो अंग्रेजों ने आकर इसे राजनीतिक एकता प्रदान कर दी।
प्राचीन भारत की साहित्यिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों को पश्चिम का उच्छिष्ट सिध्द करने के प्रयत्न किए गए और समूचे भारतीय जीवन को आत्मगौरव शून्य एवं आत्मविस्मृत बनाने की दुरभिसंधि रची गयी। एक राष्ट्र के नाते हमारे पहचान के जितने तत्व हो सकते थे अंग्रेज उन्हें पूर्णत: नष्ट या विकृत करने का प्रयत्न करते रहे।मजेदार मामला यह है कि जब भारत का संविधान रचा गया तब न तो भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्वों की ओर ही गंभीरता से निहारा गया और न भारतीय मूल्यों, आदर्शों व श्रेष्ठ परंपराओं तथा भारतीय मन की अभिलाषाओं को ही समझने का प्रयास किया गया। भारतीय संविधान को बनाया गया तो भारत की जनता के लिए, लेकिन भारत की जनता के मन में क्या है, कहां बसती है, उसकी आस्थाएं किस पर हैं, उसका विश्वास क्या रहा है, किन मूल्यों की रक्षा के लिए लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक उसने विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया, यह सब जानने की चेष्टा ही नहीं की गई।ब्रिटिश साम्राज्यवाद को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मैकाले ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के सहयोग से संस्कृति पर प्रहार करने में जो सफलता प्राप्त कर ली उस आघात से भारत आज भी नहीं उबर पा रहा है। जीवन की विश्वात्म धारणा को प्रतिपादित करने वाला भारत, जिसका कभी विश्वास रहा, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' पर वह दुष्प्रचार का शिकार होकर स्वयं ही अपने मूल्य छोड़ बैठा और सांस्कृतिक रूप से बिखर गया। यह सांस्कृतिक बिखराव आज भी राजनीति में हर स्तर पर हमें दिखाई दे रहा है।ऐसा नहीं है कि भारत की संविधान सभा में भारतीय संस्कृति एकात्म भाव तथा राष्ट्रीयता के पक्षधार नहीं थे, पर वे कुल मिला कर मौन ही रहे। जब 7 और 8 दिसम्बर, 1948 को संस्कृति से जुड़े अनुच्छेद पर संविधान सभा में चर्चा हो रही थी तब केवल लोकनाथ मिश्र ने भारत की सांस्कृतिक धरोहर को मान्यता देने का सुझाव दिया था पर उसका उग्र विरोध मुस्लिम सदस्यों द्वारा हुआ और अंतत: 'भारत एक सांस्कृतिक इकाई है तथा उसे अपनी सांस्कृतिक धारोहर की रक्षा करनी है', यह भाव इस विरोधा के कारण भारतीय संविधान का अंग न बन सका।प्राकृतिक अनेकता में मानसिक एकता के जो सूत्र विद्यमान रहते हैं उनसे ही राष्ट्र का और उसकी संस्कृति का निर्माण होता है। इस मानसिक एकता से ही अंतत: राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण भी होता है और इस राष्ट्रीय चरित्र में विभिन्न मूलवंशों के लोग सहभागी और सहयोगी होते हैं। इस सामूहिक अस्मिता के अभाव में राष्ट्र की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सामूहिक अस्मिता का जन्म भारत में कहां से हुआ? यह अस्मिता किन प्रतीकों व आदर्शों से जुड़ी है? कौन हैं इस सामूहिक अस्मिता के प्रेरणास्रोत आज इस प्रश्नों पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए और भी महत्वपूर्ण तथा तात्कालिक हो चुकी है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद उन्तीस में यह प्रतिपादित करके कि हर व्यक्ति को अपनी एक पृथक वैयक्तिक संस्कृति है-एक प्रकार से बिखराव व बिखंडन के बीज बो दिए गए हैं। सिध्दांतत: किसी भी व्यक्ति का कोई भी अधिकार राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकता। हर नागरिक को अंतत: राष्ट्रीय हितों को ही सर्वोच्चता प्रदान करनी होगी।अपने राष्ट्र की संस्कृति के रहस्य को भारत के राजनीतिज्ञ इसलिए नहीं समझ सके, क्योंकि वैयक्तिक स्तर पर वे न तो अज्ञात में छलांग लगाने के लिए तैयार थे और न अपने उन राजनीतिक स्वार्थों व पूर्वाग्रहों को छोड़ने के लिए तैयार थे जो उन्होंने यूरोपीय प्रभाव के कारण प्राप्त किए थे।
स्वतंत्रता के उपरांत भी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव आया हो, यह नहीं कहा जा सकता। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उस समय यदि पं। नेहरू चाहते तो भारतीय संस्कृति को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकते थे और भारत की जो गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा है उसकी रक्षा भी कर सकते थे, पर वे स्वयं के राजनीतिक स्वार्थों और यूरोपीय प्रभाव से इतने अधिक जुड़े रहे कि अगर यह कहा जाए कि इसके दुष्प्रभाव से भटक गए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।यह बात एक बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिए कि भारत एक राष्ट्र है और इस राष्ट्र की अपनी एक संस्कृति है। अगर भारत के राजनीतिज्ञ इस सत्य का साक्षात्कार करने से इंकार करेंगे तो राष्ट्र की प्रभुसत्ता और अखंडता संकट में पड़ सकती है। संकट में इसलिए पड़ सकती है क्योंकि फिर वे समस्त तत्वहीन और श्रीहीन हो जाएंगे जिन पर इस राष्ट्र का एकत्व आश्रित होता है। राजनीति का पहला कर्त्तव्य यह है कि वह राष्ट्रीय एकत्व के प्रति समर्पित हो। यदि राजनीति राष्ट्रीय एकत्व के प्रति समर्पित नहीं है और उसे राष्ट्र की प्रभुसत्ता और अखंडता की चिंता नहीं है तब फिर ऐसी राजनीति कलह को ही जन्म देगी। भारत की सांस्कृतिक एकता का अर्थ यह नहीं है कि भारत में अनेक संस्कृतियां हैं बल्कि इसका अर्थ यह है कि इस राष्ट्र की अपनी एक संस्कृति है और यह एक ऐसी संस्कृति है जो अनेकता को प्रश्रय देती है।अंग्रेजों ने इस झूठ को सौ बार दोहराया कि मजहब के आधार पर देश को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक बनाया जा सकता है, लेकिन अंग्रेजों ने अपने देश में ऐसा नहीं किया। इंग्लैण्ड में तो ईसाइयों के अनेक पंथ है, लेकिन विभिन्न पंथों को मानने वाले अंग्रजों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच विभाजित नहीं किया गया। सच बात तो यह है कि राष्ट्रीयता का संबंध उपासना पध्दति की विभिन्नता से नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीयता उपासना पध्दति से कहीं अधिक विशाल, उदात्त और श्रेष्ठ है। हिन्दुत्व पंथ नहीं है, मजहब नहीं है, वह पंथ या मजहब हो ही नहीं सकता।
मजहब या पंथ के उसमें कोई गुण ही नहीं हैं। जिसमें अनंत जीवन दर्शन, अनंत पंथ, अनंत जीवन-शैलियां, अनंत उपासना-पध्दतियां समाहित हो, उसे कोई किसी एक परिभाषा से कैसे बांधोगा? हिन्दुत्व का सारा प्रयास सामंजस्य एवं एकरसता प्राप्त करना है, सभी सुखी हों, सभी का कल्याण हो, सभी की समृध्दि हो, सभी में मित्रता हो, सभी एक दूसरे के सहयोगी बनें, कोई किसी से द्वेष न करे। ये सारे प्रयास हमें वर्तमान में ही करने होंगे।हिन्दुत्व वर्तमान मेंसत्य का साक्षात्कार ही हिन्दुत्व का प्राणतत्व है और यह साक्षात्कार हमें वर्तमान में करना होता है। अतीत के गुण गाकर हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते। अतीत में क्या था, यह तो इतिहास की बात हो गई, पर क्या होना चाहते हैं, किनकी नकल करना चाहते हैं यह हुई कल्पना की बात। कोई भी समाज इतिहास के कल्पना लोक में जीकर विश्व को नेतृत्व नहीं दे सकता और भविष्य की कोरी कल्पनाओं के आधार पर भी किसी भी समाज ने उन्नति नहीं की है। हिन्दुत्व का आधार है 'चरैवेति'। हिन्दुत्व में ठहराव नहीं है। यह ठीक है कि किन्हीं कारणों से हिन्दुत्व नीचे गहरी खाई में जा गिरा है और यह संभवत: इसलिए हुआ होगा क्योंकि यह प्रकृति का नियम है, लेकिन अब यह कालचक्र उत्कर्ष की ओर बढ़ रहा है। उचित यह होगा कि भारतीय समाज यह समीक्षा करें कि उसके उत्कर्ष में क्या सहायक है और क्या अवरोधक?हिन्दुत्व किन्हीं कारणों से जो भटकावग्रस्त हुआ है, उससे समाज में कलह बढ़ी है, विघटन बढ़ा है, विद्वेष बढ़ा है और दुष्कर्म बढ़ा है तथा उत्कर्ष के स्थान पर पतन हुआ है। हिन्दुत्व का सनातन प्रवाह, जो हमारी राष्ट्रीय चेतना की मुख्यधारा है, उसे शक्तिवान बनाने के स्थान पर यदि कोई उसे प्रदूषित कर रहा है अथवा किसी कारणवश वह प्रवाह प्रदूषणग्रस्त होता चला जा रहा है, तो हमें प्रदूषण की इस सत्यता को स्वीकार करना ही होगा। कपोतवृति अपनाकर हम यथार्थ की उपेक्षा तो कर सकते हैं पर यथार्थ के सत्य को नष्ट नहीं कर सकते।ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज ने जिसे आज 'हिन्दू समाज' कहकर संबोधिात किया जाता है उसने समय-समय पर स्वयं की दुर्बलताओं को दूर करने के लिए संघर्ष नहीं किया। समाज सुधारकों का भी जन्म हुआ, पर जो भी आज तक हुआ है, वह बहुत ही आधार अधूरा है। न तो हमने अंधाविश्वास पर पूर्णत: विजय पाकर बुध्दि व विवेक की सत्ता पुन: स्थापित की है और न पाखंड का ही पूर्ण परित्याग कर अपनी कथनी-करनी के भेद को ही मिटाया है। जाति-प्रथा व वर्ण व्यवस्था में आज सर्वाधिक सहारा मनुस्मृति का लिया जाता है और यह जाने समझे बिना कि मनुस्मृति के नाम जो ग्रंथ बाजारों में बिकता है, वास्तव में क्या है। यह निर्विवादित रूप से सिध्द हो चुका है कि आज जिस ग्रंथ को 'मनुस्मृति' के रूप में जाना जाता है, वह किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा, इस ग्रंथ को एक कालखंड में भी नहीं लिखा गया और समय-समय पर स्वयं के स्वार्थों की रक्षा के लिए इसमें ऐसे विचारों को भी जोड़ दिया गया जो परस्पर विरोधी है। क्या यह स्वयं में एक क्रूर व्यंग्य नहीं है कि जिस 'मनुस्मृति' का आधार लेकर आज जन्म आधारित जाति व वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाता है, उसी व्यवस्था का विधान है कि कर्म के बदलते ही वर्ण भी बदल जाता है।हिन्दुत्व की इस दुर्बलता को कैसे सुधारा जाए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अब यदि भारत का पूरा का पूरा मन नहीं बदलता तो उसके जीवन-दर्शन में जो भारी गिरावट आ गई है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। पर राष्ट्र एवं समाज का मन बदलने के लिए जैसे प्रयास होने चाहिए, उस ओर ध्‍यान देने की चेष्टा नहीं की जा रही है। भारतीय जीवन दर्शन के मन में जो दुर्बलताएं आ गयी हैं उन्हें दूर करने का काम समाज के सभी वर्गों को एकजुट होकर करना होगा। केवल कानून बना देने से भारतीय समाज स्वयं को पतन के गर्त से बाहर नहीं निकाल सकेगा।
(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक थे)

भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम द्विराष्ट्रवाद


डॉ. महेशचन्द्र शर्मा
भारत विभाजन की दुर्घटना तो 1947 में हुई लेकिन इस दुर्घटना के मूल में तथाकथित हिन्दू-मुस्लिम द्वैत है।
हिन्दू यह सम्प्रदायवाची नहीं वरन् राष्ट्रवादी शब्द है। मजहबांरित भारतीयों को जब अहिन्दू के रूप में परिभाषित किया गया तब इन मजहबों के समानान्तरण हिन्दू शब्द का प्रयोग होने लगा लेकिन हिन्दू नाम का इस देश में कोई सम्प्रदाय नहीं है। सभी भारतीय सम्प्रदाय हिन्दू समाज के अंग हैं, मजहबांरित भारतीयों को भी हिन्दू समाज का वैसा ही अंग होना चाहिये जैसे सभी भारतीय साम्प्रदायों को मानने वाले लोग हैं। दुर्भाग्य से इस राष्ट्रीय एकात्मता के विचार को सम्प्रदायिकता का नाम दिया जाता है। इसे मुस्लिम-ईसाई विरोधी हिन्दू साम्राज्यवाद बताया जाता है।

यह एक अशास्त्रीय एवं राष्ट्रविघातक प्रस्थापना है। इस द्वैत का समुचित भाष्य अभी तक नहीं हो सका है। क्या यह राष्ट्रीय द्वैत है, यह उपासना पध्दति का द्वैत है, यह माजहबिक द्वैत है या यह सांस्कृतिक और सामाजिक द्वैत है? क्या यह तथाकथित द्वैत एक नैसर्गिक वास्तविकता है, क्या यह द्वैत तथ्यात्मक वास्तविकता है या यह द्वैत एक कृत्रिम राजनैतिक दुरभिसंधि है?जिन्होंने भारत में मुसलमानों को पृथक राष्ट्रीयता माना उन्होंने द्वि-राष्ट्रवाद अवधारणा प्रस्तुत की। यह एक अवैज्ञानिक विचार है। यदि मजहबों से राष्ट्रीयता बनती तो भारत में तथा विश्व में कहीं भी राष्ट्र संज्ञा का विकास ही नहीं हो पाता। साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के द्वारा इसे प्रस्तुत एवं पोषित करवाया लेकिन सौभाग्य से भारत में कोई भी इस अवधारणा का समर्थक नहीं है। राष्ट्रीयता तत्तवत: भू-सांस्कृतिक अवधारणा है।

सांस्कृतिक रूप से मुसलमान भारतीय जीवन पध्दति एवं संस्कृति से पृथक नहीं है। राष्ट्रीय संदर्भ में यह द्वैत एक अवास्तविकता है।सम्प्रदाय के संदर्भ में यहां कुछ मूलभूत विचारों को समझना जरूरी है। भारत में सम्प्रदाय एक प्रवाही तत्व है, यहां सिमेटिक या सामी सम्प्रदायों के समान संस्थाबध्द सम्प्रदाय नहीं हुआ करते न ही यहां सम्प्रदायांतरण (कनवर्जन) की कोई संस्थाबध्द परंपरा है। सम्प्रदायाधारित संस्थाबध्द मतान्तरण के लिए विदेशी तत्व है। भारत में सदैव ही विविध मत पंथ रहे हैं। यदि पंथों के हिसाब से भारतीय समाज की बहुलता का अध्‍ययन किया जाये तो यहां दो चार नहीं वरन् सैकड़ों सम्प्रदाय होंगे। विविध सम्प्रदायों के गुरूओं अथवा मसीहाओं की संख्या भी सैकड़ों हजारों में होगी। अत: मुस्लिम एक सम्प्रदाय तथा बाकी सब भारतीय दूसरा सम्प्रदाय, इस प्रकार का द्वैत स्थापित करना भी नितांत बचकानी प्रक्रिया है। सामी तरीके की नहीं वरन् भारतीय प्रकार की कुछ संस्थाबध्द सम्प्रदायों की मलिका भी भारत में है।

भारत को तथाकथित हिन्दू व मुसलमान नाम के दो सम्प्रदायों में बांटना किसी भी प्रकार तर्कसंगत नहीं है। सामी मजहबों में भी ईसाई बड़ी संख्या में रहते हैं, थोड़े ही क्यों न हों यहूदी व पारसी भी भारत में रहते हैं, तो क्या ईसाई, पारसी, यहूदी ये अलग-अलग राष्ट्रीयतायें हैं?मुस्लिम, ईसाई, यहूदी व पारसी वे मजहब हैं जो भारत के बाहर से आये हैं, सम्प्रदायों के संदर्भ में स्वागतशील भारत ने इनका स्वागत किया था। ऐतिहासिक कारणों से अनेक भारतीयों ने मतांतरण कर इस्लाम व ईसाइयत को अपने मजहब के रूप में स्वीकार कर लिया, परिणामत: जो मतांतरित नहीं हुये उन सभी भारतीयों को एक सम्प्रदाय कहना, एक तथ्यात्मक भूल है। जो भारतीय मजहबांतरित नहीं हुये वे हिन्दू मजहब के धारक हैं तथा जो मजहबांतरित हो गये वे मुसलमान या ईसाई हैं, यह नितांत ही गलत समाजशास्त्रीय विभाजन है। वे भारतीय जो मजहबांतरित हो गये वे अल्पसंख्यक हैं तथा जो मजहबांतरित नहीं हुये वे बहुसंख्यक हैं, यह विभाजन भी न केवल गलत है वरन् दुर्भाग्यपूर्ण भी है। हर प्रकार से हिन्दू व मुसलमान के नाम का द्वैत अवास्तविक है तथा गलत अवधारणाओं पर टिका है। यह द्वैत ही मुस्लिम पृथकतावाद का पिता है, जिसने कृत्रिम रूप से देश को बंटवाया तथा आज भी वह पृथकतावाद देश में साम्प्रदायिक विद्वेष के रूप में विद्यमान है।वास्तव में हिन्दू यह सम्प्रदायवाची नहीं वरन् राष्ट्रवादी शब्द है।
मजहबांरित भारतीयों को जब अहिन्दू के रूप में परिभाषित किया गया तब इन मजहबों के समानान्तरण हिन्दू शब्द का प्रयोग होने लगा लेकिन हिन्दू नाम का इस देश में कोई सम्प्रदाय नहीं है। सभी भारतीय सम्प्रदाय हिन्दू समाज के अंग हैं, मजहबांरित भारतीयों को भी हिन्दू समाज का वैसा ही अंग होना चाहिये जैसे सभी भारतीय साम्प्रदायों को मानने वाले लोग हैं। दुर्भाग्य से इस राष्ट्रीय एकात्मता के विचार को सम्प्रदायिकता का नाम दिया जाता है। इसे मुस्लिम-ईसाई विरोधी हिन्दू साम्राज्यवाद बताया जाता है। यह एक अशास्त्रीय एवं राष्ट्रविघातक प्रस्थापना है। जब तक भारत में इस प्रस्थापना का सम्मान रहेगा, विभाजनवादी विद्वेष एवं पृथकतावाद यहां पलता रहेगा। मुस्लिम पृथकतावाद को इसी प्रस्थापना ने पोषित किया तथा भारत का विभाजन करवाया। आज भी यही प्रस्थापना पृथकतावादी सम्प्रदायवाद को परिपोषित कर रही है।इस प्रस्थापना को भारत में सेक्युलरिज्म कहा जाता है। जो अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता का पोषण करती है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि वह समाज को सदैव आलोकित करती रहती है। भारत के सभी सम्प्रदाय आपस में गुंथे हुये हैं। उनमें भारत ने पृथकतावाद नहीं पनपने दिया। ऐसा नहीं है कि भारत के विविधा सम्प्रदायों में कभी कटुता नहीं आई, लेकिन भारत के सांस्कृतिक महापुरूषों ने उन्हें समन्वय की राह दी, पृथकता का पोषण नहीं किया, वरन् विविधाता के सम्मान का सृजन किया। परिणामत: सभी सम्प्रदाय भारत की सर्वव्यापी संस्कृति के अंग बने। इस्लाम का भी समुचित भारतीयकरण हुआ था, लेकिन साम्राज्यवादियों ने उसे पृथक्करण की तरफ धाकेला तथा पाश्चात्य शिक्षित भारतीयों के भोले मन ने उसे सेक्युलरिज्म का अवधारणात्मक बाना पहना दिया। परिणामत: सनातनी हिन्दू हो सकता है, जैनी हिन्दू हो सकता है, सिक्ख भी हिन्दू हो सकता है, शैव, शाक्त एवं वैष्णव भी हिन्दू हो सकते हैं, लेकिन यदि मुसलमान व ईसाई भी हिन्दू हो जायेंगे तो उनके पृथक अस्तित्व का क्या होगा, इससे तो सेक्युलरवाद का समापन हो जायेगा। अत: सेक्युलरवाद की रक्षा के लिए आवश्यक है कि पृथकतावादी साम्प्रदायिकता जिन्दा रहे तथा एकात्मवादी राष्ट्रीयता को बहुमतवाद या बहुमतीय सम्प्रदाय की साम्राज्यवादिता कहा जाये।इन स्थापनाओं ने राष्ट्रीयता के संदर्भ में हमें सम्भ्रमित किया। अत: हमने द्वि-राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए भी विभाजत द्वि-राष्ट्र को स्वीकार कर लिया। साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर हम साम्प्रदायिक पृथकतावाद का पोषण करते हैं, राष्ट्रीय एकात्मता को बहुमतवाद कहते हैं। राष्ट्रवाद की तुलना हम पाश्चात्य फासीवाद व नाजीवाद से करते हैं।

हिन्दू-मुसलमान के अतार्किक द्वैत को स्वीकार करते हैं। इस अतार्किक द्वैत की स्थापना के कारण सैंकड़ों भारतीय सम्प्रदायों की अस्मिता को ही नकारते हैं तथा मजहबांतरित सामी-धर्मियों की पृथकता को रेखांकित करते हैं। राष्ट्रीय संस्कृति के आह्वान से उन्हें विमुख करते हैं।इन स्थापनाओं का निश्चित परिणाम होगा पुन: भारत विभाजन की यत्र-तत्र मांग उठेगी। कश्मीर में हम इसी पृथकतावाद को भोग रहे हैं। प्रासंगिक रूप से इस विषय पर दीनदयालजी के दो संदर्भों को हमें स्मरण करना चाहिये। प्रथम संदर्भ 1951 में जनसंघ के प्रथम अधिवेशन में उन्होंने प्रस्ताव रखा था, जिसमें उन्होंने आह्वान किया है:''हिन्दू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य है कि भारतीय जनजीवन के तथा अपने उन अंगों के भारतीयकरण का महान कार्य अपने हाथ में ले जो विदेशियों द्वारा स्वदेशपराभिमुख तथा प्रेरणा के लिये विदेशाभिमुख बना दिया गया है। हिन्दू समाज को चाहिए कि उन्हें स्नेहपूर्वक आत्मसात कर ले। केवल इसी प्रकार साम्प्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण तथा दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।''द्वितीय संदर्भ है जब उन्होंने विभाजित भारत के द्वि-राष्ट्रों के महासंघ निर्माण के लिये डा0 राम मनोहर लोहिया के साथ साझा वक्तव्य दिया :''हमारा मत है कि हिन्दुस्तान की पृथकता कृत्रिम है। दोनों सरकारों के संबंध बिगड़ने का एक कारण उनकी टूटी दृष्टि व टूटी-फूटी बातचीत है। हम चाहते हैं कि दोनों सरकारें टुकड़े-टुकड़े में बातचीत न करके खुले मन से बात करें। इसमें समस्याओं का निराकरण हो सकेगा और पारस्परिक सद्भावना पैदा होकर ''हिन्द पाक महासंघ'' किसी न किसी रूप में बनने का क्रम शुरू हो सकेगा।''हमारी भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का अधिष्ठान अखंड भारत है। भारत-पाक व बांग्लादेश के परिसंघ के रूप में उसे स्वीकार किया जा सकता है।

भारत की पृथकतावादी साम्प्रदायिकता की पूंजीभूत सम्प्रभुता का नाम है पाकिस्तान और बांग्लादेश। भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता में इन्हें विगलित करने की शक्ति है। भारत के मुसलमान भारत की राष्ट्रीयता अर्थात हिन्दुत्व के अभिन्न अंग हैं क्योंकि हिन्दुत्व एक मजहब निरपेक्ष संज्ञा है।हिन्दू के अधिष्ठान पर भारत में थियोक्रेटिक स्टेट की स्थापना की बात अज्ञानमूलक है क्योंकि हिन्दुत्व के पास मुस्लिम या ईसाई के समान कोई पांथिक पुस्तक नहीं है, न कोई एक मसीहा तथा पैगम्बर। अत: भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही भारतीय एकात्मता को प्रतिबिम्बित करने वाला समाजशास्त्रीय सत्य है। हमें इसका साक्षात्कार करना चाहिये।
(लेखक प्रसिध्द चिंतक हैं एवं पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर गहन शोध कर चुके हैं)

Thursday, January 15, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही हमारा मूल विचार है


हृदयनारायण दीक्षित
हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर राष्ट्रीय अन्तर्मंथन जारी है। भारत के राष्ट्रजीवन के लिए यह देवासुर संग्राम जैसा सागरमंथन है। भारत सनातन काल से तत्तव खोजी, सत्य अभीप्सु राष्ट्र है। तर्क, प्रतितर्क, विचार विमर्श हमारे राष्ट्रजीवन की सनातन परम्परा है। तर्क-प्रतितर्क की लोकतंत्री व्यवस्था को जन्म देने का स्वयंभू दावा करने वाला पश्चिमी जगत भी जानता है कि लोकतंत्र भारत का सहज स्वभाव है। पश्चिम का जनतंत्र राजतंत्र की प्रतिक्रिया से आया। भारतीय लोकतंत्र भारत का सहज स्वभाव है और स्वभाव हिन्दुत्व का प्राण है।

आज हिन्दुत्व के आयामों पर मजेदार बहस जारी है। मसलन अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दुत्व क्या है? लालकृष्ण आडवाणी और वाजपेयी के हिन्दुत्व में फर्क क्या है? नरेन्द्र मोदी और विनय कटियार के हिन्दुत्व की दिशा क्या है? क्या अशोक सिंहल और प्रवीण तोगड़िया का हिन्दुत्व किसी और तरह का है? यो प्रागदर्शन में बहस के ये आयाम राजनीतिक हैं। पर हमारे राष्ट्रजीवन में ऐसी बहसें सनातन काल से जारी हैं। महात्मा गांधी, वीर सावरकर, योगी अरविन्द और लोकमान्य तिलक के भी हिन्दुत्व दृष्टिकोण अपने समय अलग-अलग दिखाई पड़े रहे थे। हिन्दुत्व पर डॉ। राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय के भी दृष्टिकोण राष्ट्रीय बहस का विषय बने।

भारतीय दर्शन के इसके भी पहले के सम्मानित कालखण्ड में उपनिषद प्रतीतियों और ऋग्वैदिक मंत्र अभिव्यक्तियों के बीच भी इसी किस्म की इन्द्रधानुषी रंग वाली भिन्नताएं रही। द्वैत, विशिष्ट द्वैत और अद्वैत जैसी प्रतीतियां उगीं। वर्ण व्यवस्था से देखें तो अब्राह्मण ऋषि ऐतरेय ने ऐतरेय ब्राह्मण गाया। अब्राह्मण ऋषि विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र रचा। अब्राह्मण ऋषि व्यास ने महाभारत गीता की सर्जना की। अब्राह्मण ऋषि वाल्मीकी ने रामायण की रचना की। यों ब्राह्मण कभी जाति नहीं थे। समग्रता/टोटेलिटी/सत्य के पर्याय ''ब्रह्म'' नामक तत्व के अध्‍ययन की एक शाखा का नाम ब्राह्मण था। इसी शाखा के ग्रंथ ''ब्राह्मण'' कहलाये। सो हिन्दू प्रतीति की दृष्टि से ऐतरेय, विश्वामित्र व्यास और रविदास ब्राह्मण थे।

भारतीय समाज व्यवस्था के विकार के चलते इन्हें शूद्र कहने की हाहाहूती गलती हुई। सो हिन्दुत्व का सीधा मतलब है तर्क-प्रतितर्क सोच-विचार और सतत् प्रवाही बहस का अनुसंधानपरक अधिष्ठान। डॉ। अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म पर बेशक उत्तेजक सवाल उठाये। उनके सवाल हिन्दू समाज की जाति-वर्ण आधारित व्यवस्था की सहज पीड़ा से आये। लेकिन यह हिन्दुत्व का कमाल है कि उसकी ही कोख से डॉ. अम्बेडकर जैसा अग्निधर्मा विद्रोही पैदा हुआ। उसी की कोख से बुध्द जैसा परिपूर्ण ज्ञानी। बुध्द ने भी हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की तमाम मान्यताओं को काटा। स्वामी दयानन्द ने भी। लेकिन सारा कमाल हिन्दुत्व का है। यहां ज्ञान की यात्रा लगातार जारी ही रहती है। विश्व ज्ञान का प्राचीनतम एनसाइक्लोपीडिया, ऋग्वेद कहता है ''हे परमात्मा, श्रेष्ठ विचार सभी दिशाओं से हमारे पास आयें।'' एतदर्थ हिन्दुत्व की सनातन धारा में सद्विचारों के स्वागत की परम्परा है। हिन्दू आदिकाल से सत्य, शिव और सुन्दर की शोधा यात्रा पर है।

इस्लाम में तर्क असंभव है। सांस्कृतिक धारा के कारण भारत तर्क की धरती है। इस्लाम अव्वल से आखिर तक सब कुछ जान लेने और अपनी ही जानकारियों को श्रेष्ठ मानने का दावा करता है। इस्लाम असहमति पर आक्रमक रहा है। हिन्दुत्व की इस धरती पर ज्ञान की यात्रा और नित्य नई उपलब्धियों के वसंतोत्सव खिलते ही रहते हैं। इस्लाम में डॉ। अम्बेडकर जैसा आग्नेय व्यक्तित्व पैदा नहीं हो सका। चार्वाक जैसा मनमौजी ऋषि समूह भी इस्लाम नहीं पैदा कर सका। स्वामी दयानन्द जैसा रूढ़ि विरोधी महान संत भी इस्लाम नहीं दे सका। ऐसे तमाम सात्विक क्रांतिकारी इस्लाम दे भी नहीं सकता। क्योंकि इस्लाम में तर्क, विचार, शोध, मनन और सतत् चिंतन की परम्परा नहीं है। इस्लाम में तर्क परम्परा होती तो निश्चित ही सलमान रूश्दी, तसलीमा नसरीन, पाकिस्तान लेखिका तहमीना दुर्रानी जैसे प्रख्यात विद्वानों के तर्क भी आदरपूर्वक सुने जाते। तब मौलाना बुखारी हमीद दलवाइ, शाहवल्लीउल्ला, शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी के इस्लामी दृष्टिकोण का मूल्यांकन होता। जिन्ना और अब्दुल कलाम आजाद के इस्लाम को भी अलग-अलग व्याख्या का विषय बनाया जाता।

हिन्दू जीवन रचना और हिन्दुत्व की अवधारणा का कमाल है कि हिन्दुत्व की सनातन बहस में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिस्सा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सुनवाई की। दुनिया के इतिहास में किसी पंथ, मजहब, रिलीजन या सेक्ट को किसी भी देश के न्यायालय में कभी प्रश्नगत नहीं किया गया। क्या विश्व के किसी भी देश की अदालत ''इस्लाम क्या है'' जैसे आस्था भरा प्रश्न पर कड़वी दलीलें सुन सकती है? हिन्दू बहुसंख्यक इस हिन्दुस्थान की सबसे बड़ी अदालत ने हिन्दुत्व के पक्ष और प्रतिपक्ष में तीखे पैने तर्क सुने। सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिसम्बर 1995 को तिरसठ पेजी फैसले में कहा कि हिन्दुत्व का अर्थ है ''भारतीय जन की जीवन शैली।'' यही जीवन शैली हमारी संस्कृति है और हमारे सांस्कृतिक राष्ट्र की मुख्यधारा।

भारतीय लोगों की इस तार्किक जीवन शैली का विकास अचानक नहीं हुआ। हिन्दू संस्कृति की सदा प्रवाहित गंगा से ही इस परिवर्तनकामी, सदा गतिशील और प्रगतिशील राष्ट्रीय राष्ट्रजीवन का विकास हुआ। यूरोप में राष्ट्र की कोई जन्मतिथि नहीं है। सृष्टि की पहली किरण के साथ प्रज्ञा रूपी मन (मनन-सोच विचार) जन्मा। यही प्रज्ञा प्राण ही हिन्दुत्व है। पवित्र हिन्दू भूमि इस प्रज्ञा की धारक है। हिन्दुत्व गंगोत्तरी है। इसी का गंगा-प्रवाह हिन्दू संस्कृति है। हिन्दू संस्कृति की यह गंगा कूड़ा करकट किनारे करती रहती है, पर अमृत जल का प्रवाह जारी रहता है। सो संस्कृति ही इस राष्ट्र का प्राण है। संस्कृति ही इस राष्ट्र की धारक है। संस्कृति ही इसकी नियामक है। सो यही भारतीय राष्ट्रीयता है। भारत राष्ट्र सदा से एक भू-सांस्कृतिक अवधाारणा है। राजनीतिक इकाई नहीं।

सवाल यह है कि भारत का प्राण हिन्दू संस्कृति नहीं तो आखिरकार है क्या? सेकुलरिज्म हमारी राष्ट्रीयता नहीं है। यह हमारी संस्कृति का एक आयाम है। हिन्दू संस्कृति स्वभाव से ही ''आध्‍यात्मिक पंथनिरपेक्ष'' है। राजनीति और राज्य व्यवस्था में पंथनिरपेक्षता की वकालत करना आसान है। हिन्दू दर्शन अध्‍यात्म में भी पंथनिरपेक्ष और तार्किक है। वैदिक काल के ऋषि तर्क करते थे और उपनिषद काल तर्क काल है ही। फिर तो बहस का ही वातायन बना। सूत-शौनक, शंकर-पार्वती, यम-नचिकेता, अष्टावक-जनक, अर्जुन-कृष्ण और तुलसी की रामकथा में काक भुसुण्डी और गरूड़ जैसे पक्षी भी बहस करते हैं। इसी पंथनिरपेक्षी-आध्‍यात्मिकता और सदा लोकतंत्री जन-गण-मन व्यवस्था वाली सनातन संस्कृति से यह राष्ट्र है। इसलिए सांस्कृतिक राष्ट्र भाव ही भारत का मूल विचार है।

पं। दीनदयाल उपाध्‍याय लिखते हैं, ''राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंत:करण में अपनी भूमि के प्रति श्रध्दा की भावना का होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है।''स्वराष्ट्र के प्रति पुलक स्वाभाविक है। क्योंकि स्व हमारा स्वभाव है। हमारे स्व का आदर्श हमारी संस्कृति है। स्वदेश और विदेश में आधारभूत फर्क है। स्वदेश में आत्मीयता है। विदेश में परायापन है। यह तत्व राष्ट्रजीवन के अंतस् में सहज प्रवाहित रहते हैं। त्याग, प्रेम, बंधुत्व हमारा स्वभाव है। यह स्वसंस्कृति से आया। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरूषार्थ हमारे राष्ट्रजीवन में रचे बसे हैं। भारत ने भोग की जगह त्याग अपनाया। भोग रोग है। त्याग योग है। भारत उपयोग पर धयान देता है। पश्चिम उपभोग पर।साधारण सा प्रतीत होने वाला एक असाधारण प्रश्न भारत के लोकजीवन में अक्सर उठता है, किसी भी अनुष्ठान की शुरूआत का उत्सव कैसे प्रारम्भ करे? दारू के गिलासों को टकराकर चियर्स बोलते हुए या एक नारियल फोड़कर? समष्टि/भगवत्ता के प्रति अनुग्राही होते हुए हाथ जोड़कर या सीना तानकर? उत्सव धर्म ज्योति प्रतीक दीपक को जलाकर अपना कोई अनुष्ठान प्रारम्भ करे? या कैंची से फीता काटकर? दीपक प्रज्ज्वलन और नारियल का समर्पण भारत के सनातन मन को आह्लाद देता है। यह भारत के सनातन चित्त की सत्य, शिव और सुंदरतम सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां है। श्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने एक आलेख (जेन्टिलमैन 13 जनवरी- 97) में उक्त सवाल उठाते हुए ''सेकुलरिज्म'' की अच्छी खबर ली थी। आलेख में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद होने वाले जलसे में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की उपस्थिति का विवरण देते हुए श्री आडवाणी ने लिखा सेकुलरिज्म से अभिभूत पं. नेहरू को राष्ट्रपति का ऐसे कार्यक्रम के लिए समय देना नागवार लगा। इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के हजारों मंदिर हिन्दू संस्कृति को नष्ट करने की खातिर ही ढहाये थे। मंदिर भारतीय संस्कृति की शिखर अभिव्यक्तियां ही तो हैं। मंदिर और मस्जिद एक नहीं है। दोनों के अलग-अलग मतलब है। अलग-अलग मकसद।लेकिन

हिन्दुत्व के अधिष्ठान में बहस है। बाकी में नहीं। हिन्दुत्व को हिन्दुज्म कहने वाले गलती पर है। इज्म विचार होता है। हिन्दुत्व विचार नहीं है। यह समग्रता का स्वीकार है। अंग्रेजी अनुवाद की त्रुटिवश हिन्दुत्व को हिन्दुज्म कहा जाता है। साजिशन इसे उग्र या फंडामैंटलिस्ट जैसी संज्ञाएं दी जा रही है। इसे हिन्दूनेस कहना ठीक होगा। इसी राष्ट्रीय अधिष्ठान के दृष्टिकोण से हिन्दुत्व पर जारी बहस का स्वागत है। ध्‍यान रहे इस बहस में सबका आदर है। तर्क चलें। विचार और विमर्श चले। अब कुतर्क नहीं चल सकते। क्योंकि हिन्दुत्व के उपासक जाग गये हैं। बेशक बहस जारी रहे। इसी में से अपने इस सांस्कृतिक राष्ट्र का भविष्य खिलेगा।
(लेखक प्रसिध्द विचारक हैं)

Monday, January 12, 2009

विवेकानंद की विचारधारा



जगमोहन
इतिहास के इस मोड़ से हम कहां जाएंगे? भारत का भविष्य क्या है? आजादी के साठ सालों के दौरान अपना पुरुत्थान करने और विश्व समुदाय में विशिष्ट स्थान पाने का मौका गंवाने के बाद क्या इससे सबक लेते हुए हम नई शुरुआत करेंगे? जब भी मैं खुद से ये सवाल करता हूं, तो मेरे जेहन में इसका सबसे बेहतर जवाब यही आता है कि भारत को आज स्वामी विवेकानंद जैसी आध्यात्मिक और बौद्धिक विभूति की आवश्यकता है। एक विशाल प्रकाश स्तंभ की तरह विवेकानंद ही समुद्री तूफान में डमगम करती भारत की नैया को पार लगा सकते हैं। शोषणकारी पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के गुरुओं द्वारा देश की सोच को बंधक बना लिए जाने के बाद विवेकानंद की दृष्टि और उत्साह ही देश को आध्यात्मिक खुदकुशी से बचा सकता है। बहुत कम लोगों को यह अहसास है कि विवेकानंद उन प्रमुख शिल्पियों में से एक थे जिन्होंने नई सांस्कृतिक धारा से बंजर भारतीय भूमि को सिंचित किया। इस उर्वर भूमि पर मनुष्यता की नई फसल लहलहाई। इन्हीं लोगों ने देश को आजादी दिलाई।


विवेकानंद ने घोषित किया, इस देश की धरा पर सर्वप्रथम आत्मा की नश्वरता का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ-एक कृपालु ईश्वर, जो तमाम लोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष है॥हम ऐसे ही देश के बच्चे हैं। इन प्रेरक शब्दों ने साम्राज्यवादी शासन से उपजे आत्मसंशय को मिटाकर जनता में आत्म सम्मान और आत्मबल का संचार किया, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी और तिलक जैसे युगपुरुष पैदा हुए। भारत की जो हैसियत होनी चाहिए थी वह आज उसकी छायामात्र है। भारत को तो विश्व में जीवनदायी विचारों का प्रवाह करना चाहिए था, लेकिन यह दूसरों के मूढ़ भौतिकवाद से निर्देशित हो रहा है। इसकी अर्थव्यवस्था आमजन की भलाई के लिए होनी चाहिए थी, लेकिन यह अमीरों के उपभोक्तावाद को स्थापित कर रहा है और गरीबों के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है। इसे विविधता में एक्य की अपनी समृद्ध परंपरा का निर्वहन करना चाहिए था, लेकिन यह टकराव और विभ्रम का शिकार होकर अलग-थलग हो गया है। यह सब कैसे हुआ? 19वीं सदी के उत्तरार्ध में, जब भारतीय क्षितिज पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के बादल मंडरा रहे थे, भारतीय जन को निर्मल करने के लिए विवेकानंद गतिशील लक्ष्य के साथ उठ खड़े हुए।


मुख्य दोषियों को इंगित करते हुए उन्होंने कहा, भारत के उच्च वर्ग, क्या तुम सोचते हो कि जिंदा हो? तुम दस हजार साल पुरानी ममी मात्र हो॥माया संसार में वास्तविक भ्रम हो। तुम अपने आपको शून्य में विलीन करके गुम हो जाओ। अपने स्थान पर एक नए भारत को जन्म लेने दो। अगर आज कोई विवेकानंद प्रकट होते तो वह उच्च वर्ग से कहते, आपने देश के साथ विश्वासघात किया है। आपने संविधान के लक्ष्यों में निहित प्रेरणा का गला घोंट दिया। आप प्रशासनिक और राजनीतिक संस्थानों की स्थापना करते रहे, किंतु लोगों में उस चेतना और प्रेरणा का संचार नहीं कर पाए जो उन्हें जीवन और अर्थ प्रदान करती हैं। आपने ऐसे शरीर बनाए हैं जिनमें आत्मा ही नहीं है। त्याग और तपस्या में निहित प्राचीन भाव की श्रेष्ठता की अवहेलना कर दी है और शक्ति व संपदा के नए ईश्वरों की अर्चना शुरू कर दी है। महान अतीत से आपको रत्न चुनने चाहिए थे और पत्थरों को बाहर फेंकना चाहिए था, किंतु आपने ठीक उलटा किया। पत्थर चुन लिए और रत्न फेंक दिए। आप बंदर के मरे हुए बच्चे की भांति देश की छाती से चिपक गए हैं।


आप काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं। जाओ, भारत माता के लिए निकल जाओ। विवेकानंद जानते थे कि स्वस्थ भारत के निर्माण में आध्यात्मिक परंपरा को अहम भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा था-प्रत्येक व्यक्ति की तरह देश के जीवन का भी एक ध्येय होता है। अगर कोई देश अपनी राष्ट्रीय जीवनशक्ति गंवा देता है तो वह राष्ट्र मर जाता है। विवेकानंद की धर्म की अवधारणा मनुष्यता की आराधना के चारों ओर घूमती है। उनके लिए जीव ही शिव है। गरीब, बीमार और जरूरतमंदों की सेवा ही ईश्वर की असली सेवा है। विवेकानंद ने व्यावहारिक वेदांत की वकालत की है। वह कहा करते थे कि तोला भर काम बीस हजार टन बड़ी-बड़ी बातों के बराबर है। कुछ आश्रमवासियों ने उनसे सवाल किया कि जन सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना संन्यासी परंपरा से तादात्मय कैसे बैठाएगी? उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से जवाब दिया, आपकी भक्ति और मुक्ति की चिंता कौन करता है? धार्मिक ग्रंथों के रचियताओं की चिंता कौन करता है? अगर मैं अपने देशवासियों को कर्म-योग के रास्ते पर लाकर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा कर सकूं तो मैं हजार नर्क भी खुशी-खुशी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं राम-कृष्ण या फिर किसी और का अनुयायी नहीं हूं।


मैं केवल उनका भक्त हूं जो भक्ति या मुक्ति की परवाह किए बिना दूसरों की सहायता करते हैं। एक बार विवेकानंद ने खुद अपने वर्ग पर ही सवाल उठा दिए, हम संन्यासियों ने किया क्या है? जनता के लिए हमने क्या किया है? उन्होंने ईसाई मिशनरियों को भी आड़े हाथों लिया, नास्तिकों की आत्मा को बचाने के लिए ईसाई मिशनरियों को भेजने वाले ईसाइयों, तुम उन्हें भुखमरी से बचाने की कोशिश क्यों नहीं करते। एक भूखे मनुष्य को पंथ का पाठ पढ़ाना उसका अपमान है। निर्विवाद रूप से विवेकानंद 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरू में प्रस्फुटित भारतीय पुनर्जागरण के सबसे चमकदार सितारे थे। पुनर्जागरण के प्रभाव में सोया हुआ विशाल भारत जाग कर खड़ा हो गया, किंतु दुर्भाग्य से कुछ कदम सही बढ़ाने के बाद वह गलत दिशा में मुड़ गया। पतन के इस दौर में एक और विवेकानंद की बेहद जरूरत है-ऐसा विवेकानंद जो भटके हुए भारत को सही रास्ता दिखाए। वह लापरवाही, निर्दयता, भ्रष्टाचार और मिथ्याभिमान की वर्तमान संस्कृति के स्थान पर देखभाल, समर्पण, सहिष्णुता और भाईचारे की भावना जागृत करे। तभी भारत अपनी वास्तविक नियति को तलाश सकता है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है