Saturday, February 7, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : वैचारिक मूलमंत्र



लालकृष्ण आडवाणी
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा का सहज स्वरूप हिन्दुत्व बन गया है। हिन्दुत्व केवल अयोध्‍या में मंदिर नहीं है, यह तो हजारों-हजारों वर्षों से हमारे अनुभवों की सामूहिक बुध्दिमत्ता का प्रतीक है। इसलिए अक्टूबर 1961 में मदुरई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक को सम्बोधित करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था-''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''हिन्दुत्व हमारे लिए मात्र नारा नहीं है। यह भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक मूलमंत्र है जिसमें उसकी पहचान और दृष्टि अत्यन्त विशिष्ट रूप से प्रकट होती है।

हिन्दुत्व पंथ या मजहब नहीं है और न ही हिन्दुत्व कोई मजहबी राज्य स्थापित करने का नुस्खा है। इसमें राष्ट्रत्व और सत्त्व समाहित है। यह राष्ट्र को एकजुट करने वाली सुदृढ़ शक्ति है। हिन्दुत्व केवल अयोध्‍या में मंदिर नहीं है, यह तो हजारों-हजारों वर्षों से हमारे अनुभवों की सामूहिक बुध्दिमत्ता का प्रतीक है। इसलिए अक्टूबर 1961 में मदुरई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक को सम्बोधित करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था-



''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''

''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''

पं. नेहरू ने हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं किया। परन्तु भारत की एकता-संस्कृति के मुदृल बंधन का जो आधार स्पष्ट रुप से उन्होंने रखा वह वही है जिसे भाजपा ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व की संज्ञा दी है।

भारतीय राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय एक जन है परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी संस्कृति में ही निहित है-इस बात को न्यायालयों ने अनेक निर्णयों में स्वीकार किया है।

प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी.एन. भगवती और अमरेन्द्र नाथ सेन तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था-
यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्तव बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति हैं। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बाँध रखा है।

इस प्रकार हिन्दुत्व वह आदर्श है जो भूत और भविष्य को वर्तमान से जोड़ता है। सारे रूप में यही भारत की पहचान है। सेक्यूलरवाद के नाम पर राजनीतिज्ञ चाहते है कि यह देश अपनी पहचान भूल जाए। हिन्दुत्व मात्र सिध्दान्त नहीं है, इससे बढ़कर यह भारत के प्रति हमारी प्रतिबध्दता की वास्तविकता है। जब तक भारतीय सभ्यता है हिन्दुत्व का स्थान है। यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। यह हमारा मिशन है। इससे भारतीय राजनीति में नैतिक और आचार संबंधी आधार को बल मिलेगा। जिसे जातिवाद और साम्प्रदायिक वोट बैंक की राजनीति को चलाने वाले धीरे-धीरे समाप्त करते जा रहे है।
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की सफलता यह रही है कि मतदाताओं में इस विचारधारा को संगत मुद्दा बना सकी हैं। हम देशभर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम छद्म सेक्यूलरवाद पर बहस कराने में सफल हुए है। अब अधिक से अधिक लोग महसूस करने लगे है कि सेक्युलरवाद के नाम पर हमारे विरोधी चाहते है कि राष्ट्र अपनी अस्मिता जिसे हिन्दुत्व कहते है उसे नकार दें। इस राष्ट्रीय अस्मिता को भी भारतीयता का नाम दिया जा सकता हैं परन्तु इसका अंतनिर्हित सार एक ही है।

भारतीय सेक्युलरवाद के बारे में एक विशुध्द अध्‍ययन में यूजीन ने लिखा था-भारतीय संस्कृति एक मिली जुली संस्कृति होने के बावजूद उसमें हिन्दुत्व ही अत्यधिक शक्तिशाली और व्यापक रहा है। वे लोग जो बार-बार भारतीय संस्कृति के इस मिले-जुले स्वरुप के बारे में बहुत बल देते है इस बुनियादी तत्तव के महत्व को कम कर देते है। हिन्दुत्व ने ही वास्तव में भारतीय संस्कृति को आवश्यक विशिष्टता प्रदान की है।

हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने लिखा था-
अंग्रेजों ने हमें यह सिखाया है कि पहले हम एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में अभी हमें शताब्दियां लगेगी। यह बात निराधार है। उनके भारत आने के पहले से ही हम एक राष्ट्र थे। एक ही विचार हमें प्रेरित करते थे। हमारी जीवन शैली एक समान थी। चूंकि हम एक राष्ट्र थे इसलिए वे एक साम्राज्य स्थापित करने में समर्थ हुए।

भारत का राष्ट्रत्व न तो ब्रिटिश शासन की देन है न ही उस स्थिति में स्वतंत्रता आन्दोलन की। न ही वह भारत के संविधान से उपजा है। वास्तव में तो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन स्वराज के लिए संघर्ष की अग्नि प्रदीप्त करने हेतु जागृत हुई राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति थी। भारत के संविधान में वस्तुत: उस प्राचीन राष्ट्र को मान्य किया है जो इस भूमि में हजारों वर्षों से विद्यमान रहा है। जब संविधान में गोरक्षा को निवेश सिध्दांतों में शामिल किया गया तो यह उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्वीकारोक्ति थी जो उस राष्ट्र के जीवन का प्राण है।

सामान्यत: हिन्दुस्तान में पिछले 50 सालों में हम साम्प्रदायिक तनाव को दूर नहीं कर पाए। 1947 में तो भयंकर रक्तपात हुआ था और 1947 में रक्तपात होने के बावजूद हमने भारत का जो संविधान बनाया, वह भारत के लिए गर्व की बात है, बहुत गर्व की बात है। ऐसे समय में, जब देश का विभाजन हुआ, जिस विभाजन के लिए महात्मा गांधी ने कहा था कि यह तो पाप है; महात्माजी ने कहा था कि यह तो मेरी मां की हत्या है, एक प्रकार से मातृहत्या है, मेंडीसाइट है। बावजूद इस बात के कि हिन्दुस्तान का बंटवारा धार्म के आधार पर हुआ किन्तु हिन्दुओं का बहुमत कहां है। मुसलमानों का बहुमत कहां है और बावजूद इसके कि हमारे पड़ोसी देश में जिसने कहा कि अगर अखंड हिन्दुस्तान रहेगा तो देश के मुसलमान हिन्दुओं के गुलाम बन कर रहेंगे। This was the thesis और उन्होंने कहा कि इसलिए हमको अलग राष्ट्र चाहिए, अलग राज्य चाहिए, अलग राज्य उन्होंने बना लिया और उस राज्य को इन्होंने इस्लामिक राज्य भी घोषित किया। इन बातों के बावजूद 1950 में जो संविधान स्वीकार किया, वह संविधान उस समय के हमारे नेतृत्व के लिए गर्व की बात है, सम्पूर्ण भारत के लिए गर्व की बात है। उस समय उस संविधान को स्वीकार करना, जिसको हम सैकुलर कहते हैं, जबकि उस समय सैकुलर शब्द का प्रयोग संविधान निर्माताओं ने अपने संविधान में किया भी नहीं था लेकिन सैकुलरिज्म की जो कल्पनाएं हैं वे हमने अपने संविधान के प्रावधानों में लिख दी और तब से लेकर आज तक कोई कुछ कहे हमने मज़हबी राज्य को कभी स्वीकार नहीं किया, न करेंगे और हमारे ऊपर सबसे ज्यादा आरोप लगता है इसलिए हमने कहा कि हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा, हमारे इतिहास का हिस्सा है India's polity, Indias political thinkers haveAlways rejectedA theocratic state. मज़हबी राज्य को हमने कभी स्वीकार नहीं किया, न 1950 में किया, न अब कर रहे हैं, न आगे करेंगे। इस तथ्य को समझ कर लोग चले और जो इससे सहमत नहीं वे मेरी भी आलोचना करते हैं। मैंने जो शब्द प्रयोग किया उसका मेरे ऊपर उपयोग किया गया, चाहे वह बाद में उन्होंने कहा कि हमसे गलती हो गई, हमको नहीं करना चाहिए। उसका कारण यह है कि अगर आप हिन्दू शब्द कहते ही चिढ़ जाएंगे और कहेंगे कि आप गलत बात कर रहे हो तो फिर आप सही नहीं कह रहे हैं जो व्याख्या हिन्दुत्व की सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट में की है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है-
"The words Hinduism or HindutvaAre not confined only to the strict Hindu religious practices unrelated to the cultureAnd ethos of the people of India depicting the way of life of the Indian people,AndAre not confined merely to describe persons practising the Hindu religionAsA faith." इसका कोई अर्थ, यदि कोई दे तो उसे देने दीजिए, लेकिन हमारे लिए थियोक्रेटिक स्टेट स्वीकार नहीं है और न हिन्दुत्व एक ऐसा शब्द है जिसको सुनकर ही तथाकथित बुध्दिजीवी कहेंगे कि यह तो संकीर्ण है, यह तो बिगेट्री है, यह तो ऐसा है, यह तो वैसा है। नि:सन्देह उनके भय के मूल में अल्पसंख्यकवाद पर आधारित छद्म पंथनिरपेक्षता की राजनीति के कारण उत्पन्न जनक्षोभ भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
इस राष्ट्रवाद की आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं है जो हमें वेदों, रामायण, महाभारत, गौतमबुध्द, भगवान महावीर, आदि शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जय प्रकाश नारायण और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

इस प्रकार हिन्दुत्व एक एकात्मवादी सिध्दांत है। यह भारत की आत्मा की रक्षा और उसे पुन: ऊर्जावान बनाने का सामूहिक उद्यम है। यह एक ऐसा सकारात्मक प्रयास है जो किसी भी एक वर्ग को दूसरे की कीमत पर लाभ उठाने की शर्मनाक कोशिशों को रोकता है। हिन्दुत्व है अनुशासन और आत्मानुशासन।

केवल भारतीय राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणाओं में निहित अनंत शक्ति को मान्य करके ही अलगाववादी ताकतें खत्म कर राष्ट्र को एकजुट किया जा सकता है। यह बात गौण है कि आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस अवधारणा को कैसे बताते हैं- हिन्दुत्व के रूप में या भारतीयता के रूप में। मूल तत्त्व तो एक ही है। केवल भारतीय राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणाओं में निहित अनंत शक्ति को मान्य करके ही अलगाववादी ताकतें खत्म कर राष्ट्र को एकजुट किया जा सकता है। यह बात गौण है कि आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस अवधारणा को कैसे बताते हैं- हिन्दुत्व के रूप में या भारतीयता के रूप में। मूल तत्त्व तो एक ही है।
(सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुस्तक से साभार)

1 टिप्पणियाँ:

पंकज व्यास, रतलाम said...

आपका यहाँ आर्टिकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : वैचारिक मूलमंत्र - लालकृष्ण आडवाणी रतलाम, झाबुआ और दाहोद(गुजरात )से प्रkaशित दैनिक प्रसारण में प्रकाशित करने जा रहा हूँ कृपया अपना पोस्टल एड्रेस इस मेल पर सेंड करें ताकि आपको प्रति भेजी जा सकें.
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धन्यवाद्

भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है