Sunday, February 22, 2009

पशुपतिनाथ मंदिर पर प्रचण्ड का आघात


नेपाल के विश्व प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ और नेपाल की सांस्कृतिक पहचान पशुपतिनाथ मंदिर से भारतीय मूल के तीन पुजारियों को निकाल कर नेपाली पुजारियों को नियुक्त करने की घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया कि माओवादी सरकार नेपाल से हिन्दू संस्कृति की पहचान मिटाने पर आमादा है। नेपाल के हिन्दू राष्ट्र होने की पहचान खत्म करने के बाद हिन्दू धर्म और संस्कृति पर एक और माओवादी हमला है जिसकी चारों तरफ तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। यहां तक कि नेपाल की संविधान सभा में प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियां भी इसके विरोध में उतर आईं और इस बहाने सत्ता का नया समीकरण बनाने में जुट गईं हैं। नेपाली कांग्रेस जैसी पार्टी से लेकर पूर्व राजवंश की समर्थक समझी जाने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, नेपाल और हिन्दू गणतंत्र में विश्वास रखने वाली नेपाल जनता पार्टी ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया है और सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। साथ ही, यह मुद्दा नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है। सशस्त्र आन्दोलन और जनविद्रोह के सहारे सत्ता पाने में कामयाब नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के लिए यह मामला गले की हड्डी बन गया है, जो उससे न निगलते बन रहा है और न उगलते।

माओवादी षड्यंत्र
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा के अनुसार पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय मूल के भट्ट पुजारी ही पूजा करते आ रहे हैं। राजा के शासन काल में भी भारतीय पुजारी को हटाये जाने की बात उछाली जाती थी। भट्ट पुजारी पर आरोप लगाया जा रहा था कि वे पशुपतिनाथ मंदिर पर चढ़ावे का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा था कि पशुपतिनाथ के चढ़ावे के रूप में जो भारी रकम और गहने भक्तों द्वारा चढ़ाये जाते हैं, उसे वहां के भट्ट पुजारी अपनी निजी सम्पत्ति समझ भारत ले जाते हैं, इसलिए उसे रोकने के लिए भट्ट पुजारियों को हटाया जाए। उल्लेखनीय है कि राजा के शासन काल में राजा ही इसके संरक्षक एवं रानी अध्यक्ष हुआ करती थीं। यह परम्परा राजा ज्ञानेन्द्र के शासन काल तक चलती रही। इसकी देखभाल के लिए पशुपति क्षेत्र विकास कोष भी बनाया गया है।

नेपाल के गणतंत्र घोषित होते ही नेकपा (माओवादी) सत्ता में आयी और उसने नेपाल की परंपरागत धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं पर आघात करना शुरू कर दिया। ऐसा कर एक ओर वह यह जताना चाहती है कि राजसंस्था के अवशेष के रूप में रही परम्पराओं को मिटाकर पंथनिरपेक्षता को मजबूत कर रही है, दूसरी ओर उसका प्रयास है पंथनिरपेक्षता की आड़ में कम्युनिस्ट शैली की परंपरा को लादना। नेकपा (माओवादी) ने सत्ता में आते ही सबसे पहले पशुपतिनाथ मंदिर से भट्ट पुजारियों को हटाने के लिए पशुपति क्षेत्र विकास कोष का पुनर्गठन किया और माओवादी समर्थकों को उसमें प्राथमिकता दी गई। राजा का शासन समाप्त हो जाने के बाद प्रधानमंत्री ही उसका पदेन अध्यक्ष बना रहे, इसकी व्यवस्था की गई है। इससे भी नेकपा (माओवादी) को भारतीय मूल के पुजारियों को हटाने में सुविधा हुई। सबसे पहले भारतीय मूल के भट्ट पुजारियों को त्यागपत्र देने के लिए परेशान किया गया, माओवादी भ्रातृ संगठन "यंग कम्युनिस्ट लीग" ने धमकी भी दी। बाध्य होकर अपनी जान और पारिवारिक सदस्यों की सुरक्षा हेतु प्रमुख पुजारी महाबलेश्वर सहित तीन भट्ट पुजारियों ने स्वास्थ्य का कारण बताकर संस्कृति मंत्री गोपाल किरांति को त्यागपत्र दे दिया। इन दिनों पशुपतिनाथ मंदिर भी संस्कृति मंत्रालय के ही अन्र्तगत है। संस्कृति मंत्रालय ने तीनों भट्ट पुजारियों का त्यागपत्र 28 दिसम्बर को स्वीकृत किया और नेपाली नागरिक डा। विष्णु प्रसाद दाहाल और शालिगराम ढकाल को नया पुजारी नियुक्त कर डाला। ऐसा कर पुष्पकमल दहल की सरकार ने नेपाली जनता को सन्देश देना चाहा कि नेपाल के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर से भारतीय पुजारियों को निकाला गया है। लेकिन धार्मिक परंपरा के प्रति आस्थावान नेपाली समाज को यह रास न आया और सरकार के इस निर्णय का विरोध शुरू हो गया। जनता एवं धार्मिक संगठन सड़क पर आ गए। वहीं नेपाली कांग्रेस ने इस मुद्दे को संसद में उठाकर सरकार की खिंचाई शुरू कर दी। भारतीय मूल के भट्ट पुजारियों को निकाले जाने के विरोध में होने वाले प्रदर्शन को नेपाली कांग्रेस के नेता नैतिक समर्थन दे रहे हैं।

नेपाल में सैकड़ों वर्षों के इतिहास में सभी शासकों ने इस परंपरा को भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं से ऊश्पर रखा। परन्तु नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सरकार में आने के चार महीने के अन्दर ही नेपाली राष्ट्रीयता के नाम पर नेपाल सहित विश्व भर के हिन्दुओं के आस्था केन्द्र पशुपतिनाथ मंदिर में नेपाली पुजारी के नाम पर माओवादियों को नियुक्त कर दिया। प्रधानमंत्री प्रचण्ड और उनकी पार्टी का दावा है कि जब नेपाल में व्यापक स्तर पर राजनीतिक परिवर्तन हुआ है तब सभी क्षेत्रों में परिवर्तन होना ही चाहिए और इसी क्रम में पशुपतिनाथ की पूजा करने के लिए नेपाली पुजारियों को नियुक्त करने की परंपरा शुरू की गई है। लेकिन प्रधानमंत्री की इस थोथी दलील का आम जनता पर कुछ असर पड़ता नजर नहीं आता। आम नेपाली का मानना है कि सुधार का मतलब यह नहीं होता कि प्रचलित सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं को मिटा दिया जाए। यदि भट्ट पुजारी चढ़ावे का गलत इस्तेमाल करते थे तो उन पर निगरानी रखने की व्यवस्था होनी चाहिए थी, लेकिन भारतीय मूल के होने के कारण ही उन पुजारियों को निकालना उचित नहीं है।

ज्ञानेन्द्र भी विरोध
में नेपाल के गणतंत्र घोषित होने के बाद राजा से नागरिक बने ज्ञानेन्द्र शाह भी भारतीय मूल के पुजारियों को हटाये जाने के विरोध में खुलकर सामने आ गए हैं। जबसे नेपाल गणतंत्र घोषित हुआ है, तब से पूर्व राजा सरकार के सारे फैसले सहजता के साथ स्वीकार कर उसका पालन कर रहे थे। किन्तु पशुपतिनाथ मंदिर संबंधी सरकारी फैसले का विरोध करते हुए उन्होंने कहा है कि विश्व भर में हिन्दू धर्म की आस्था, विश्वास और श्रद्धा के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर को राजनीतिक विवाद से मुक्त रखने के लिए मैं सरकार, श्रद्धालु भक्तजनों और संबंधित पक्षों से अपील करता हूं। 3 जनवरी, 2009 को जारी एक वक्तव्य में पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र ने आग्रह किया है कि शताÎब्दयों से नेपाल धार्मिक और सामाजिक सद्भाव का जो उदाहरण प्रस्तुत करता आ रहा है, वह धूमिल न हो, इसके लिए सभी को प्रयास करना चाहिए।

प्रमुख पुजारी को जान का खतरा
प्रमुख पुजारी महाबलेश्वर का त्यागपत्र स्वीकृत होने पर भी दूसरी व्यवस्था नहीं होने तक उन्हें पूजा करते रहने के लिए कहा गया है। लेकिन महाबलेश्वर इसके लिए तैयार नही हैं। अपने नजदीकी व्यक्तियों को उन्होंने बताया है कि उन्हें अपनी और अपने परिजनों की जान का खतरा है। इसलिए वे जल्द से जल्द सुरक्षित भारत लौटना चाहते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में
याचिका नाराज लोगों ने सरकार के इस हिन्दू विरोधी फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और न्यायालय ने अन्तरिम आदेश जारी कर कहा है कि जब तक इस विषय पर अन्तिम निर्णय नहीं हो जाता तब तक पुराने पुजारी से ही पशुपतिनाथ की पूजा कराई जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि बहुसंख्यक नेपाली नागरिक और हिन्दू धर्मावलम्बी पशुपतिनाथ को आस्था के देवता के रूप में मानते हैं। इसलिए पशुपतिनाथ की पूजा-अर्चना भी प्रचलित रीतिरिवाज, परम्परा और कानून के अनुसार ही होनी चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि नये पुजारियों की नियुक्ति, परंपरा से चली आ रही प्रक्रिया और कानून के विरुद्ध होने से उसे खारिज कर पुराने पुजारियों द्वारा पूजा कराने का अन्तरिम आदेश जारी किया जाए। कृष्ण राजभण्डारी सहित पशुपतिनाथ के चार राजभण्डारी और अधिवक्ता द्वय लोकध्वज थापा एवं विनोद फुयांल ने संयुक्त रूप से यह याचिका दायर की थी। दूसरी याचिका भरत जंगम ने दायर की थी। भरत जंगम को राजपरिवार का समर्थक माना जाता है और राजा ज्ञानेन्द्र के शासन काल में इन्हें राजनीतिक नियुक्ति भी मिली थी।

सर्वोच्च अदालत ने अपने अन्तरिम आदेश में इस बात का भी उल्लेख किया है कि अन्तरिम संविधान की धारा 23 में प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा की मर्यादा कायम रखते हुए परंपरागत धर्म का अवलम्बन करना और उसकी रक्षा करने का अधिकार नेपाली नागरिकों को है। इस आधार पर पुराने पुजारी द्वारा ही पशुपतिनाथ की पूजा कराई जाए। अदालत का आदेश आने से पूर्व पशुपतिनाथ की पूजा करने के सवाल पर पशुपति विकास कोष और स्थानीय लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होने से सुबह पशुपतिनाथ की पूजा नहीं हो पाई और पशुपति क्षेत्र तनावग्रस्त रहा। यह पहला अवसर था जब करीब 7 दिनों तक भगवान पशुपतिनाथ की पूजा नहीं हुई हो।

अदालत की अवमानना
संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर पशुपति विकास कोष किसी भी सूरत में नये पुजारियों द्वारा पशुपतिनाथ की पूजा कराने पर तुला है तो राजभण्डारी नये पुजारियों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दे रहे हैं। राजभण्डारी बन्धुओं ने पशुपतिनाथ मंदिर के चारों दरवाजों पर ताले भी लगा दिये थे। तब संस्कृति मंत्रालय के निर्देश और माओवादी लड़ाकू दस्ते (वाईसीएल) के सहयोग से पशुपति विकास कोष ने मंदिर का ताला तोड़कर नये पुजारियों के हाथों जबरन पूजा करवाई। सर्वोच्च अदालत द्वारा पुराने पुजारी के हाथों पूजा कराने का अन्तरिम आदेश देने के बावजूद प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल (प्रचण्ड) के साथ ही अन्य माओवादी मंत्री न्यायालय के आदेश को मानने से इनकार करते रहे। प्रधानमंत्री का कहना है कि न्यायालय का अन्तरिम आदेश आने से पहले ही नये पुजारियों की नियुक्ति हो जाने से नये पुजारी के हाथों ही पूजा करायी जाएगी। इस विषय को लेकर जब परंपरागत धर्म संस्कृति संरक्षण समिति ने पशुपति मंदिर के पश्चिमी द्वार पर पत्रकार सम्मेलन करना चाहा तब कोष के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं ने पत्रकार सम्मेलन करने का प्रयास करने वालों की जमकर पिटाई की।

इसके बाद से पशुपति मंदिर के नजदीक नये पुजारी की नियुक्ति के विरोध में धर्म-संस्कृति संरक्षण समिति, हिन्दू स्वयंसेवक संघ, नेपाल और नेपाल जनता पार्टी की संयुक्त अगुआई में विरोध प्रदर्शन जारी है। स्थानीय लोगों की बढ़ती सहभागिता को देख प्रशासन ने पशुपति क्षेत्र के आसपास के इलाके को निषिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया है। प्रधानमंत्री दहल और उनकी पार्टी अब यह प्रचारित करना चाहती है कि यह विरोध प्रदर्शन भारत एवं नेपाल के हिन्दूवादियों के बहकावे में हो रहा है। साथ ही इस विवाद को नेपाल-भारत विवाद के रूप में भी प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है। जबकि, बहुसंख्यक नेपाली जनता इसे हिन्दू रीतिरिवाज पर प्रहार मान रही है। हिन्दुत्वनिष्ठ नेपाली समाज का मानना है कि पंथनिरपेक्षता के बहाने माओवादी पार्टी हिन्दू परम्परा को समाप्त करने पर तुली हुई है।

हिन्दू संस्कृति पर माओवादी हमला काठमाण्डू से राकेश मिश्र

Tuesday, February 17, 2009

श्रीगुरुजी और राष्ट्र-अवधारणा


संस्कृति: राष्ट्र संकल्पना का हृदय
राष्ट्र यानी लोग या समाज होता है। उसकी विशेषता उस समाज की संस्कृति होती है।
संस्कृति यानी उस समाज के जीवनमूल्य, संस्कृति यानी उस समाज के अच्छे और बुरे नापने के मापदण्ड। संक्षेप में संस्कृति यानी राष्ट्र और राष्ट्रीयता का प्राण। श्री गुरुजी कहते है:-

``हिन्दू राष्ट्र की हमारी कल्पना राजनीतिक एवं आर्थिक अिधकारों का एक गट्ठर मात्र नहीं है। वह तत्त्वत: सांस्कृतिक है। हमारे प्राचीन एवं उदात्त सांस्कृतिक जीवनमूल्यों से उसके प्राणों की रचना हुई है। और हमारी संस्कृति की भावना का उत्कट नवतारुण्य (तमरनअमदंजपवदद्ध ही हमारे राष्ट्रीय जीवन की सही दृष्टि हमें प्रदान कर सकता है तथा आज हमारे राष्ट्र के सम्मुख खड़ी हुई अगणित समस्याओं के समाधान में हमारे सभी प्रयत्नों को सफल दिशानिर्देश भी कर सकता है। ``किन्तु इन दिनों संस्कृति के नवतारुण्य को प्राय: `पुनरुज्जीवनवाद´ और प्रतिक्रियावाद होने की उपािध दी जाती है। प्राचीन पूर्वाग्रहों, मूढ़ विश्वासों, अथवा समाजविरोधी रीतियों का पुनरुज्जीवन प्रतिक्रियात्मक कहा जा सकता है, कारण इसका परिणाम समाज का पाशाणीकरण (विेेपसपेंजपवदद्ध में हो सकता है। किन्तु शाश्वत एवं उत्कर्षकारी जीवनमूल्यों का नवतारुण्य कभी प्रतिक्रियात्मक नहीं हो सकता। इसे केवल प्राचीन होने के कारण प्रतिक्रियात्मक´ नाम देना, बौद्धिक दिवालियापन प्रकट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अपनी संस्कृति के नवतारुण्य से हमारा आशय उन शाश्वत जीवनादशोZं को पुन: जीवन में उतारने से है, जिन्होंने इन सहस्रों वषो± तक हमारे राष्ट्रजीवन को पोषित किया और अमरता प्रदान की।´´

अपनी संस्कृति की विशेषताओं का विवेचन करते हुए श्री गुरुजी कहते हैं -``प्रथम एवं सर्वािधक मूलभूत पहलू है उस परम सत्य की अनुभूति की आकांक्षा, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है, चाहे उसे कुछ भी नाम दिया गया हो। अथवा सरल ‘ाब्दों में कहा जाय तो ``ईश्वर का साक्षात्कार करना। किन्तु ईश्वर है कहाँ? हम उसे कैसे जान सकते हैं? उसका स्वरूप कैसा है? उसके रूप, गुण क्या हैं? कि हम उसका ध्यान कर सकें और उसको पावें? उसका यह वर्णन कि वह निर्गुण और निराकार है इत्यादि, हमारी समस्याओं को सुलझाता नहीं। पूजा के विविध पंथ भी विकसित हुए हैं। लोग मंदिरों में जाते हैं और सर्वशक्तिमान् का प्रतीक मानकर मूर्तियों पर ध्यान केिन्द्रत करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु जो कि कर्मशक्ति से पूर्ण है उनको यह सब सन्तुष्ट नहीं करता।

``अतएव हमारे पूर्वजों ने कहा है ``हमारा समाज ही हमारा ईश्वर है। ``जनता जनार्दन´´ है। भगवान् रामकृष्ण परमहंस ने कहा है -`मनुष्य की सेवा करो´। जनता में जनार्दन देखने की यह अतिश्रेष्ठ दृष्टि ही हमारे राष्ट्रकल्पना का हृदय है। उसने हमारे चिन्तन को परिव्याप्त कर लिया है तथा हमारे सांस्कृतिक दाय की विविध अनुपम कल्पनाओं को जन्म दिया है।´´


ईश्वर की सेवा यानी समाज की सेवा। ईश्वर की पूजा यानी जनता जनार्दन की पूजा। इस भाव को यदि हमने हृदयंगम किया तो फिर मनुष्य अपने अिधकारों की बात नहीं करेगा। अपने कर्तव्यों का ध्यान रखेगा। श्री गुरुजी कहते हैं ``आज हम सभी जगह अिधकारों के लिए मचा हुआ कोलाहल सुनते हैं। हमारे सभी राजनैतिक दल समान अिधकारों की बात बोलते हुए लोगों में अहंभाव जागृत कर रहे हैं। कहीं भी कर्तव्य और नि:स्वार्थ भाव की सेवा पर कोई बल नहीं दिया जाता। स्व-केिन्द्रत अिधकार-ज्ञान के वायुमण्डल में सहयोग की भावना, जो समाज की आत्मा होती है, जीवित नहीं रह सकती। इसी कारण आज हम अपने राष्ट्रजीवन में विविध घटकों के बीच संघर्ष देख रहे हैं। केवल हमारी सांस्कृतिक दृष्टि के आत्मसात् करने से ही हमारे राष्ट्रजीवन में सहयोग की सच्ची भावना एवं कर्तव्य की चेतना पुनर्जीवित हो सकती है।´´

अपनी संस्कृति की और एक विशेषता, श्री गुरुजी बताते हैं। ``हिमाचल के समान उन्नत
हमारी संस्कृति का एक और शिखर है जिसपर पहुँचने की महत्वाकांक्षा अभी तक संसार में अन्य किसी ने नहीं की है। `एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति´´ वाक्यद्वारा जिस भाव की अभिव्यक्ति की गई है- अथाZत् सत्य एक है, ऋषि उसे विविध प्रकार से बताते हैं - इस प्रकार भाव को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी में कोई ‘ाब्दरचना नहीं है। `सहिष्णुता´ शब्द, जो इस भाव को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में आता है, बहुत नीचा है। वह तो सहन करने मात्र का भाव व्यक्त करने के लिए एक अन्य शब्द है। इसमें एक अहं का भाव है, जो केवल दूसरों के दृष्टिकोण को मात्र सहन करता है, उसके लिए कोई प्रेम या सम्मान नहीं रखता। परन्तु, हमारी शिक्षा अन्य विश्वासों एवं दृष्टिकोणों को इस रूप में सम्मान करने तथा स्वीकार करने की भी रही है कि वे सब एकही सत्य तक पहुँचने के लिए अनेक मार्ग हैं।´´

श्री गुरुजी आगे बताते हैं ``जब हम अपने उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों की बात करते हें तो
आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता में पले हुए लोग सोचते हैं कि यह कोई रहस्यात्मक चीज है, कुछ पारलौकिक वस्तु है। किन्तु यह केवल हमारे मानसिक दास्य की वर्तमान गहराई को ही प्रकट करता है, जिसने हमें उन सिद्धान्तों को समझने के सामथ्र्य से भी वंचित कर दिया है, जो कभी हमारे राष्ट्रजीवन का गौरव थे।´´

नाच, गाना, नाटक, चलचित्र को ही सांस्कृतिक कार्य मानना श्री गुरुजी को मान्य होना
सम्भव ही नहीं था। वे कहते हैं ``आज हम एक दूसरी पराकाष्ठा देखते हैं। नाच, गाना,
चलचित्र तथा नाटकों को ही हम संस्कृति मानने लगे हैं। हम इस प्रकार के `संास्कृतिक कार्यक्रम´ अपने देश में सभी जगह चलते हुए देखते हैं। निस्संशयरूपेण हल्के मनोरंजन का एक दूसरा नाम संस्कृति हो गया है। यह इतनी हास्यासपद और अपमानकारी सीमातक पहुँच गया है कि नैतिक दुश्चरित्रता के कीचड़ में फँसे हुए चलचित्र के कुख्यात नट-नटी हमारे सांस्कृतिक प्रतिनििधमण्डलों में सिम्मलित किये जाते हैं। जिस देश में राम और सीता जैसे आदशZ चरित्र हुए, जिसने भूतकाल में श्रेष्ठतम दार्शनिक एवं ऋषियों और वर्तमान काल में विश्व में सहज सम्मान तथा प्रेमादर प्राप्त करनेवाले रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद जैसे व्यक्तियों को अपने सांस्कृतिक प्रतिनििध के नाते भेजा है, वहाँ से ऐसे व्यक्तियों का हमारे देश के सांस्कृतिक प्रतिनििध के नाते जाना हमारे पतन का एक भयावह दृश्य उपस्थित करता है।´´

हमारी इस उन्नत संस्कृति की आवश्यकता केवल अपने देश तक सीमित नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी उसकी उपयोगिता है, इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए श्री गुरुजी बोलते है, ``हमारी सांस्कृतिक दृष्टि को ही, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम और सामंजस्य के लिए सच्चा आधार प्रदान करती है, और जीवन के सम्पूर्ण दर्शन को पूर्त करती है, आज के इस युद्ध से ध्वस्त हुए विश्व के सामने प्रभावी ढंग से रखने की आवश्यकता है। यदि इस महान् जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें प्रथम अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें विदेशी वादों (पेउे) की मानसिक Üाृंखलाओं और आधुनिक जीवन के विदेशी व्यवहारों तथा अस्थिर ``फैशनों´´ से अपनी मुक्ति कर लेनी होगा। परानुकरण से बढ़कर राष्ट्र की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती है। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण प्रगति नहीं है।´´ (विचार नवनीत-पृष्ठ. 23 से 32)
संकलनकर्ता - मा.गो.वैद्य

हिंदुत्व एजेंडे का अर्थ


बलबीर पुंज
हिंदुत्व एजेंडे का अर्थ नागपुर बैठक के बाद राजनीतिक हलके में चुनावी रणनीति के तहत भाजपा के अयोध्या और हिंदुत्व एजेंडे की ओर वापस लौटने की चर्चा चल रही है। यह बहस निरर्थक है, क्योंकि भाजपा ने कभी अयोध्या और हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ा ही नहीं था। भाजपा की विचारधारा में हिंदुत्व ही मूल है। भारत के पंथनिरपेक्ष और बहुलवादी चरित्र का मूलाधार भी यही सनातन चिंतन है। हिंदुत्व के बिना भारत मजहब आधारित जिहादी पाकिस्तान का प्रतिरूप होगा। विभाजन के साथ पाकिस्तान ने अपने हिंदू अतीत को नकारा और वहां बचे हिंदुओं को मतांतरण अथवा पलायन के लिए विवश किया। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद की राजधानी के रूप में कुख्यात हो चुका है।

वैदिक ऋचाओं के माध्यम से विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाला सिंधु नदी का पावन तट आज आतंकवाद की उपजाऊ भूमि के रूप में उभरा है। हिंदुत्वविहीन पाकिस्तान का एजेंडा जिहादी तय कर रहे हैं। क्यों? हमें जिस बहुलतावादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत पर गर्व है उसका यह स्वरूप संविधान के कारण नहीं है, बल्कि हिंदुत्व की बहुलतावादी सनातनी संस्कृति के कारण संविधान पंथनिरपेक्ष और सम्मानित है। जिस सभ्यता-संस्कृति में संविधान को क्रियाशील रहना है उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति से साम्य नहीं रखने वाला संविधान कभी भी दीर्घजीवी नहीं रह सकता। इसीलिए पाकिस्तान में पंथनिरपेक्षता और प्रजातंत्र जड़ नहीं पकड़ सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय मुस्लिम लीग को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल विभाजन के खिलाफ थे, किंतु कम्युनिस्टों ने जिन्ना को वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए जो मजहब आधारित राष्ट्र की मांग के लिए जरूरी थे। क्यों? इसलिए कि कम्युनिस्ट भारत की मूल प्रकृति व संस्कृति से कटे-छंटे थे। 1962 के चीन के आक्रमण के समय कम्युनिस्ट चीन के साथ थे। जब चीन परमाणु शक्ति से संपन्न हुआ तो कम्युनिस्टों ने तालियां बजाईं, किंतु पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण से उन्हें बड़ी तकलीफ हुई।

वामपंथियों और भारत के बीच जो असंगति है उसका कारण यही है कि मा‌र्क्स के मानसपुत्रों में हिंदुत्व का अभाव है। दुर्भाग्य से मीडिया के एक बड़े वर्ग में विकृत सेकुलरवाद के प्रति आसक्ति और हिंदू विरोधी मानसिकता हावी है। तकरीबन पिछली दो पीढ़ी नेहरूवादी स्वाधीन भारत में पल कर बड़ी हुई हैं। नेहरूवादी पाश्चात्य उन्मुक्तता इस्लामी कट्टरवाद के लिए सहिष्णुता और हिंदू पहचान के प्रति वैमनस्य का ही नाम था। उनके बाद इंदिरा गांधी के दौर में वामपंथियों का गुट मीडिया और शीर्षस्थ बौद्धिक संस्थानों पर हावी हुआ। वामपंथियों के लिए राष्ट्रवाद कोई मायने नहीं रखता था, इसलिए इस राष्ट्र का गौरव उन्हें आकर्षित नहीं कर सका। जिस मानसिकता ने देश का विभाजन कराया, आजादी के बाद जिसने सांप्रदायिक वैमनस्य के बीज बोए उसके लिए देश की पुरातन मान्यताएं व उसकी गरिमा गौण है। रोम, मिस्त्र, यूनान आदि सभ्यताएं काल के गाल में समा गईं, किंतु हिंदू सभ्यता नित नूतन है। इसीलिए, क्योंकि भारत का सतत अस्तित्व हिंदू दर्शन पर आधारित है। भारत की पहचान किसी एक पंथ या पूजा पद्धति से नहीं जोड़ी जा सकती।

हिंदू दर्शन में अनंत काल से विचार-विमर्श और श्रेष्ठ चिंतन के आदान-प्रदान की दीर्घ परंपरा रही है। यूरोप में रोमन साम्राज्य की छत्रछाया में ईसाइयत ने मूर्तिपूजकों के साथ लड़ाई लड़ खुद को स्थापित किया। लिथुआनिया में 14वीं सदी तक मूर्तिपूजन विद्यमान था, किंतु ईसाइयत उसे निगल गई। वह एक बर्बर सामूहिक नरसंहार का दौर था जब श्वेत ईसाइयत लेकर अमेरिका पहुंचे और वहां के निवासियों को ईसाई बनाया। मध्यकाल इस्लामी बर्बरता और हिंसा के बल पर मतांतरण का साक्षी है। इस तरह की असहिष्णुता के लिए हिंदू दर्शन में कभी कोई स्थान नहीं रहा है। हिंदुत्व को फासीवादी और सांप्रदायिक संज्ञा देना वास्तव में भारत के सनातन चरित्र को कमजोर करने का षड्यंत्र है। इस कुप्रचार का लक्ष्य प्रजातांत्रिक और सहिष्णु मूल्यों को कमजोर कर मध्यकालीन कट्टरता को वापस लाना है।

आज भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश इस्लामी जिहाद से त्रस्त हैं। राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए भाजपा यदि इस्लामी आतंकवाद से कड़ाई से निपटने की मांग करती है, मौत के सौदागरों को मिल रहे स्थानीय समर्थन पर प्रश्न खड़ा करती है तो इसे किस तरह सांप्रदायिकता से जोड़ा जाता है? महात्मा गांधी ने रामराज्य के आधार पर ही एक पंथनिरपेक्ष जनकल्याणकारी राष्ट्र की कल्पना की थी। क्या गांधीजी और भाजपा के राम अलग-अलग हैं? राम तो हिंदुत्व के प्राण हैं। हिंदुत्व केवल राम मंदिर तक सीमित नहीं है। पोखरण द्वितीय भी हिंदुत्व एजेंडा का अंग था। भाजपा नीत राजग सरकार के काल में प्रारंभ किए गए राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण, दूरसंचार क्रांति, सर्व शिक्षा अभियान आदि भी उसी एजेंडे से प्रसूत थे। उसी एजेंडे से दीप्त गुजरात आज विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ रहा है। हिंदुत्व भारतीयों को खुशहाल, समृद्ध, शांतिप्रद भारत के लिए प्रेरित करता है, जहां सब के विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध हों, जहां सार्वजनिक जीवन में मर्यादा और शुचिता का महत्व हो। वर्तमान संप्रग सरकार में आधा दर्जन ऐसे मंत्री हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। एक पर हत्या का आरोप है, किंतु वह महत्वपूर्ण पद पर कायम हैं।

श्रीराम ने पिता के आदेश का पालन करने के लिए राजपाट का मोह छोड़ वनवास स्वीकार किया। उसी हिंदुत्व के कारण लालकृष्ण आडवाणी ने हवाला कांड में अपना नाम शामिल होने पर सार्वजनिक जीवन से तब तक के लिए अवकाश ले लिया था जब तक जांच में वह निर्दोष साबित न हो जाएं। क्या हिंदुत्व इस सनातन राष्ट्र की कालजयी सभ्यता का बोधक नहीं है? सेकुलरिस्ट अगर इसी देश में कश्मीरियत को स्वीकार सकते हैं तो समग्र रूप से पूरे हिंदुस्तान की सभ्यता के लिए हिंदुत्व के प्रयोग पर आपत्ति क्यों है? इस देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं तो उन पर समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जा सकती है? एक समुदाय अपने लिए अलग कानून और अदालत की मांग क्यों करता है और उस मांग को सेकुलरिस्टों का समर्थन क्यों मिलता है? हिंदुत्व का अर्थ सर्वधर्म समादर है। यह मजहब के आधार पर किसी समुदाय के लिए विशेष अधिकारों की व्यवस्था नहीं देता।

हिंदुत्व के समर्थक क्या कभी ऐसे राज्य की कल्पना करते हैं जिसमें शंकराचार्य फतवा जारी कर रहे हों और संत न्यायाधीश की कुर्सी पर विराजमान हों? भाजपा के हिंदुत्व का जिस सेकुलरवाद के नाम पर विरोध किया जा रहा है उसका भारत में क्या अर्थ है? बहुसंख्यक हिंदू समाज को अपनी शिक्षण संस्था चलाने के अधिकार से वंचित रखना और अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम व ईसाइयों को न केवल यह अधिकार देना, बल्कि उनकी संस्थाओं को राज्याश्रय और वित्तीय मदद उपलब्ध कराना, जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल चरित्र को कायम रखने के लिए धारा 370 की व्यवस्था के अंतर्गत शेष भारतीयों की वहां रिहायश पर पाबंदी लगाना, हिंदू तीर्थस्थलों का अधिग्रहण और उन तीर्थस्थलों से हुई आमदनी से हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये हज सब्सिडी के रूब में बांट देना क्या सेकुलरवाद की विकृति को उजागर नहीं करते? इस विकृत सेकुलरवाद का विरोध आज सांप्रदायिकता है। क्यों?
साभार-जागरण
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)

Thursday, February 12, 2009

भारत की पहचान है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


सौरभ मालवीय
''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूध्द होता गया। अब अवरूध्द मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है। उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति, संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।
प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंग्विन डिक्श्नरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौध्दिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हब्शियों (नीग्रो) पूजा पध्दति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पध्दति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पध्दतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है। अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी सांस्कृतिक हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सम्मिलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। ''काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा'' या । Nation is making. राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अर्थों में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युध्द के बाद अनेक राष्ट्रों को षडयंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह ­प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (Multi Nationality, Mix Culture) बहु सांस्कृतिक राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति, पंजाबी संस्कृति, उड़िया संस्कृति, तेलुगु संस्कृति, कन्नड़ संस्कृति, मराठी संस्कृति, तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी ''संस्कृति की पहचान'' के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे। - ''भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं'' इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योर्तिलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।
''न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वेग्र मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि''

अर्थात् मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

Monday, February 9, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : भारतीयता की अभिव्यक्ति


पं. दीनदयाल उपाध्‍याय
भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है; एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े कर हमारे जीवन का विनाश कर देगा।

संस्कृति ही भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूंजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातन्त्र तथा राजनैतिक पूंजीवाद का निर्माण करना चाहते हैं। अत: उनमें सब प्रकार की सद्भावना होते हुए भी इस बात की सम्भावना कम नहीं है कि उसके द्वारा भी भारतीय आत्मा का तथा भारतीयत्व का विनाश हो जाय। अत: आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाय। तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा राष्ट्र-विघटन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे। अत: मुस्लिम लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्वि-संस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहु-संस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक-संस्कृतिवाद को सम्प्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किन्तु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर एक-संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखण्डता बनी रह सकती है, तभी हम अपनी सम्पूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।


मनुष्य अनेक जन्मजात प्रवृत्तियों के समान, देशभक्ति की भावना भी स्वभाव से ही प्राप्त करता है। केवल परिस्थितियों एवं वातावरण के दवाब से किसी व्यक्ति में ये प्रवृत्ति सुप्त होकर विलीनप्राय हो जाती है। इस प्रकार विकसित देश-प्रेम के व्यक्ति, अपनी कार्य-कलापों की प्रेरणा अस्पष्ट एवं क्षीण भावना से नहीं वरन् अपने स्वप्नों के अनुसार अपने देश का निर्माण करने की प्रबल ध्‍येयवादिता से पाते हैं। भारत में भी प्रत्येक देशभक्त के सम्मुख इस प्रकार का ध्‍येय-पथ है तथा वह समझता है कि अपने पथ पर चलकर ही वह देश को समुन्नत बना सकेगा। यह धयेय-पथ यदि एक ही होता तथा सब देश-भक्तों के लिये आदर्श भारत का स्वरूप भी एक ही होता तब तो किसी भी प्रकार के विवाद या संघर्ष का प्रश्न नहीं था, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि आज भिन्न-भिन्न मार्गों से लोग देश को आगे ले जाना चाहते हैं तथा प्रत्येक का विश्वास है कि उसी का मार्ग सही मार्ग है। अत: हमको इन मार्गों का विश्लेषण करना होगा और तब ही हम प्रत्येक की वास्तविकता को भी समझ सकेंगे।
चार प्रमुख मार्ग
इन मार्गों को देखते हुए हमें चार प्रधान वर्ग दिखाई देते हैं, अर्थवादी, राजनीतिवादी, मतवादी तथा संस्कृतिवादी।
अर्थवादी
प्रथम वर्ग अर्थवादी, सम्पत्ति को ही सर्वस्व समझता है तथा उसके स्वामित्व एवं वितरण दोषों को सब प्रकार की दुर्व्यवस्था को जड़ मान कर उसमें सुधार करना ही अपना एकमेव कर्तव्य समझता है। उसका एकमेव लक्ष्य 'अर्थ' है। साम्यवादी एवं समाजवादी इसी वर्ग के लोग हैं। इनके अनुसार भारत की राजनीति का निधार्रण अर्थ-नीति के आधार पर होना चाहिये तथा संस्कृति एवं मत (Religion) को वे गौण समझकर अधिक महत्व देने को तैयार नहीं हैं।

राजनीतिवादी
राजनीतिवादी दूसरा वर्ग है। यह जीवन का सम्पूर्ण महत्व राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करने में ही समझता है तथा राजनीतिक दृष्टि से ही संस्कृति, मज़हब तथा अर्थनीति की व्याख्या करता है। अर्थवादी यदि एकदम उद्योगों का राष्ट्रीयकरण अथवा बिना मुआविजा दिये जमींदारी-उन्मूलन चाहता है तो राजनीतिवादी अपने राजनीतिक कारणों से ऐसा करने में असमर्थ है। इस प्रकार उसके लिए संस्कृति एवं मज़हब का भी मूल्य अपनी राजनीति के लिए ही है, अन्यथा नहीं। इस वर्ग के अधिकांश लोग कांग्रेस में हैं जो आज भारत की राजनीतिक बागडोर संभाले हुए है।

मतवादी
तीसरा वर्ग मज़हब-परस्त या मतवादी है। इसे धर्मनिष्ठ कहना ठीक न होगा; क्योंकि धर्म; मज़हब या मत से बड़ा तथा विशाल है। यह वर्ग अपने-अपनी मज़हब के सिध्दान्तों के अनुसार ही देश की राजनीति अथवा अर्थनीति को चलाना चाहता है। इस प्रकार का वर्ग मुल्ला-मौलवियों तथा रूढ़िवादी कट्टरपंथियों के रूप में अब भी विद्यमान है, यद्यपि आजकल उसका बहुत प्रभाव नहीं रह गया है।

संस्कृतिवादी
चौथा वर्ग संस्कृतिवादी है। इसका विश्वास है कि भारत की आत्मा का स्वरूप प्रमुखतया संस्कृति ही है। अत: अपनी संस्कृति की रक्षा एवं विकास ही हमारा कर्तव्य होना चाहिये। यदि हमारा सांस्कृतिक ह्रास हो गया तथा हमने पश्चिम के अर्थ-प्रधान अथवा भोग-प्रधान जीवन को अपना लिया तो हम निश्चित ही समाप्त हो जायेंगे। यह वर्ग भारत में बहुत बड़ा है। इसके लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तथा कुछ अंशों में कांग्रेस में भी हैं। कांग्रेस के ऐसे लोग राजनीति को केवल संस्कृति का पोषक मात्र ही मानते हैं, संस्कृति का निर्णायक नहीं। हिन्दीवादी सब लोग इसी वर्ग के हैं।

मार्गों की प्राचीनता
उपर्युक्त चार वर्गों की विवेचना में यद्यपि हमने आधुनिक शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु प्राचीन काल में भी ये चार प्रवृत्तियां उपस्थित थीं तथा इनमें एक एक प्रवृत्ति को ही अपनाकर हमने अपने जीवन के आदर्श का मानदण्ड बनाया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही चार प्रवृत्तियां हैं। धर्म संस्कृति का, अर्थ नैतिक वैभव का, काम राजनैतिक आकांक्षाओं का तथा मोक्ष पारलौकिक उन्नति का द्योतक था। इनमें से हमने धार्म को ही अपनी जीवन का आधार बनाया है, क्योंकि उसके द्वारा ही हमने शेष सबको सधाते हुए देखा है। इसीलिये जब महाभारत काल में धार्म की अवहेलना होनी प्रारम्भ हुई, तब महर्षि व्यास ने कहा :-
''उधर्वबाहुर्विरोम्पयेष न च कश्चिच्छृणेति मे।
धर्मादर्थश्य कामख्य स धर्म: किं न सेव्येत॥''

अर्थ और काम की ही नहीं, मोक्ष की भी प्राप्ति धार्म से होती है; इसलिये धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि ''यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस् सिध्दि: स धर्म:।'' जिससे ऐहिक और पारलौकिक उन्नति प्राप्त हो वही धर्म है। यह धर्म निश्चित ही अंग्रेजी का रिलीजन नहीं है। रिलीजन के लिये तो हमने मत शब्द का प्रयोग किया है, जो प्रत्येक के लिये भिन्न होता था तथा मोक्ष-निर्वाण अथवा परमानन्द-प्राप्ति का साधान होता था, जबकि धर्म के द्वारा सम्पूर्ण समाज की धारणा तथा उसके अंगों का पालन होता था। इसलिये धर्म की भी व्याख्या की गई है :-
''धारणाध्दर्मभित्याहु धर्मो धारयते प्रजा:।''

धर्मप्रधान भारतीय जीवन
भारतीय जीवन को धर्म-प्रधान बनाने का प्रमुख कारण यह था कि इसी में जीवन का विकास सबसे अधिक निश्चित है। आर्थिक दृष्टिकोण वाले लोग यद्यपि आर्थिक समानता के पक्षपाती हैं, किन्तु वे व्यक्ति की राजनीतिक एवं आत्मिक सत्ता को पूर्णत: समाप्त कर देते हैं। राजनीतिवादी प्रत्येक व्यक्ति को मतदान का अधिकार देकर उसके राजनैतिक व्यक्तित्व की रक्षा तो अवश्य करते हैं किन्तु आर्थिक एवं आत्मिक दृष्टि से वे भी अधिक विचार नहीं करते। अर्थवादी यदि जीवन को भोग-प्रधान बनाते हैं तो राजनीतिवादी उसको अधिकार-प्रधान बना देते हैं। मतवादी बहुत कुछ अव्यावहारिक, गतिहीन एवं संकुचित हो जाते हैं। किसी-किसी व्यक्ति विशेष अथवा पुस्तक विशेष के विचारों के वे इतने गुलाम हो जाते हैं कि समय के साथ वे अपने आपको नहीं रख पाते तथा इस प्रकार पूर्णत: नष्ट हो जाते हैं। इन सबके विपरीत संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के केवल मौलिक तत्तवों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंधा में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है। इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है। संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है। इस संस्कृति को ही हमने धर्म कहा है। अत: जब कहा जाता है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मज़हब, मत या रिलीजन नहीं, किन्तु यह संस्कृति ही होता है।

भारत की विश्व को देन
हमने देखा है कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं।

संघर्ष का आधार
भारतीय जीवन का प्रमुख तत्व उसकी संस्कृति अथवा धर्म होने के कारण उसके इतिहास में भी जो संघर्ष हुये हैं, वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए ही हुए हैं। तथा इसी के द्वारा हमने विश्व में ख्याति भी प्राप्त की है। हमने बड़े-बड़े साम्राज्यों के निर्माण को महत्व न देकर अपने सांस्कृतिक जीवन को पराभूत नहीं होने दिया। यदि हम अपने मध्ययुग का इतिहास देखें तो हमारा वास्तविक युध्द अपनी संस्कृति के रक्षार्थ ही हुआ है। उसका राजनीतिक स्वरूप यदि कभी प्रकट भी हुआ तो उस संस्कृति की रक्षा के निमित्त ही।

राणा प्रताप तथा राजपूतों का युध्द केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था किन्तु धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ही था। छत्रपति शिवाजी ने अपनी स्वतंत्र राज्य की स्थापना गौ-ब्राह्मण प्रतिपालन के लिए ही की। सिक्ख-गुरुओं ने समस्त युध्द-कर्म धर्म की रक्षा के लिए ही किए। इन सबका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि राजनीति का कोई महत्व नहीं था और राजनीतिक गुलामी हमने सहर्ष स्वीकार कर ली; किन्तु तात्पर्य यह है कि राजनीति को हमने जीवन में केवल सुख का कारण-मात्र माना है, जब कि संस्कृति जीवन ही है।

संस्कृतियों का संघर्ष
आज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्त्व मानना तथा दूसरा इसे मान लेने पर उस संस्कृति का रूप कौन सा हो? विचार के लिए यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किन्तु वास्तव में है एक ही। क्योंकि एक बार संस्कृति को जीवन का प्रमुख एवं आवश्यक तत्त्व मान लेने पर उसके स्वरूप के सम्बन्धा में झगड़ा नहीं रहता, न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है। यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है जब अन्य तत्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढांचों में ढंकने का प्रयत्न किया जाता है।

इस दृष्टि से देखें तो आज भारत में एक-संस्कृतिवाद, द्वि-संस्कृतिवाद तथा बहु-संस्कृतिवाद के नाम से तीन वर्ग दिखाई देते हैं। एक-संस्कृतिवाद के पुरस्कर्ता भारत में विकसित एक ही भारतीय संस्कृति का अस्तित्तव मानते हैं तथा अन्य संस्कृतियों के लिए, जो विदेशों से भारत में आयी हैं, आवश्यक समझते हैं कि वह भारतीय संस्कृति में विलीन हो जाएं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी एक-संस्कृतिवाद के पोषक तथा कांग्रेस में श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे व्यक्ति इसी वाद के पोषक रहे हैं।

द्वि-संस्कृतिवादी
द्वि-संस्कृतिवादी दो प्रकार के हैं। एक तो स्पष्ट तथा दूसरे प्रच्छन्न। एक वर्ग भारत में स्पष्टतया दो संस्कृतियों का अस्तित्तव मानता है तथा उनको बनाये रखने की मांग करता है। मुस्लिम लीगी इसी मत के हैं। वे हिन्दू और मुस्लिम दो संस्कृतियों को मानते हैं तथा उनका आग्रह है कि मुसलमान अपनी संस्कृति की रक्षा अवश्य करेगा। दो संस्कृतियों के आधार पर ही उन्होंने दो राष्ट्रों का सिद्वान्त सामने रखा, जिसके परिणाम को हम पिछले वर्षों में भली-भांति अनुभव कर चुके हैं। प्रच्छन्न द्वि-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो स्पष्टतया तो दो संस्कृतियों का अस्तित्व नहीं मानते, मूल से एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र का ही राग अलापते हैं, किन्तु व्यवहार में दो संस्कृतियों को मानकर उनका समन्वय करने का असफल प्रयत्न करते हैं। वे यह तो मान लेते हैं कि हिंदू और मुसलमान दो संस्कृतियां हैं, किन्तु उनको मिलाकर एक नवीन हिन्दुस्तानी संस्कृति बनाना चाहते हैं। अत: हिन्दी-उर्दू का प्रश्न वे हिन्दुतानी बनाकर हल करना चाहते हैं तथा अकबर को राष्ट्र-पुरुष मानकर अपने राष्ट्र के महापुरुषों के प्रश्न को हल करना चाहते हैं। 'नमस्ते' और 'सलामालेकुल' का काम ये 'आदाब-अर्ज' से चला लेना चाहते हैं। यह वर्ग कांग्रेस में बहुमत में है। दो संस्कृतियों के मिलाने के अब तक असफल प्रयत्न हुए हैं किन्तु परिणाम विघातक ही रहा है। मुख्य कारण यह है कि जिसको मुस्लिम संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है वह किसी मजहब की संस्कृति न होकर अनेक अभारतीय संस्कृतियों का समुच्चय मात्र है। फलत: उसमें विदेशीपन है, जिसका मेल भारतीयत्व से बैठना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। इसलिए यदि भारत में एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र को मानना है तो वह भारतीय संस्कृति एवं भारतीय हिन्दू राष्ट्र, जिसके अन्तर्गत मुसलमान भी आ जाते हैं, के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता।

बहु-संस्कृतिवादी
बहु-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो प्रान्त को निजी संस्कृति मानते हैं तथा उस प्रान्त को उस आधार पर आत्म-निर्णय का अधिकार देकर बहुत कुछ अंशों में स्वतंत्र ही मान लेते हैं। साम्यवादी एवं भाषानुसार प्रान्तवादी लोग इस वर्ग के हैं। वे भारत में सभी प्रान्तों में भारतीय संस्कृति की अखण्ड धारा का दर्शन नहीं कर पाते।

संस्कृति से भिन्न जीवन का आधार
उपरोक्त तीनों प्रकार के वर्गों का प्रमुख कारण यह है कि उनके सम्मुख संस्कृति-प्रधान जीवन न होकर मज़हब, राजनीति अथवा अर्थनीति-प्रधान जीवन ही है। मुस्लिम लीग ने अपनी अमूर्त तत्तव का आधार मुस्लिम मज़हब समझकर ही भिन्न मुस्लिम संस्कृति एवं राष्ट्र का नारा लगाया तथा उसके आधार पर ही अपनी सब नीति निधार्रित कीं। कांग्रेस का जीवन एवं लक्ष्य राजनीति-प्रधान होने के कारण उसने अंग्रेजों को मुकाबला करने के लिए तथा शासन चलाने के लिए सब वर्गों को मिलाकर खड़ा करने का विचार किया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से यह भी द्वि-संस्कृतिवाद का शिकार बन गई। बहु-संस्कृतिवादी जीवन को अर्थ-प्रधान मानते हैं, अत: वे आर्थिक एकता की चिन्ता करते हुए सांस्कृतिक एकता की ओर से उदासीन रह सकते हैं।

एक राष्ट्र और एक संस्कृति
केवल एक-संस्कृतिवादी लोग ही ऐसे हैं जिनके समक्ष और कोई ध्‍येय नहीं है तथा जैसा कि हमने देखा, संस्कृति ही भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूंजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातन्त्र तथा राजनैतिक पूंजीवाद का निर्माण करना चाहते हैं। अत: उनमें सब प्रकार की सद्भावना होते हुए भी इस बात की सम्भावना कम नहीं है कि उसके द्वारा भी भारतीय आत्मा का तथा भारतीयत्व का विनाश हो जाय। अत: आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाय। तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा राष्ट्र-विघटन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे।
(भारतीय जनसंघ के अध्‍यक्ष रह चुके दीनदयाल जी मौलिक चिंतक थे)

Sunday, February 8, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण ही हम अपराजित हैं



डॉ. मुरली मनोहर जोशी
यह तो निर्विवाद ही है कि हिन्दुत्व भारत की वर्तमान राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन गया है।
कहते हैं सबसे पुराना यहूदी पूजा स्थल (साइनेगॉग) भारत में लगभग 2000 वर्ष पुराना है। पारसी ईरान से आये - सूफी, संत, विचारक और व्यापारी। कुछ आक्रमणकारी थे कुछ अन्य भी। अंत में सब एक देह के अंगी बने। भारत एक महामानव सागर बना। महाकवि रवीन्द्र ठाकुर के शब्दों में एई भारतेर महामानव सागर तीरे। इस्लाम को मानने वालों ने, जो इसी महामानव के अंग हैं, अलग उपासना पध्दति अपनायी पर अपने पुरखों से उन्होंने अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा था। उनमें से बहुतेरे अपने वंश के अनुसार मुसलमान, राजपूत, गूजर, चौहान आदि का उल्लेख गर्व से करते रहे हैं। इस देश में यूनान, फारस, अरब, मंगोल कौन नहीं आया? पर सब ने इस देश की संस्कृति को आत्मसात किया।जो लोग हिन्दुत्व को समझे बिना, उसके स्रोतों का अनुसंधान किये बिना पाश्चात्य लेखकों के अर्धपक्व ग्रंथों के आधार पर हिंदुत्व की आलोचना करते हैं उनके बारे में क्या कहा जाय? वस्तुत: यह मानसिकता नई नहीं है। अयोध्‍या एवं रामजन्मभूमि विवाद से भी यह नहीं उपजी।

सन् 1857 के बाद अंग्रेजों को यह अनुभव हुआ था कि भारत की राष्ट्रीयता की आधारशिला राजनीति नहीं थी वरन् उसका अधिष्ठान सांस्कृतिक था। प्राचीन संस्कृति और वाड्मय ने हिंदुओं को शिक्षा दी थी कि स्वदेश निर्जीव भूमि मात्र न होकर चैतन्यमयी मातृभूमि है। इस प्रकार देशभक्ति स्वधर्म का स्वरूप है। 1857 की लड़ाई में भारतवासियों ने पंथ, सम्प्रदाय, मजहब तथा जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर मातृभूमि पर ब्रिटिश आधिपत्य को चुनौती दी थी। अंग्रेज यह समझ गया कि भारत की सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रवाद के चलते भारत पर विजय असंभव है अत: उसने अपने आगे की नीति में इस सांस्कृतिक एकता को खंडित करने का सिध्दांत अपनाया। इसके बाद की ब्रिटिश नीति को जरा धयान से देखा जाय तो पता चलेगा कि साम्प्रदायिक परिवेश में हिन्दुत्व की परिभाषा ब्रिटिश कुटिलता की देन है। भारतीय जनमानस का मज़हब के आधार पर बंटवारा करने के बाद अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा प्रणाली और पाठयक्रम में आमूल परिवर्तन किये। चुन-चुन कर भारतीय कला-कौशल, शिल्प और उद्योगों को तबाह किया। ब्रिटिश संरक्षण में ईसाई मिशनरियों को धार्म परिवर्तन के लिए सुविधाएं दीं। इस प्रकार भारतीय मनोबल को हर प्रकार पराजित करने का प्रयत्न किया गया, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

ब्रिटिश दमनचक्र के बीच भारत का क्रांतिकारी आन्दोलन सक्रिय हुआ। यहां भी पंथ और मज़हब का कोई भेद नहीं था। पराधीन भारत में नवचेतना का संचार करने एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मन्त्र फूंकने का काम राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य बालगंगाधार तिलक, महर्षि श्री अरविन्द जैसे महानुभावों ने किया। इन क्रांतिकारियों का प्रेरणास्रोत कृष्ण की गीता थी। लक्ष्य मातृभूमि की स्वतंत्रता और वन्देमातरम् उनका राष्ट्रगान था। सैकड़ों युवकों ने इन प्रतीकों को लेकर मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये।

वस्तुत: देशभक्ति की यह अवधारणा भारतीय संस्कृति की अनूठी देन हैं। राष्ट्र का नियामक तत्व संस्कृति है। राजनीति उसका अधिष्ठान कभी नहीं रहा है। राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई है और राष्ट्रीयता उस संस्कृति से ही उद्भूत हुआ करती है। अत: भारत में राज्य सदा संस्कृति के संरक्षण का उपकरण रहा। जब राज्य ने संस्कृति के विरोध की भूमिका अपनाई उसी क्षण जनता ने उसे बदलने में कोई विलम्ब नहीं किया।

आज के परिप्रेक्ष्य में अगर इस बात को देखें तो दृष्टिगोचर होगा कि राष्ट्र का स्वर सांस्कृतिक एकता है। जबकि राज्य उस सांस्कृतिक एकता को गलत अर्थों में परिभाषित करके देश के एक समुदाय को विभाजन की ओर ले जा रहा है। अगर सारे भारतीय भारत की मूल सांस्कृतिक एकता की अनिवार्यता को समझकर एक पंक्ति में आ जायें तो विभेद नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति में सबकी विरासत एक होगी और भारतीय एकता के प्रतीक भारतमाता, वन्देमातरम्, भारत के महापुरुष, साधु, संत, सूफी, फकीर सब के सब सांझे होंगे। ''मेरा और तेरा'' के स्थान पर ''हमारा'' शब्द का प्रयोग होगा। थोड़े समय की बात है। भारतीय राजनीति के विभाजक तत्तव भारतीय संस्कृति की सर्वव्यापी सत्ता के समक्ष पराभूत हो जायेंगे।


हिंदुत्व की परिकल्पना विराट हैं। पहले कहा जा चुका है कि हिंदुत्व का सही आकलन सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है। उसे उपासना पध्दति तक सीमित करने की भूल के कारण अंग्रेजियत की मानसिकता वाले भटक रहे हैं। वेद, उपनिषद, आदि संकीर्णता या किसी संहिताबध्द मज़हब का प्रतिपादन नहीं करते, वरन् उनमें विराट मानव धर्म का प्रतिपादन किया गया है। उनमें ईश्वर की कल्पना ही विराट रूप में की गई हैं। ईश्वर शांत है, उसका स्वरूप शांत है वह गगन के सदृश विशाल है, वह एक है, वह बहुत भी हो जाता हैं, वह यहां-वहां सब जगह है और कहीं भी नहीं है। वह अणु-परमाणु से भी छोटा है और बड़ी से बड़ी जो कल्पना की जा सकती है वह उससे भी बड़ा है। वह सब प्राणियों में छोटे-बड़े ऊंच-नीच सभी में एक समान व्याप्त है। वह सबको शिवत्व की ओर ही नहीं वरन् शिव से भी श्रेयस्कर मन्तव्य पर ले जाता है। शिवाय च शिवतराय च। उसको प्राप्त करने का उपाय है समता के भाव को प्राप्त करना।

अपने परमात्मा को सर्वत्र देखना।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्चति।
सर्व मूतेष आत्मानं ततो न जुगुप्सति॥

यह है विराट हिन्दु संस्कृति। इसने नये विचारों का स्वागत किया। आ नो भद्रा: क्रतवोयन्तु विश्वत:। वस्तुत: कुछ ऐसा है ही नहीं जिसकी हिन्दु वाङ्मय में पूर्व कल्पना न की गयी हो। फिर भी हमारे यहां नये विचारों का समादर हुआ। यह आंगन इतना विराट है कि इसमें सभी के लिए जगह है। जो भी सताये हुए दुनिया के लोग थे, उनका भारतभूमि ने स्वागत किया। पृथ्वी सूक्त में देखिये :

जनं विभ्रति बहुधा विवाचसं
नाना धार्माणि पृथिवी यथौकसम्
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां
धरुवेव धेनुनपस्फुरन्ती

यह पृथ्वी अनेक प्रकार के जनों तथा अनेक धर्म एवं आस्था वाले जनों का भरण पोषण करती है। मानो वह एक शांतिपूर्ण गृह के वासी हों - ऐसी पृथ्वी पथ की सहस्त्रों धारा की तरह सौभाग्य की वर्षा करे।

ईश्वर के उस विराट रूप को कोई नाम नहीं दिया गया है। यह जगत जीव मात्र का उपास्य है क्योंकि चराचर सृष्टि उसकी उपज है। यह बात अनादिकाल से कही जा रही है और संतों-सत्पुरुषों ने अनेक रूपों में इसी सत्य का अनेक बार वर्णन किया है। गुरु ग्रंथ साहिब में बहुत सुंदर आरती आती है।

गगन में थाल रवि चंद दीपक बने
तारिका मंडल जनक मोती
धून मलियानलो पवन चंवर करे
सगल बनराय फूमंत जोती
कैसी आतरी होए भवखंडना तेरी आरती
अनहता शब्द बाजंत मेरी

विशाल गगन रूपी थाल में सूर्य और चंद्र दो दीपक हैं और तारा मंडल मोतियों की शोभा दे रहे हैं। मलय पर्वत की सुगंधित वायु आपको धूप का सुगंध दे रही है, पवन चंवर डुला रहा है। वचनों के वृक्षों के फूल आपको समर्पित हैं। अनहद, नाद मानों आपकी आरती का नाद है - हे भव खंडन कितनी अद्भुत आपकी आरती हो रही है।

यह है उस विराट की कल्पना जो भारत की संस्कृति को अनूठी पहचान और उदारता प्रदान करती है।

कहते हैं सबसे पुराना यहूदी पूजा स्थल (साइनेगॉग) भारत में लगभग 2000 वर्ष पुराना है। पारसी ईरान से आये - सूफी, संत, विचारक और व्यापारी। कुछ आक्रमणकारी थे कुछ अन्य भी। अंत में सब एक देह के अंगी बने। भारत एक महामानव सागर बना। महाकवि रवीन्द्र ठाकुर के शब्दों में एई भारतेर महामानव सागर तीरे। इस्लाम को मानने वालों ने, जो इसी महामानव के अंग हैं, अलग उपासना पध्दति अपनायी पर अपने पुरखों से उन्होंने अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा था। उनमें से बहुतेरे अपने वंश के अनुसार मुसलमान, राजपूत, गूजर, चौहान आदि का उल्लेख गर्व से करते रहे हैं। इस देश में यूनान, फारस, अरब, मंगोल कौन नहीं आया? पर सब ने इस देश की संस्कृति को आत्मसात किया।

राष्ट्रीयता और संस्कृति अविभाज्य हैं। मज़हब और उपासना पध्दतियों को इनसे जोड़ना भूल है। टर्की का उदाहरण हमारे सामने है। कमाल अतातुर्क क्रांतिकारी नेता थे। आज़ादी के बाद उन्होंने अपने नाम के पाशा को हटाकर अतातुर्क जोड़ा। अरबी का स्थान तुर्की ने ले लिया। उपासना पध्दति इस्लाम बनी रही। इस प्रकार टर्की ने अपने संस्कृति के प्रतीकों को पुन:स्थापित करके अपनी संस्कृति का पुनरुध्दार किया। स्मरण रखने की बात है कि संस्कृतियां बनाई नहीं जाती हैं, वह स्वत: प्रवाहमान होती हैं। पुरातन काल में हमारी संस्कृति को भारतीय संस्कृति या भारती कहते थे- वर्ष तत् भारत नाम भारती यत्र संतति। उस देश का नाम भारत है जिसकी संतति भारती है। भारती के पश्चिमी पड़ोसी इसकी पहचान सिंधु नदी के निकटवर्ती देश के रूप में करते थे। फारसी भाषा में ''स'' का उच्चारण ''ह'' हो जाने के कारण वह ''सिंधु'' को ''हिन्दू'' पुकारते थे। यथा सप्तसिंधु का उच्चारण ''हप्त हिन्दू'' हो गया था। प्राचीन फारसी में इस क्षेत्र का नाम ''हिन्दुश'' पुकारा जाता था। अत: भारत को ही हिन्दुस्थान कहा जाता था। इस प्रकार हिंदू संस्कृति एक दूसरे के पर्याय हो गये। यह भारतीय अथवा हिंदू संस्कृति एक दूसरे के पर्याय हो गये। यह भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति अछेद्य है और इसी से हर भारतीय की पहचान बनती है चाहे वह किसी भी मज़हब को मानने वाला हो।

भारत भूमि भारतीय मात्र की जननी है। सभी इस धरती को मस्तक झुका कर प्रणाम करते हैं। मरने पर यह धरती खाक को समेट लेती है। ऐसा नहीं है कि संस्कृति की प्रवाहमान धारा से मुसलमान पृथक रहे हैं। संतों-आचार्यों के साथ सूफियों और कबीर जैसे फकीरों ने संस्कृति को समृध्द बनाया है। बुल्लेशाह जैसे सूफी और कबीर जैसे निर्गुण संत की वाणियों का आदिग्रंथ जैसे ग्रन्थों में समावेश इसका प्रमाण है। मज़हबी मान्यता इसमें कोई बाधा नहीं बनी। इसलिये मज़हब को सांस्कृतिक विरासत से जोड़ना बुध्दिमानी नहीं है।

सारांश यह है कि मुसलमान, हिन्दू संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं। जो लोग इससे जुदा करने के प्रयत्न में लगे हैं वे पूरे भारतीय समाज के साथ द्रोह कर रहे हैं। मुस्लिम पृथकतावादी पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण और आज़ादी के बाद कांग्रेस तथा कट्टरपंथियों की सांठगांठ, वोट बैंक की राजनीति और कृत्रिम असुरक्षा भाव के कारण है। जब ये संकीर्ण लोग मुस्लिम सम्प्रदाय को राष्ट्र धारा के साथ बहने देंगे, मुस्लिम अल्पसंख्यक के स्थान पर बहुसंख्यक पंक्ति में आ जायेगा। तब वह अल्पसंख्यक की संकीर्णता और भय से मुक्त हो जायेगा। आज मज़हबी रहनुमा यह कह रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ा और ग़रीब है। ग़रीबी मज़हबी नहीं होती लेकिन मुस्लिम वर्गों को शिक्षा, संस्कृति, उद्योग तथा विकास के अन्य क्षेत्रों में पिछड़ा रखने की जितनी जिम्मेदारी कांग्रेस की है उतनी ही संकीर्ण मुस्लिम रहनुमाओं की भी है। विभाजन के समय समृध्द और शिक्षित नौकरी पेशा लोग पाकिस्तान चले गये। जो यहां रहे उन्होंने अपनी धन संपत्ति की हिफाज़त की। जो सम्पन्न थे उन्होंने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा केन्द्रों में शिक्षा दी। बाकी समाज को मज़हबी कट्टरपंथियों के हवाले कर दिया। दुर्भाग्य यह है कि आज़ादी के बाद मुसलमानों में कोई ऐसा नेतृत्व पैदा नहीं हुआ जो पूरे समाज को सही दिशा देता। इस प्रकार मुस्लिम वर्ग वोट बैंक तो बना पर उसे उसका फायदा कुछ नहीं मिला। उसे संकीर्ण प्रचार के द्वारा भारतीय संस्कृति की समृध्द परम्परा से काटने का जी तोड़ प्रयास किया गया जिसका परिणाम सामने है।

हमारा विश्वास है कि भ्रम के बादल छंटने वाले हैं। मुस्लिम समाज के अन्दर ही उदारवादी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है। इतना बड़ा मुस्लिम समाज ज्यादा देर तक मज़हब के नाम पर लोगों को अंधकार में रखने के प्रयत्न को बर्दाश्त नहीं करेगा। उसके अंदर ही समाज सुधार के स्वर मुखर हो रहे हैं। अपनी मज़हबी मान्यता और उपासना पध्दति को सुरक्षित रखते हुये मुस्लिम संप्रदाय आज नहीं तो कल सांस्कृतिक जागरण में हमारे साथ कंधे से कंधा मिला कर चलेगा और भारत की समृध्दि में अपना योगदान करेगा।
(लेखक भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व सांसद हैं)

Saturday, February 7, 2009

हिन्दुत्व: हमारी राष्ट्रीय संस्कृति


अटल बिहारी वाजपेयी
समुद्र का दृश्य और उसकी लहरों का संगीत किसी भी व्यक्ति के मन में शाश्वत और अनन्त शक्ति के प्रति सहज ही जिज्ञासा पैदा कर सकता है। लेकिन मेरा मन भारत की ओर लौटता है। हमारी मातृभूमि के तट से इतिहास की कितनी ही लहरें टकरा गई। इसके विशाल क्षितिज पर नए वर्ष के कितने ही सूर्यों का उदय हुआ। हम अपने सांसारिक कार्यों में ही इतने खोये रहते हैं कि हम कभी-कभी यह भी भूल जाते हैं कि हमारी सभ्यता कितनी प्राचीन और महान है, उसमें कितना स्थायित्व है और उसमें अपने आपको नयेपन में ढालने की कितनी अपार क्षमता है। एक ऐसी सभ्यता जो अजेय है, सर्व समावेशक है, इतिहास की लहरों द्वारा लाये गये सभी सकारात्मक प्रभावों को अपने में समाहित करती रही है।

मुझे स्वामी विवेकानन्द के वे शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने अपने निबंध '' भारत का भविष्य'' में कहे थे; '' यह वही भारत है जो सदियों से सैकड़ों विदेशी आक्रमणों के आघातों को, अनेक आचार-व्यवहारों और रीति-रिवाजों के उथल-पुथल को झेलता आया है। यह वही भारत है जो अपनी अनन्त शक्ति, अनश्वर जीवन के साथ विश्व में किसी भी चट्टान से अधिक मजबूती के साथ खड़ा है। इसके जीवन का वही स्वरूप है जो आत्मा का होता है, जिसका न तो आदि है और न अंत, जो शाश्वत है और हम ऐसे ही देश की संतानें हैं।''







मुझे स्वामी विवेकानन्द के वे शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने अपने निबंध '' भारत का भविष्य'' में कहे थे; '' यह वही भारत है जो सदियों से सैकड़ों विदेशी आक्रमणों के आघातों को, अनेक आचार-व्यवहारों और रीति-रिवाजों के उथल-पुथल को झेलता आया है। यह वही भारत है जो अपनी अनन्त शक्ति, अनश्वर जीवन के साथ विश्व में किसी भी चट्टान से अधिक मजबूती के साथ खड़ा है। इसके जीवन का वही स्वरूप है जो आत्मा का होता है, जिसका न तो आदि है और न अंत, जो शाश्वत है और हम ऐसे ही देश की संतानें हैं।''

हमारी प्राचीन सभ्यता की तरह हमारी विविधता भी भारत की महानता - और इस राष्ट्र के प्रति भारतीयों में गर्व की भावना का स्रोत है। विदेशी लोग हमेशा आश्चर्य प्रकट करते हैं कि हमारे देश में धर्म, जाति, भाषा और जीवन-शैली में इतनी अधिक विविधता होते हुए भी, हम एक राष्ट्र कैसे बने हुए हैं ? जो बात वे समझ नहीं सकते और जिसे हमें भी कभी नहीं भूलना चाहिए, वह है - विविधता के साथ रहना और एक-दूसरे के साथ एकता और सामंजस्य का ताना-बाना बुनना। अनंतकाल से सम्पूर्ण भारत की एक जीवन-पद्वति रही है। यह बात गोवा के सम्बंध में भी उतनी ही सत्य है जितनी गुजरात के बारे में, जम्मू और कश्मीर के बारे में जितनी सत्य है उतनी ही केरल के बारे में और मणिपुर के सम्बंधा में जितनी सत्य है उतनी ही मधय प्रदेश के बारे में।

समय-समय पर विविधता में एकता को लेकर गंभीर बहस और यहां तक कि विवाद भी छिड़ जाते हैं। मैं यहां दो विशिष्ट विचारों पर टिप्पणी करना चाहता हूं जिन पर गुजरात चुनावों के बाद जोर-जोर से चर्चा हो रही है। एक तरफ, पंथ-निरपेक्षता को इस सोच के आधार पर हिन्दुत्व के विरूद्व खड़ा किया जा रहा है कि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। यह गलत और अनुचित है। पंथ-निरपेक्षता राज्य-व्यवस्था की वह अवधारणा है जिसमें सभी धार्मों का सम्मान किया जाता है तथा नागरिकों के साथ उनकी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। भारत शुरू से ही पंथ-निरपेक्ष रहा है। हमने पंथ-निरेपंक्षता पर प्रतिबद्व रहना तब भी स्वीकार किया जग देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान का द्वि-राष्ट्र सिध्दांत के साम्प्रदायिक आधार पर निर्माण हुआ। ऐसा कभी संभव नहीं हुआ होता यदि अधिकांश भारतीय पंथ-निरपेक्ष नहीं होते।

गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी बहुत अच्छे ढंग से व्याख्या की है '' भारत हमेशा से सामाजिक एकता बनाए रखने का प्रयास करता रहा है जिसमें विभिन्न मतावलम्बियों को अपना अलग अस्तित्तव बनाए रखने की पूरी आजादी भी होते हुए एकजुट रखा जा सके। यह बंधान जितना लचीला है उतना ही परिस्थितियों के अनुरूप इसमें मजबूती भी है। इस प्रक्रिया से एक एकात्मक सामाजिक संघ की उत्पत्ति हुई जिसका सामूहिक नाम ' 'हिन्दुइज्म' है।''

हिदू दर्शन द्वारा पंथों की विविधाता की स्वीकार्यता भारतीय सेक्युलरिज्म का मूल-सत्व रहा है। महर्षि अरविंद ने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है: ''भारतीय धर्म की अवधारणा में हमेशा यह महसूस किया गया है कि चूंकि मनुष्यों के विचारों, स्वभाव और बौद्विक ज्ञान में असीमित विविधताएं होती हैं, अत: हर व्यक्ति को अपने विचार अभिव्यक्त करने और ईश्वर की अपने ढंग से पूजा-अर्चना करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।

दूसरी तरफ, हिन्दुत्व, जो मानव जीवन का विराट दर्शन प्रस्तुत करता है, को कुछ लोगों द्वारा एक संकीर्ण, कट्टर तथा चरमपंथी रूप में पेश किया जा रहा है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण और अस्वीकार्य व्याख्या है जो इसके सही अर्थ के बिल्कुल विपरीत है। हिन्दुत्व सम्पूर्ण सृष्टि को समग्र रूप से समझने की दृष्टि है जो इस लोक तथा परलोक, दोनों के लिए रास्ता दिखाता है। यह व्यक्ति और समाज तथा मनुष्य की भौतिक तथा आधयात्मिक जरूरतों के बीच अटूट सम्बंधों पर बल देता है। हिन्दुत्व उदार है, उदात्त है, मुक्तिगामी है। यह किसी भी आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच कोई दुर्भावना, घृणा अथवा हिंसा को बर्दाश्त नहीं करता है।

पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति और सभ्यता का यह राष्ट्र है। इसलिए जब संविधान परिषद बैठी थी और सेकुलरवाद या सेकुलरवाद की भावना के प्रश्न पर चर्चा हो रही थी, उस समय भी सेकुलर का अर्थ क्या है, इसके बारे में अलग-अलग राय थी। लेकिन संविधान के निर्माताओं ने सेकुलर शब्द संविधान में नहीं रखा। संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर शब्द उस समय आया, जब देश में इमर्जेंसी लगी थी और कई लोग जेलों में बंद थे। विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। उस समय संविधान में संशोधन किया गया। उससे पहले धारणा यह थी कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं होना चाहिए। होगा भी नहीं, मगर प्रस्तावना में संशोधान कर दिया गया और भारत को डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के साथ-साथ सेकुलर एंड सोशलिस्ट रिपब्लिक भी घोषित कर दिया गया।

हमारा सेकुलरिज्म पश्चिम के सेकुलरिज्म से भिन्न होगा। उन्होंने कहा था कि यह बहुधर्मों का देश है और सेकुलरिज्म का अर्थ है कि किसी भी धर्म के मानने वाले के साथ भेदभाव न हो और सब धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाये। हम इस व्याख्या को हृदय से स्वीकार करते हैं। यह हिन्दू चिंतन का निचोड़ हैं। यह हमारी अस्मिता है क्योंकि भारत में अनेक मत हैं अनेक मतांतर हैं। केवल एक पुस्तक नहीं है, एक पैगम्बर नहीं है। यहां ईश्वर को मानने वाले भी है और ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले भी है। यहां किसी को सूली पर नहीं चढ़ाया गया और न किसी को पत्थर मारकर दुनिया से उठाया गया। यह सहिष्णुता इस देश की मिट्टी में है '' एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति' अब तो दर्शन उससे भी आगे चला गया है। यह अनेकांतवादी देश है।
इस देश में कभी मजहबी राज्य की मांग नहीं उठी। इस देश मे कभी मजहब के आधार पर, मत भिन्नता के आधाार पर उत्पीड़न की बात नहीं उठी, न उठेगी, न उठनी चाहिए।

मुझे याद है कि देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू अलीगढ़ विश्वविद्यालय में भाषण करने के लिये गये थे। दीक्षांत समारोह था। उनके भाषण का एक अंश है-
''मैं कह चुका हूं कि मुझे अपनी विरासत एवं अपने पूर्वजों पर बड़ा गर्व है, जिन्होंने भारत को ज्ञान एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष पर पहुंचाया। इस अतीत के बारे में आप कैसा महसूस करते है? क्या आप इसमें अपने आपको हिस्सेदार महसूस करते हैं और इसका वारिस महसूस करते हैं और किसी बात पर गर्व महसूस करते हैं जो उतनी ही आपसे संबधित है, जितनी मुझसे या इससे अलग महसूस करते हैं? क्या यह अजनबी सरसराहट जो यह महसूस करने से आती है कि हम इस विशाल खजाने के वारिस हैं, न्यासी हैं- या बिना समझदारी से ही? आप एक मुसलमान है और मैं एक हिन्दू। हम अलग-अलग धार्मिक विश्वास रख सकते हैं और कोई भी धार्मिक विश्वास न रखें, उससे हमारी विरासत समाप्त नहीं होती जो आपकी भी उतनी ही है, जितनी मेरी। अतीत हमें एक सूत्र में बांधाता है, जबकि वर्तमान और भविष्य हमें विभाजित करता हैं।''

अपने अंतिम दस्तावेज में नेहरू जी ने जो कुछ लिखा है और आज पाठय-पुस्तकों का विषय बन गया है, सबको फिर से पढ़ने की जरूरत है। नेहरू जी पर कोई पुरातनपंथी होने का आरोप नहीं लगा सकता, लेकिन नेहरू जी ने उस विश्वास की बात की है कि हम अपने दिमाग खुले रखते हैं, हम खिडकियां खुली रखते हैं। मगर यह भी कहा है कि हम अपने पांव पर मजबूती से खड़े रहते हैं। कामन इनहेरिटेंस इसकी स्वीकृति है? क्या जो अतीत है, उसमे अभिमान है?

बहुत से विदेशी यहां आये, लोगों को शरण मिली। हमने निर्दोष आने वालों को, उजड़ कर आने वालों को वापस नहीं भेजा। भारत माता की गोद में सबको जगह मिली। जो अपना देश छोड़ कर उत्पीड़न के शिकार होकर यहां आये, उन्हें जगह मिली। भारत में पहली मस्जिद हिन्दू राजा की अनुमति से केरल में बनी, भारत में पहला चर्च भी केरल में बना, वही भी अनुमति से। यह हमारे रक्त में हैं। यह जीवन की घुट्टी में है। मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। सबको छूट होनी चाहिए। सबके साथ बराबर व्यवहार होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। बराबर व्यवहार नहीं हो रहा है। इसलिये कठिनाई पैदा हो रही है। इसलिये लोगों के मन में शंकाए पैदा हो रही है।

इस देश में हिन्दू बहुत संख्या में हैं, मगर उनमें एक माइनिरिटी काम्पलेक्स जैसा विकसित हो रहा है। माइनिरिटी में अगर काम्पलेक्स हो तो मैं समझ सकता हूं कि जो संख्या में कम हैं वे संरक्षण की बात करें। संरक्षण मिलना चाहिए। यह राजधर्म है और इसलिये जहां हम राष्ट्र की सुरक्षा पर बल देते हैं, वहां इस बात पर भी बल देते हैं, कि देश के भीतर हर नागरिक की जान माल इज्जत की और धर्म की हिफाजत होनी चाहिए। (मेरी संसदीय यात्रा पृष्ठ क्र. 52,53,54, 55)

हमें हिन्दुत्व की उस सही पहचान को परिपुष्ट करके और बढ़ावा देने की जरूरत है जो भविष्योन्मुखी है, न कि पीछे का मुकाबला करने के लिये सक्षम बनाता है, न कि पुरानी लीक पर ही अटकी रहने वाली, जो सुधारवादी है न कि उस रूढ़िवाद, अन्याय की हिमायत करने वाली जिसके विरूद्व विगत में सभी समाज सुधारकों ने संघर्ष किया था। यदि इस प्रबुद्व हिंदुत्व को समझा जाये और इसका अनुकरण किया जाये, जैसा कि स्वामी विवेकानन्द और अन्य महान देशभक्तों ने प्रतिपादित किया है, तो हिन्दुत्व के बारे में वर्तमान में चल रहा विवाद पूर्णतया अनावश्यक दिखाई देगा।
ऐसे हिन्दुत्व तथा भारतीयता में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही एक चिंतन को अभिव्यक्त करते है। दोनों ही इस बात पर जोर देते है कि भारत सभी का है और सभी भारत के है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी भारतीयों के समान अधिकार हैं और उनकी जिम्मेदारियां भी समान हैं। यह हमारी सामूहिक राष्ट्रीय संस्कृति जो भारत की सभी विभिन्न धार्मिक तथा गैर-धार्मिक परम्पराओं से समाविष्ट है, की पहचान को दर्शाता है। सदियों से दोनों ही समान रूप से हमारी राष्ट्रीय पहचान को परिलक्षित करते आये हैं। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय ने ही यह माना है कि हिन्दुत्व न तो कोई धार्मिक अवधारणा है न ही राजनीतिक बल्कि यह हमें जीवन का उदात्त एवं उन्नत मार्ग दिखाता है। यही भारतीयता है जिसका हमें गुणगान करना है तथा इसे और मजबूत बनाना है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : वैचारिक मूलमंत्र



लालकृष्ण आडवाणी
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा का सहज स्वरूप हिन्दुत्व बन गया है। हिन्दुत्व केवल अयोध्‍या में मंदिर नहीं है, यह तो हजारों-हजारों वर्षों से हमारे अनुभवों की सामूहिक बुध्दिमत्ता का प्रतीक है। इसलिए अक्टूबर 1961 में मदुरई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक को सम्बोधित करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था-''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''हिन्दुत्व हमारे लिए मात्र नारा नहीं है। यह भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक मूलमंत्र है जिसमें उसकी पहचान और दृष्टि अत्यन्त विशिष्ट रूप से प्रकट होती है।

हिन्दुत्व पंथ या मजहब नहीं है और न ही हिन्दुत्व कोई मजहबी राज्य स्थापित करने का नुस्खा है। इसमें राष्ट्रत्व और सत्त्व समाहित है। यह राष्ट्र को एकजुट करने वाली सुदृढ़ शक्ति है। हिन्दुत्व केवल अयोध्‍या में मंदिर नहीं है, यह तो हजारों-हजारों वर्षों से हमारे अनुभवों की सामूहिक बुध्दिमत्ता का प्रतीक है। इसलिए अक्टूबर 1961 में मदुरई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक को सम्बोधित करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था-



''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''

''भारत पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको प्राचीन स्थलों के दर्शन होंगे। इन महान तीर्थों में ऐसी क्या बात हैं जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली हुई है। भारत को एक महान देश समझने की अवधारणा युगों-युगों से चली आ रही है जिसे लोग पावन भूमि मानते है और इसी अवधारणा ने इसे एकसूत्र में बाँध रखा है। हालांकि यहां विभिन्न राजनैतिक स्वरूप के अलग-अलग राज्य रहे है और हम विभिन्न भाषाएं बोलते है फिर भी यह मृदुल बंधन हमें अनेक रूपों में इकट्ठा बांधे रखता है।''

पं. नेहरू ने हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं किया। परन्तु भारत की एकता-संस्कृति के मुदृल बंधन का जो आधार स्पष्ट रुप से उन्होंने रखा वह वही है जिसे भाजपा ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व की संज्ञा दी है।

भारतीय राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय एक जन है परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी संस्कृति में ही निहित है-इस बात को न्यायालयों ने अनेक निर्णयों में स्वीकार किया है।

प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी.एन. भगवती और अमरेन्द्र नाथ सेन तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था-
यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्तव बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति हैं। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बाँध रखा है।

इस प्रकार हिन्दुत्व वह आदर्श है जो भूत और भविष्य को वर्तमान से जोड़ता है। सारे रूप में यही भारत की पहचान है। सेक्यूलरवाद के नाम पर राजनीतिज्ञ चाहते है कि यह देश अपनी पहचान भूल जाए। हिन्दुत्व मात्र सिध्दान्त नहीं है, इससे बढ़कर यह भारत के प्रति हमारी प्रतिबध्दता की वास्तविकता है। जब तक भारतीय सभ्यता है हिन्दुत्व का स्थान है। यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। यह हमारा मिशन है। इससे भारतीय राजनीति में नैतिक और आचार संबंधी आधार को बल मिलेगा। जिसे जातिवाद और साम्प्रदायिक वोट बैंक की राजनीति को चलाने वाले धीरे-धीरे समाप्त करते जा रहे है।
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की सफलता यह रही है कि मतदाताओं में इस विचारधारा को संगत मुद्दा बना सकी हैं। हम देशभर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम छद्म सेक्यूलरवाद पर बहस कराने में सफल हुए है। अब अधिक से अधिक लोग महसूस करने लगे है कि सेक्युलरवाद के नाम पर हमारे विरोधी चाहते है कि राष्ट्र अपनी अस्मिता जिसे हिन्दुत्व कहते है उसे नकार दें। इस राष्ट्रीय अस्मिता को भी भारतीयता का नाम दिया जा सकता हैं परन्तु इसका अंतनिर्हित सार एक ही है।

भारतीय सेक्युलरवाद के बारे में एक विशुध्द अध्‍ययन में यूजीन ने लिखा था-भारतीय संस्कृति एक मिली जुली संस्कृति होने के बावजूद उसमें हिन्दुत्व ही अत्यधिक शक्तिशाली और व्यापक रहा है। वे लोग जो बार-बार भारतीय संस्कृति के इस मिले-जुले स्वरुप के बारे में बहुत बल देते है इस बुनियादी तत्तव के महत्व को कम कर देते है। हिन्दुत्व ने ही वास्तव में भारतीय संस्कृति को आवश्यक विशिष्टता प्रदान की है।

हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने लिखा था-
अंग्रेजों ने हमें यह सिखाया है कि पहले हम एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में अभी हमें शताब्दियां लगेगी। यह बात निराधार है। उनके भारत आने के पहले से ही हम एक राष्ट्र थे। एक ही विचार हमें प्रेरित करते थे। हमारी जीवन शैली एक समान थी। चूंकि हम एक राष्ट्र थे इसलिए वे एक साम्राज्य स्थापित करने में समर्थ हुए।

भारत का राष्ट्रत्व न तो ब्रिटिश शासन की देन है न ही उस स्थिति में स्वतंत्रता आन्दोलन की। न ही वह भारत के संविधान से उपजा है। वास्तव में तो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन स्वराज के लिए संघर्ष की अग्नि प्रदीप्त करने हेतु जागृत हुई राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति थी। भारत के संविधान में वस्तुत: उस प्राचीन राष्ट्र को मान्य किया है जो इस भूमि में हजारों वर्षों से विद्यमान रहा है। जब संविधान में गोरक्षा को निवेश सिध्दांतों में शामिल किया गया तो यह उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्वीकारोक्ति थी जो उस राष्ट्र के जीवन का प्राण है।

सामान्यत: हिन्दुस्तान में पिछले 50 सालों में हम साम्प्रदायिक तनाव को दूर नहीं कर पाए। 1947 में तो भयंकर रक्तपात हुआ था और 1947 में रक्तपात होने के बावजूद हमने भारत का जो संविधान बनाया, वह भारत के लिए गर्व की बात है, बहुत गर्व की बात है। ऐसे समय में, जब देश का विभाजन हुआ, जिस विभाजन के लिए महात्मा गांधी ने कहा था कि यह तो पाप है; महात्माजी ने कहा था कि यह तो मेरी मां की हत्या है, एक प्रकार से मातृहत्या है, मेंडीसाइट है। बावजूद इस बात के कि हिन्दुस्तान का बंटवारा धार्म के आधार पर हुआ किन्तु हिन्दुओं का बहुमत कहां है। मुसलमानों का बहुमत कहां है और बावजूद इसके कि हमारे पड़ोसी देश में जिसने कहा कि अगर अखंड हिन्दुस्तान रहेगा तो देश के मुसलमान हिन्दुओं के गुलाम बन कर रहेंगे। This was the thesis और उन्होंने कहा कि इसलिए हमको अलग राष्ट्र चाहिए, अलग राज्य चाहिए, अलग राज्य उन्होंने बना लिया और उस राज्य को इन्होंने इस्लामिक राज्य भी घोषित किया। इन बातों के बावजूद 1950 में जो संविधान स्वीकार किया, वह संविधान उस समय के हमारे नेतृत्व के लिए गर्व की बात है, सम्पूर्ण भारत के लिए गर्व की बात है। उस समय उस संविधान को स्वीकार करना, जिसको हम सैकुलर कहते हैं, जबकि उस समय सैकुलर शब्द का प्रयोग संविधान निर्माताओं ने अपने संविधान में किया भी नहीं था लेकिन सैकुलरिज्म की जो कल्पनाएं हैं वे हमने अपने संविधान के प्रावधानों में लिख दी और तब से लेकर आज तक कोई कुछ कहे हमने मज़हबी राज्य को कभी स्वीकार नहीं किया, न करेंगे और हमारे ऊपर सबसे ज्यादा आरोप लगता है इसलिए हमने कहा कि हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा, हमारे इतिहास का हिस्सा है India's polity, Indias political thinkers haveAlways rejectedA theocratic state. मज़हबी राज्य को हमने कभी स्वीकार नहीं किया, न 1950 में किया, न अब कर रहे हैं, न आगे करेंगे। इस तथ्य को समझ कर लोग चले और जो इससे सहमत नहीं वे मेरी भी आलोचना करते हैं। मैंने जो शब्द प्रयोग किया उसका मेरे ऊपर उपयोग किया गया, चाहे वह बाद में उन्होंने कहा कि हमसे गलती हो गई, हमको नहीं करना चाहिए। उसका कारण यह है कि अगर आप हिन्दू शब्द कहते ही चिढ़ जाएंगे और कहेंगे कि आप गलत बात कर रहे हो तो फिर आप सही नहीं कह रहे हैं जो व्याख्या हिन्दुत्व की सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट में की है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है-
"The words Hinduism or HindutvaAre not confined only to the strict Hindu religious practices unrelated to the cultureAnd ethos of the people of India depicting the way of life of the Indian people,AndAre not confined merely to describe persons practising the Hindu religionAsA faith." इसका कोई अर्थ, यदि कोई दे तो उसे देने दीजिए, लेकिन हमारे लिए थियोक्रेटिक स्टेट स्वीकार नहीं है और न हिन्दुत्व एक ऐसा शब्द है जिसको सुनकर ही तथाकथित बुध्दिजीवी कहेंगे कि यह तो संकीर्ण है, यह तो बिगेट्री है, यह तो ऐसा है, यह तो वैसा है। नि:सन्देह उनके भय के मूल में अल्पसंख्यकवाद पर आधारित छद्म पंथनिरपेक्षता की राजनीति के कारण उत्पन्न जनक्षोभ भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
इस राष्ट्रवाद की आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं है जो हमें वेदों, रामायण, महाभारत, गौतमबुध्द, भगवान महावीर, आदि शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जय प्रकाश नारायण और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

इस प्रकार हिन्दुत्व एक एकात्मवादी सिध्दांत है। यह भारत की आत्मा की रक्षा और उसे पुन: ऊर्जावान बनाने का सामूहिक उद्यम है। यह एक ऐसा सकारात्मक प्रयास है जो किसी भी एक वर्ग को दूसरे की कीमत पर लाभ उठाने की शर्मनाक कोशिशों को रोकता है। हिन्दुत्व है अनुशासन और आत्मानुशासन।

केवल भारतीय राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणाओं में निहित अनंत शक्ति को मान्य करके ही अलगाववादी ताकतें खत्म कर राष्ट्र को एकजुट किया जा सकता है। यह बात गौण है कि आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस अवधारणा को कैसे बताते हैं- हिन्दुत्व के रूप में या भारतीयता के रूप में। मूल तत्त्व तो एक ही है। केवल भारतीय राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणाओं में निहित अनंत शक्ति को मान्य करके ही अलगाववादी ताकतें खत्म कर राष्ट्र को एकजुट किया जा सकता है। यह बात गौण है कि आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस अवधारणा को कैसे बताते हैं- हिन्दुत्व के रूप में या भारतीयता के रूप में। मूल तत्त्व तो एक ही है।
(सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुस्तक से साभार)

Thursday, February 5, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : भारत के भविष्य का आधार


डॊ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी
भारतीयता का अर्थ है भारत की समग्र परम्परा, भारत-वर्ष का सामाजिक, सांस्कृतिक इतिहास, भारत-वर्ष की पुरातन, अधुनातन पृष्ठभूमि, भारत-वर्ष की संवेदना, भारत वर्ष की कला, भारत-वर्ष का साहित्य। इन सबमें एक ही भाव है जो भारत-वर्ष के प्राचीन दर्शन व भारत के अध्‍यात्म को जीवन से जोड़ता है। मेरी दृष्टि में भारतीयता पूरे इतिहास का निचोड़ है, हमारे दर्शन का निचोड़ है, हमारे जीवन के आदर्शों का प्रतीक है। भारतीयता एक ऐसी चीज है जिसे पहचाना तो जा सकता है, महसूस भी किया जा सकता है किन्तु उसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता।

मैंने अपनी पुस्तक 'भारत और हमारा समय' में लिखा है कि भारतवर्ष एक सनातन चिंतन, सनातन विचार, सनातन दृष्टि, सनातन आचार और सनातन यात्रा-पथ भी है। मैं मानता हूं कि भारत मात्र एक भूखंड ही नहीं, केवल भौगोलिक इकाई ही नहीं, केवल एक राजनीतिक सत्ता ही नहीं बल्कि मनुष्य की मनुष्यता का अभिषेक है। भारतीयता का अर्थ है पुरातन से अद्यतन का समतामूलक अनुभव किन्तु वर्तमान परिदृश्य में लगता है कि भारतीयता की यह परिकल्पना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। इसकी अनुभूति मुझे तब और भी गहरी हुई, जब मैं सात वर्ष तक ब्रिटेन का उच्चायुक्त रहने के बाद भारत लौटा। जब लौटा तो मैंने एक बार परिहास में कहा था कि 'बाहर तो मैंने अप्रवासी भारतीय (नॉन रेजिडेन्ट इंडियन्स) कई देखे हैं, उनसे मिलन हुआ है और उसकी भारतीयता से मैं बहुत गहरे तक प्रभावित भी हुआ हूं, किन्तु यहां आकर एक बड़ी दु:खद और दयनीय त्रासदी मुझे दिखाई देती है कि भारत वर्ष में ही कई प्रवासी अभारतीय हैं। सच बात यह है कि आजादी से पहले भी इतनी विकृतियां नहीं थीं जितनी कि आज हैं। हमारी भाषा का, हमारे साहित्य का, हमारी राष्ट्रीयता का जो आत्म सम्मान था, जो प्रतीति थी, जो अस्मिता की अनुभूति थी उसे हम भूलते चले जा रहे हैं। यह एक बड़ी कष्टमय स्थिति है। आने वाली पीढ़ी किस सांस्कृतिक पौष्टिक आहार पर बन रही है? समझ नहीं आता। उसका सांस्कृतिक पौष्टिक बहुत कम भारतीय है। इसका कारण हमारी नीति में कमियां हैं। हमने अपनी शिक्षा नीति में बहुत सारी बातें जोड़ी हैं। हमने बच्चों पर काफी बोझा भी बढ़ा दिया है किन्तु उन सबमें भारतीयता की कमी है। संस्कृत भाषा को ही लें, मेरी संस्कृत में बहुत निष्ठा है और मान्यता है कि संस्कृत भाषा के बिना भारत की सम्पूर्ण अनुभूति जरा मुश्किल से होती है।

आज से लगभग डेढ़ दशक पहले जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने अपनी भाषा नीति प्रकाशित की तो मुझे बहुत कष्ट हुआ था कि इस नीति के चलते तो यहां से संस्कृत लुप्त हो जाएगी क्योंकि उस नीति में संस्कृत वैकल्पिक विषय भी नहीं रखा गया, जिसमें कि अंक दिए जा सकें। जब अंक नहीं दिये जाएंगे तो कोई व्यक्ति इसे पढ़ेगा भी नहीं और विषय के रूप में लेगा भी नहीं। तब मैंने राजीव गांधी से कहा था कि यह नीति देश के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया और कहा था कि आपकी बात मेरी समझ में आती है किन्तु अब मैं क्या कर सकता हूं। तब मैंने उनसे कहा था कि अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो मैं अदालत में जाऊंगा। मैं इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गया क्योंकि उस समय संस्कृत के कई अध्‍यापकों को बर्खास्त किया जा रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगनादेश भी दिया था और अब हमारे पक्ष में निर्णय भी हो गया है किन्तु यह प्रकरण मेरे जीवन की बहुत कष्टपूर्ण घटना रही हैं।

भारतीयता जिसके नाम पर वोट मांगे जाएं, जिसके नाम पर राज्य करे, जिसके नाम पर बड़ी-बड़ी बातें कही जाएं, वह अगर हमारे पूरे कार्य व्यवहार में कहीं न हो, उस लक्ष्य को हम भूल जाएं तो फिर क्या होगा? सच पूछें तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जिसे भारतीयता का पता ही नहीं है आर इसके लिए वह पीढ़ी दोषी नहीं है, दोषी हम हैं, क्योंकि हम उन्हें ऐसे ही संस्कार, ऐसी ही शिक्षा दे रहे हैं, जो नकल को प्रधाानता देती है। हम आधुनिकता के नाम पर दूसरे देशों और उनकी सभ्यता की नकल करने लगे हैं और अपनी जड़ों से, अपनी जमीन से, अपनी संस्कृति से अलग होने लगे हैं, जो समाज, जो देश अपनी जड़ों, अपनी जमीन और संस्कृति से अलग हो जाएगा, वह धीरे-धीरे क्षरित होने लगेगा। यही भय मेरे मन मस्तिष्क पर आतंक बनकर छाया रहता है। मुझे लगता है कि यह स्थिति लेने के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। इस तरह हम अपने आप को दुनिया का द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना रहे हैं। पहले तो यह अंग्रेजों की गुलामी के कारण हुआ किन्तु आज यह गुलामी हम अपने आप पर थोप रहे हैं। इस कारण हम भ्रमित हो गए हैं। हम भारतीयता को हिन्दुत्व को सम्प्रदायों में बांटकर धर्मनिरपेक्षता की बात करने लगे हैं। मेरे विचार में साम्प्रदायिकता बहुत अच्छी चीज है और बहुत बुरी चीज भी है। हमारे यहां सम्प्रदाय का अर्थ यह है कि अलग-अलग प्रकार हैं, अलग-अलग पंथ है, जिनको भारत स्वीकार करता है। अलग-अलग पंथों को स्वीकार करना या न करना ठीक है किन्तु राज्य किसी भी पंथ का नहीं है। इसी संदर्भ में यह कहना होगा कि हमने पंथनिरपेक्ष कहने की बजाय 'धर्मनिरपेक्ष' कहना शुरू कर दिया है और जो राज्य, जो समाज, धर्म से निरपेक्ष हो जाता है उसका तो कोई भविष्य ही नहीं है। धर्म का अर्थ है कर्तव्य, धर्म का अर्थ है सौहार्द्र। अब यदि हम अपने कर्तव्य से निरपेक्ष हो गए तो समाज का क्या होगा।



यदि किसी एक शब्द को देश निकाला दिया जाए तो मैं इस 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को देश निकाला देना चाहूंगा। मुझे तो इस शब्द के लिए लड़ना पड़ा है। मैंने श्रीमती गांधी से कहा भी था कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष का अनुवाद 'सेकुलर' किया गया है, जो स्वीकार करने योग्य नहीं है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया। अब हमारे संविधान का जो अधिकृत अनुवाद है उसमें 'सेकुलर' के लिए पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है।

यदि किसी एक शब्द को देश निकाला दिया जाए तो मैं इस 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को देश निकाला देना चाहूंगा। मुझे तो इस शब्द के लिए लड़ना पड़ा है। मैंने श्रीमती गांधी से कहा भी था कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष का अनुवाद 'सेकुलर' किया गया है, जो स्वीकार करने योग्य नहीं है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया। अब हमारे संविधान का जो अधिकृत अनुवाद है उसमें 'सेकुलर' के लिए पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है।

हिन्दू होना सम्प्रदायवादी होना कतई नहीं है। मुसलमान होना संप्रदायवादी होना नहीं है। किसी भी मत-पंथ का होना संप्रदायवादी होना नहीं है किन्तु अगर हम उसमें कट्टर होकर अन्यों के प्रति विद्वेषी हो जाएं तो वह गलत है। भारत वर्ष की सभ्यता कट्टरपन नहीं सिखाती। हिन्दू धार्म की परम्परा का आधार सहिष्णुता है। कट्टर होना सम्प्रदायवाद हो सकता है किन्तु अगर हम अपनी अस्मिता को मानते हैं और अलग-अलग उन पंथों को जानते हैं, जो हमारे देश को बनाते है तो वह इन्द्रधनुषी छटा है। हमारा देश एक इन्द्रधनुष है, उस इन्द्रधनुष की संभावना इसीलिए हुई कि भारत वर्ष में सदैव सहिष्णुता का साम्राज्य रहा। भौगोलिक अखंडता हमारा नागरिक कर्तव्य है और वह हमारी संस्कृति और राजनीति से अलग नहीं है किन्तु उससे भी कहीं परे, उससे भी कहीं अधिक एक अपेक्षित है राष्ट्रीयता से ओतप्रोत एक दृष्टि! राष्ट्रीयता से ओतप्रोत दृष्टि का अर्थ है भारत के लाखों-करोड़ों लोगों में अंतर्निहित, अंतर्भूत सम्बंध, उनके प्रति प्रतिबद्वता, उनके प्रति सेवा की भावना-सम्पर्क, सहयोग और संस्कार ये चारों हमारी संस्कृति के मूल मंत्र हैं। इस मूल मंत्र को मानते हुए अगर हम राष्ट्रीय जीवन का निर्माण करें और राष्ट्र के प्रति भक्ति, राष्ट्र के प्रति निष्ठा, श्रद्वा को लेकर चलें, तो हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक नया अध्‍याय निश्चित रूप से शुरू हो सकता है। मुझे आशा है कि यह होगा। लेकिन यह तभी होगा जब हम इसके लिये प्रयत्न करें।

आज कई तरह के खतरे हमारे ऊपर मंडरा रहे हैं। ये खतरे बौध्दिक भी हैं और सांस्कृतिक भी। सांस्कृतिक खतरा कोई भौगोलिक खतरे से कम नहीं होता। भाषा का लुप्त हो जाना कोई कम खतरा नहीं है। अपने पंथों अथवा संप्रदायों की जानकारी न होना भी एक खतरा है। अपनी मान्यताओं के लिये निष्ठा न होना और भी बड़ा खतरा है। ये सब खतरे भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जिस देश को नष्ट करना हो, उसकी संस्कृति नष्ट कर दीजिये, उसकी भाषा नष्ट कर दीजिये, अपने आप वह समाज और जाति नष्ट हो जायेगी। हममें इतनी सामर्थ्य तो है कि हम इन खतरों का सामना कर सकें किन्तु इसके लिये इच्छाशक्ति होनी चाहिए, संकल्प होना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने भी यही कहा था कि हमारे यहां सामर्थ्य की कमी नहीं है। संभावनाओं की हमारे यहां कमी नहीं है। कमी है संकल्प की, कमी है समर्पण की। ये सब भावनाएं जगाने के लिये हमें अभियान चलाना होगा। इसके लिये लोगों को तैयार करना होगा। हममें से बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो इस बात को जानते हैं और तरीके से इसे आगे बढ़ा भी रहे हैं। एक-एक दीप से हजारों-लाखों दीप जल जाते हैं और ऐसे दीप जलेंगे इसे कोई रोक नहीं सकता।

भारतवर्ष का भविष्य अभी बनना है और वह भविष्य सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित होगा, भारतीयता पर आधारित होगा। वह सच्चे अर्थों में भारत होगा। संस्कृत में भारत का अर्थ है वह जो ''प्रवाह'' में रत है-प्रवाह के प्रति प्रतिबद्व है, वही भारत है। तो उस दृष्टि से भी हमको भारतवर्ष में अध्‍यात्म और विज्ञान को एक-दूसरे के साथ बांधना होगा, उसे समन्वित करना होगा। हम विज्ञान से अलग नहीं रह सकते। जीवन में जो शक्तियां हैं, उन्हें संकलित करना बहुत आवश्यक है किन्तु संभव नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं है कि हममें प्रतिभा नहीं हैं अथवा सामर्थ्य नहीं है। व्यक्तिगत रूप से भारत वर्ष के लोग बहुत प्रतिभाशाली हैं और बहुत कुछ हासिल करते हैं किन्तु संयुक्त रूप से समुदाय और समूह की दृष्टि से अभी तक भारत के प्रति भक्ति और निष्ठा की भावना न होने के कारण हम कुछ हासिल नहीं कर पा रहे हैं, वहां नहीं पहुंच पा रहे हैं जहां पहुंचना चाहिए। इन्हें पाने के लिये हमें भारत को पाने का लक्ष्य अपने सामने रखना होगा। इस लक्ष्य को पाने के लिये रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं चाहे वामपंथ हो अथवा दक्षिणपंथ, चाहे मध्‍यपंथ हो, इन सबको अपना केन्द्र भारत ही बनाना होगा। मेरे विचार से तो सबसे पहले इनका भारतीयकरण होना जरूरी है। उनका भारतीयकरण न होने के कारण हमारी अस्मिताएं क्षीण हो रही हैं, हमारा संकल्प क्षीण हो रहा है, हमारी शक्तियां क्षीण हो रही हैं, हमारा आत्मविश्वास कम होता जा रहा है और जहां आत्मविश्वास खत्म हो जाता है, वहां भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। पंथ चाहे कोई भी हो, उनमें मतभेद हो सकते हैं, किन्तु राष्ट्र की दृष्टि से कहीं मतभेद नहीं होना चाहिए।
(लेखक प्रसिध्द चिंतक एवं प्रख्यात संविधानविद् थे)

Wednesday, February 4, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से ही देश अक्षुण्ण रहेगा


विष्णुकान्त शास्त्री
मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं यह नहीं मानता कि 15 अगस्त, 1947 को भारत एक नया राष्ट्र बन गया। सच तो यह है कि ऐसा मानने वाले बहुत विरले हैं।

प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में मनु, रघु, श्रीराम, युधिष्ठिर, अशोक, विक्रमादित्य आदि कुछ ही ऐसे चक्रवर्ती राजा थे जिन्होंने पूरे भारतवर्ष पर शासन किया था। अन्यथा भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग स्वाधीन राज्य थे। हमारा इतिहास साक्षी है कि राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न राज्यों में विभक्त होते हुए भी सांस्कृतिक दृष्टि से पूरा भारतवर्ष एक देश माना जाता था। देश के किसी भी कोने में बैठ कर पुण्य कार्य करने वाला व्यक्ति जल को शुध्द करने के लिए देश के विभिन्न भागों में बहने वाली सात पवित्र नदियों का आह्वान करता था, जो परंपरा आज तक चली आ रही है।कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी कभी ऐसा नहीं कहा कि 15 अगस्त 1947 को भारत एक नया राष्ट्र बन गया। स्वाधीनता के लिए जिन वीरों ने संघर्ष किया था उनकी आंखों में स्वदेश का एक चित्र था। लोकमान्य तिलक ने जब सिंह गर्जना की थी कि 'स्वराज्य मेरा जन्मसिध्द अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा' तो वे केवल राजनीतिक स्वाधीनता की ही बात नहीं कर रहे थे। अपने 'स्व' का स्पष्टीकरण करने के लिए ही उन्होंने गीता रहस्य की रचना की थी। महात्मा गांधी ने भारतीय स्वराज्य की संज्ञा दी थी 'रामराज्य'।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने स्वाधीनता के बाद 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा था ''हमें अपनी उस विरासत और अपने उन पूर्वजों पर गर्व है जिन्होंने भारत को बौध्दिक एवं सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदान की। आप इस अतीत के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आपको भी यह महसूस होता है कि आप भी इसके साझीदार और उत्तराधिकारी हैं? क्या आप भी उस पर गौरवान्वित होते हैं, जो आपका भी उतना ही है जितना मेरा अथवा आप उसे अपना ही समझते हैं?'' उनको स्पष्ट अपेक्षा थी कि उन सब विद्यार्थियों को भी प्राचीन भारत की उपलब्धियों के लिए गौरव का अनुभव करना चाहिए। इस निरूपण से यह साफ हो जाता है कि स्वाधीन भारत प्राचीन भारत का ही विकसित आधुनिक रूप है।

मैं समझता हूं कि अपने राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के पहले हमें अपने पारम्परिक स्वरूप को पहचानना चाहिए। हमें उस स्वरूप को हृदयंगम करना चाहिए जो परिस्थितियों के दबाव में रूपत: बाहर से तो बदलता रहता है किन्तु भीतर से अपरिवर्तित रहा है। हम परम्परा के आधारभूत चिंतन मनन और जीवन में उसके प्रतिफलन को समझने की चेष्टा करें।

राजधर्म और राजनीति
महाभारत में कहा गया है कि धारण करने की शक्ति के कारण धर्म, धर्म होता है। धर्म वही है जो प्रजा धारण करे। अत: निश्चित सिध्दांत यही है कि जो धारण शक्ति से संयुक्त है वही धर्म है। यहीं कुछ चर्चा संस्कृति की भी कर ली जाये। संस्कृति अर्थात् 'सम्यक कृति'। इससे यह ध्‍वनि निकलती है कि जो कृति को सम्यक रूप से सुधार दे वह संस्कृति है। कुछ लोग कहते हैं कि संस्कृति शब्द कल्चर का अनुवाद है। यह ठीक नहीं है। हम जो कुछ करते हैं, जिस प्रकार का वैयक्तिक, पारिवारिक या सामाजिक जीवन जीते हैं, उसको निरन्तर सुधारते रहने की प्रक्रिया ही संस्कृति है।

अपनी संस्कृति की एक आधारभूत विशेषता की ओर आप लोगों का ध्‍यान आकृष्ट करना चाहता हूं। सभी जानते हैं कि अपने अपने उपास्य की उत्कृष्टता सिध्द करने के हठाग्रह के कारण धार्मिक विद्वेष उत्पन्न होता है। भारतीय संस्कृति ने इस विकृति के निराकरण के लिए एक अद्भुत स्थापना की है। ऋग्वेद में कहा गया है कि 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात परमसत्ता एक ही है जिसे विद्वान विविधा नामों से पुकारते हैं। अत: इनके लिए विवाद करना व्यर्थ है।

इस मान्यता के कारण भारत में बड़ी हद तक साम्प्रदायिक समरसता बनी रही। सम्राट हर्षवर्धन, शिव, सूर्य और बुध्द तीनों की उपासना करते थे। एक ही परिवार के भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न इष्ट देवों की पूजा करते हुए प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने इसे भारतीय संस्कृति का भेदक लक्षण घोषित करते हुए इसको 'भी वाद' की संज्ञा दी हैं। इसका अर्थ हुआ कि यदि हम सब श्रध्दापूर्वक चल रहे हैं तो भगवान तक मेरा रास्ता भी पहुंचेगा और तुम्हारा तथा उसका रास्ता भी पहुंचेगा। यह 'भी वाद' यदि सभी धर्मावलंबियों द्वारा स्वीकार कर लिया जाए तो धार्मिक संघर्ष का मूलोच्छेद हो जाए। परन्तु अभी इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि विनोबा भावे के अनुसार यहूदी, ईसाई और इस्लाम 'ही वाद' धर्म हैं। यह भी यहां जोड़ दूं कि बाबा विनोबा भावे के अनुसार मार्क्‍सवादी भी 'ही वादी' ही हैं। वे भी सबों पर अपना सिध्दांत थोपने के हठाग्रही हैं।

समग्र मानव जीवन के मंगल का विधान करने वाली हमारी सांस्कृतिक चेतना ने जिस भारतीय समाज और राष्ट्र का निर्माण किया उनमें राजनीति की भूमिका को महत्वपूर्ण तो माना गया है किन्तु उसे सर्वोपरि नहीं माना गया है। धर्मधिष्ठित राजनीति का ही हमारे देश में सम्मान था। भारतीय चेतना ने आदर्श शासक के रूप में श्रीराम को ही स्वीकार किया है, जिनकी प्रशस्ति में कहा गया है, 'रामो विग्रहवान धर्म:' राम तो मूर्तिमान धर्म ही है।

राजनीति कभी सत्यमयी, कभी मिथ्यामयी, कभी कठोर, कभी प्रियभाषिणी, कभी हिंसामयी, कभी दयालु, कभी लोभी, कभी उदार, कभी अत्यंत खर्चीली, कभी अत्याधिक अर्जनशील होती है। राजनीति वस्तुत: कल्याणकारी तभी होती है जब वह सच्चे राजधर्म पर आधारित होती है, जिसका एक प्रधान लक्षण यह है कि राजा पार्थिव व्रत का निर्वाह करे अर्थात् उसी प्रकार बिना किसी भेदभाव के सारी प्रजा का समानभाव से पालन करे जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों को समान भाव से धारण करती है। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय धर्म व राज्य को मजहबी राज्य या थियोक्रेटिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें जाति, भाषा, उपासना पध्दति आदि के आधार पर जनता में भेदभाव नहीं किया जाता था।

संस्कृतिपरक भारतीय राष्ट्रवाद
यह तथ्य भी उल्लेख्य है कि प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में मनु, रघु, श्रीराम, युधिष्ठिर, अशोक, विक्रमादित्य आदि कुछ ही ऐसे चक्रवर्ती राजा थे जिन्होंने पूरे भारतवर्ष पर शासन किया था। अन्यथा भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग स्वाधीन राज्य थे। हमारा इतिहास साक्षी है कि राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न राज्यों में विभक्त होते हुए भी सांस्कृतिक दृष्टि से पूरा भारतवर्ष एक देश माना जाता था। देश के किसी भी कोने में बैठ कर पुण्य कार्य करने वाला व्यक्ति जल को शुध्द करने के लिए देश के विभिन्न भागों में बहने वाली सात पवित्र नदियों का आह्वान करता था, जो परंपरा आज तक चली आ रही है।

यह ठीक है कि राजनीति को कम महत्व देने का दंड भी हम लोगों को भोगना पड़ा है। जब विदेशी शक्तियां राज्यों पर आक्रमण करती थीं तो देश भर के सभी राज्य मिल कर उनका प्रतिरोध नहीं करते थे। फलत: एक-एक करके वे राज्य विपन्न होते रहे और हमें पराधीनता का अभिशाप भोगना पड़ा। अब हम इस ओर भी सावधान रह कर अपने को राजनीतिक दृष्टि से भी अजेय बनायें, यही अभीष्ट है। जो हो, अपने विचारक्रम को ऐतिहासिक दृष्टि से आगे बढ़ाने पर यह लक्षित किया जा सकता है कि जब तुर्क आये, पठान आये, मुगल आये और केन्द्रीय राज्य क्षमता छिन गयी, तब भी हमारी संस्कृति ने ही सारे देश को एक मानने की दृष्टि को अक्षुण्ण रखा।

यह दिवालोक की भांति स्पष्ट है कि धार्मिक कट्टरता को लांघ कर साधाना और साहित्य के क्षेत्र में पठान-मुगल काल में ही भारतीय संस्कृति की उदारता को मुसलमान भाई अपना रहे थे। दाराशिकोह द्वारा उपनिषदों का फारसी अनुवाद करवाना भी इसी धारा की कड़ी है। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि औरंगजेब की मजहबी कट्टरता ने इस धारा को अवरूध्द करना चाहा पर फिर भी मंदगति से ही सही वह धारा प्रवाहित होती रही। संत प्राणनाथजी ने समन्वय की दृष्टि से औरंगजेब को पत्र भी लिखा और अपने सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण के निराकार रूप की उपासना का प्रवर्तन किया। संगीत, चित्रकला एवं नृत्य के क्षेत्र में भी आदान प्रदान चलता रहा। यह उदार समन्वयी धारा निश्चय ही भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गौरवपूर्ण उपलब्धि है।

1857 में अंग्रेजों के विरूध्द छेड़े गये प्रथम स्वाधीनता संग्राम के पूर्व जनसंघर्ष की चेतना जगाने के लिए रोटी के साथ-साथ कमल को प्रतीक के रूप में चुनना, हमारी सांस्कृतिक चेतना के कारण ही संभव हो सका था। इस संग्राम में कंधे से कंधा मिलाकर हिन्दू और मुसलमान अंग्रेजी राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए लड़े थे। दुर्भाग्य से इस स्वातंत्र्य समर के विफल होने के बाद जनता में व्यापक हताशा फैल गयी। राष्ट्र को इस हताशा से उबारने के लिए पुन: एक बार हमारी सांस्कृतिक चेतना ही सक्रिय हुई। राजा राम मोहन राय, श्री रामकृष्ण परमहंस देव, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द सरस्वती, श्री अरविन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरूषों ने भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों को उभार कर और विकृतियों को नकार कर पुन: देश में नवजीवन का संचार किया। इस सांस्कृतिक जागरण का एक सुफल यह भी हुआ कि पाश्चात्य ज्ञान-विभान और जीवन मूल्यों के अंधानुकरण के अतिरेकों से मुक्त होकर भारतीय प्रबुध्द चित्र ने भारतीय और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान आदि के स्वस्थ समन्वय पर बल दिया। इस सांस्कृतिक जागरण की फलश्रुति ही थे भारतीय स्वाधीनता के सहिंस और अहिंसा आन्दोलन। आरंभ में इन आन्दोलनों को सभी भारतीयों का समर्थन प्राप्त था। किन्तु कालान्तर में अंग्रेजों की कूटनीति के कारण कट्टरपंथी मुसलमान इनसे कटते गये। दुर्भाग्य की बात है कि ''सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा'' लिखने वाले अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान का बीजारोपण किया और एक समय के हिन्दू मुस्लिम एकता के समर्थक, नरमपंथी नेता कायदे आजम जिन्ना अंग्रेजों की कूटनीति को सफल करते हुए पाकिस्तान के जनक बने। मजहब के आधार पर जिस पाकिस्तान की सृष्टि हुई थी वह 1971 में टूट गया। स्वाधीन बांग्लादेश इस बात का प्रमाण है कि मजहब के नाम पर बने पाकिस्तान की नींव कितनी खोखली थी। बचे-खुचे पाकिस्तान में भी पंजाबी, सिंधी, बलूची, पख्तून, मुहाजिर के भेद उग्र होते जा रहे हैं। मुहाजिरों के नेता अल्ताफ हुसैन ने तो साफ-साफ कह दिया है कि पाकिस्तान का निर्माण ऐतिहासिक भूल थी। इसलिए उसने ''सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा'' फिर से गाना शुरू कर दिया है।

इससे यही शिक्षा लेनी चाहिए कि उपासना पध्दति एवं सामाजिक रीति-नीति की भिन्नताओं के बावजूद साझी भारतीय सांस्कृतिक चेतना को हम लोग और दृढ़ करें।

भारत में बड़ी हद तक साम्प्रदायिक समरसता बनी रही। सम्राट हर्षवर्धन, शिव, सूर्य और बुध्द तीनों की उपासना करते थे। एक ही परिवार के भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न इष्ट देवों की पूजा करते हुए प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने इसे भारतीय संस्कृति का भेदक लक्षण घोषित करते हुए इसको 'भी वाद' की संज्ञा दी हैं। इसका अर्थ हुआ कि यदि हम सब श्रध्दापूर्वक चल रहे हैं तो भगवान तक मेरा रास्ता भी पहुंचेगा और तुम्हारा तथा उसका रास्ता भी पहुंचेगा। यह 'भी वाद' यदि सभी धर्मावलंबियों द्वारा स्वीकार कर लिया जाए तो धार्मिक संघर्ष का मूलोच्छेद हो जाए। परन्तु अभी इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि विनोबा भावे के अनुसार यहूदी, ईसाई और इस्लाम 'ही वाद' धर्म हैं। यह भी यहां जोड़ दूं कि बाबा विनोबा भावे के अनुसार मार्क्‍सवादी भी 'ही वादी' ही हैं। वे भी सबों पर अपना सिध्दांत थोपने के हठाग्रही हैं।मध्‍ययुग में राजनीति की उपेक्षा करने का भरपूर दण्ड हम लोग भोग चुके हैं अत: अब राजनीतिक आवश्यकताओं के प्रति भी पूर्णत: सजग रहना होगा। खासकर इस बात का ध्‍यान रखना होगा कि देश में बलिष्ठ राज्यों के साथ-साथ केन्द्र भी भरपूर बलिष्ठ हो जिससे हमारी सीमाओं पर कारगिल के सदृश अनुप्रवेश करने का दुस्साहस करने वालों को उचित सबक सिखाया ज

एकात्म भारतीय संस्कृति
संसार का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसकी संस्कृति ने दूसरे देशों की संस्कृतियों से आदान-प्रदान न किया हो। आधुनिक युग में यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी है। फिर भी दुनिया का कोई दूसरा देश ऐसा नहीं है जो अपनी संस्कृति को सामासिक संस्कृति कहता हो। अत: हमें अकुंठ चित्त से अपने देश की संस्कृति को सीधे भारतीय संस्कृति ही कहना चाहिए।

(एकात्म मानववाद अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा आयोजित सेमिनार में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा दिए गए भाषण से संकलित है।)
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है