Thursday, August 14, 2008

सबक सीखने से इनकार


ए.सूर्यप्रकाश
सबक सीखने से इनकार मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कट्टर विचारों वाले नेता अपने फरमान का पालन न करने वाले लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के बारे में कैसी भी राय क्यों न बनाएं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चटर्जी ने खुद को विट्ठलबाई पटेल और जीवी मावलंकर जैसे उन चमकते पूर्ववर्तियों की पंक्ति में खड़ा कर लिया है जो अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और साथियों की धौंसपट्टी में नहीं आए। लोकतंत्र और संविधान को महत्व देने वाले प्रत्येक नागरिक को सोमनाथ चटर्जी द्वारा एक अगस्त को जारी किए गए चार पेज के विस्तृत बयान को जरूर पढ़ना चाहिए।
इससे पता चलेगा कि हम लोकसभा के स्पीकर की स्वतंत्रता का हनन करने के कितना करीब पहुंच गए थे। यदि वह कामरेडों की धमकियों और उनकी राजनीतिक चालों का सामना न करते तो एक अहम संवैधानिक पद की निष्पक्षता और गरिमा को क्षति पहुंचा बैठते। अस्पष्ट जनादेश, वोट बैंक की चिंता और नोटों की महिमा के इस हताशापूर्ण दौर में स्पीकर यदि अपनी पार्टी के आलाकमान के हाथों की कठपुतली बन जाते तो लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील ठुक जाती। सोमनाथ चटर्जी ने तभी अपने इरादे साफ कर दिए थे जब उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी के पत्र के साथ सांसदों की सूची में अपना नाम शामिल करने के माकपा के निर्णय पर ऐतराज जताया था।
सोमनाथ चटर्जी ने मा‌र्क्सवादियों को उस असाधारण घटनाक्रम की याद दिलाई जिसमें स्पीकर के रूप में उनका नाम प्रस्तावित करते समय 18 नामांकन पत्र भरे गए थे। इन्हें भरने वालों में सत्ताधारी गठबंधन ही नहीं, बल्कि प्रमुख विपक्षी दल और उसके सहयोगी भी शामिल थे। दुर्भाग्य से न तो इन तथ्यों ने और न ही स्पीकर की निष्पक्षता की परंपरा ने उन लोगों पर कोई प्रभाव छोड़ा जो माकपा को चलाते हैं। इसलिए उन्होंने मान लिया कि सोमनाथ चटर्जी की प्राथमिक वफादारी पार्टी के प्रति होनी चाहिए, इसके अलावा कहीं नहीं। संभवत: उन्होंने स्पीकर के पद की संवैधानिक मान्यता को भी अपनी राजनीतिक विचारधारा के चश्मे से देखने की कोशिश की। सौभाग्य से सोमनाथ चटर्जी ने माकपा की इस कोशिश को चुनौती दी और अपने पूर्व कामरेडों को संवैधानिक धर्म के बुनियादी उसूल सिखाए। उन्होंने घोषणा की कि स्पीकर की किसी दल से संबद्धता नहीं होती और इसलिए कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति या अधिसत्ता राष्ट्रपति को दी गई सूची में उनका नाम नहीं डाल सकती। उन्होंने कहा, पार्टी को यह महसूस करना चाहिए था कि एक स्पीकर होने के नाते मैं किसी दल का प्रतिनिधित्व नहीं करता, न ही स्पीकर के कार्यो के संबंध में पार्टी मुझे कोई निर्देश ही दे सकती है।
मैं इस बात को पूरी जोरदारी के साथ दोहराना चाहता हूं। यह कहना पर्याप्त होगा कि माकपा ने जो कुछ किया वह किसी ऐसे व्यक्ति या संस्थान का ही कार्य हो सकता है जिसने लोकतांत्रिक तौर-तरीके न सीखे हों। सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पार्टी को चुनौती देकर एकदम सही किया। उनके समक्ष अनेक अनुकरणीय पूर्ववर्ती हैं, जो पद का सम्मान करते हुए नुकसान उठाने को मजबूर हुए। देश में विधायी सदनों के लिए मार्गदर्शक पुस्तक प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर आफ पार्लियामेंट के रचयिता एसएल शकधर और एमएन कौल ने पूर्व स्पीकरों द्वारा प्रतिपादित कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को लिपिबद्ध किया है। इस सूची में पहला नाम है केंद्रीय विधायी सभा के चुने हुए पहले स्पीकर विट्ठलभाई जे. पटेल का। यह विधायी सभा भारत की स्वतंत्रता की घोषणा तक कायम रही। वह स्वराज पार्टी के सदस्य थे। 1925 में स्पीकर के रूप में अपना चुनाव किए जाने पर उन्होंने अपनी पार्टी से नाता तोड़ दिया। अगली बार वह निर्दलीय के रूप में चुनाव में उतरे और उन्होंने इस पर जोर दिया कि स्पीकर को दलगत राजनीति से परे होना बेहद जरूरी है। उन्हें निर्विरोध चुन लिया गया और जनवरी 1927 में वह फिर से स्पीकर बन गए। स्वतंत्र भारत के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर ने एक अवसर पर कहा कि हमारे राजनीतिक और संसदीय जीवन के वर्तमान हालात में भारतीय स्पीकर के लिए पूरी तरह अंग्रेज स्पीकर जैसा बनना आसान नहीं होगा, फिर भी उसे निश्चित तौर पर पार्टी मामलों और विवादों के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए। दलगत राजनीति से स्पीकर को बिल्कुल अलग-थलग करने के लिए उन्होंने राजनीतिक दलों को सुझाव दिया कि एक स्वस्थ परंपरा कायम करते हुए सदन के स्पीकर को निर्विरोध चुना जाना चाहिए।
इस परंपरा को कायम किए बिना स्पीकर को पूरी तरह गैर-राजनीतिक मानना विरोधाभासी संभावनाओं की अपेक्षा करने के समान होगा। स्पीकर की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए पीठासीन अधिकारियों ने अनेक संगोष्ठियों में यथार्थवादी रुख अपनाया। इसकी शुरुआत 1951 में आयोजित एक संगोष्ठी से हुई। इसका यह प्रभाव हुआ कि 1957 में स्पीकर के रूप में किसी भी राजनीतिक दल ने अनंतसयनम आयंगर का विरोध नहीं किया। आयंगर ने कांग्रेस संसदीय दल से इस्तीफा देकर इस परंपरा का मान बढ़ाया। हालांकि उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था। बाद के वर्षो में चौथी लोकसभा के स्पीकर चुने जाने पर नीलम संजीव रेड्डी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उनके उत्तराधिकारी जीएस ढिल्लन ने कांग्रेस संसदीय दल से उनके इस्तीफे की घोषणा की। यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि सोमनाथ चटर्जी ने स्पीकर चुने जाने के बाद भी माकपा से संबंध विच्छेद नहीं किया इसलिए स्पीकर पद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्वराज पार्टी से संबंध तोड़ने वाले विट्ठलभाई पटेल के समान नहीं हो सकती। इस दलील में कुछ दम हो सकता है, किंतु इससे माकपा को स्पीकर को आंखें दिखाने का अधिकार नहीं मिल जाता। पूर्व में अनेक स्पीकरों ने अपनी पार्टी कांग्रेस से औपचारिक रूप से नाता नहीं तोड़ा था। इनमें जीवी मावलंकर, शिवराज पाटिल और पी संगमा शामिल हैं, किंतु उनकी तरफदारी में यह कहा जा सकता है कि वे अपने शासनकाल में साफ तौर पर पार्टी के अनुशासन और पार्टी की अंदरूनी राजनीति से मुक्त रहे। उनके साथ व्यवहार में कांग्रेस ने भी संवैधानिक रूप से सही रुख अपनाया और ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनकी गरिमा पर आंच आती। भविष्य में स्पीकर और उसकी पार्टी के बीच संबंध तनावपूर्ण होने से बचाने के लिए सोमनाथ चटर्जी ने सुझाव दिया कि स्पीकर को अस्थाई रूप से अपने पार्टी से इस्तीफा दे देना चाहिए। एक समय ठीक यही विट्ठलभाई पटेल ने किया था और मजे की बात है कि दलबदल विरोधी कानून में पीठासीन अधिकारियों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
सोमनाथ चटर्जी के उत्तराधिकारी उनकी सलाह मान सकते हैं। हालांकि तब तक इस बात से छुटकारा नहीं मिलेगा कि जो राजनेता लोकतांत्रिक तौर-तरीके अपनाने के आदी नहीं हैं और जो विचारधारा के कारण पूंजीवादी लोकतांत्रिक संस्थानों से नफरत करते हैं वे संभवत: इन स्वस्थ परंपराओं का पालन नहीं कर सकते। जिस अंदाज में माकपा ने भारतीय संसद के पहले कम्युनिस्ट स्पीकर के साथ व्यवहार किया और प्रत्युत्तर में सोमनाथ चटर्जी ने अपने पूर्व कामरेडों को यह सीख दी कि जब तक वे लोकतांत्रिक मैदान में खेल रहे हैं तब तक उन्हें इसके नियम-कायदे और संवैधानिक तौर-तरीकों का पालन करना होगा उससे यह मुद्दा केंद्रीय भूमिका में आ गया है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Tuesday, August 12, 2008

भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे : रिपोर्ट


नई दिल्ली : एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के अधिकतर मुसलमानों के पूर्वज अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के हिंदू थे, जिन्होंने कालांतर में इस्लाम धर्म अपना लिया और मुसलमान बन गए। आंध्र प्रदेश के मुस्लिम समुदाय में 'सामाजिक और शैक्षणिक वर्ग की पहचान' पर तैयार की गई रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि देश के 85 फीसदी मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे जो अनुसूचित जातियों या पिछड़े तबकों से संबंध रखते थे। इन लोगों ने विभिन्न समयों पर इस्लाम ग्रहण कर लिया।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सलाहकार पी.एस. कृष्णन द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में मुसलमानों और देश में उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति की तस्वीर पेश की गई है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं का मुसलमान बनना समय समय पर चलता रहा... खासकर मध्यकाल में इसने और अधिक गति पकड़ ली। कृष्णन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदुओं में जातिवाद की कठिन व्यवस्था ने इन लोगों के मुसलमान बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

रिपोर्ट में कहा गया है कि इन लोगों ने छुआछूत और भेदभाव से बचने के लिए इस्लाम को अपनाया। उनके लिए इस्लाम कबूल करना एक राहत की बात थी। दक्षिण भारत में कुछ समुदायों के लोगों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। आंध्र प्रदेश में 98 प्रतिशत ईसाई हिंदू अनुसूचित जाति मूल के हैं। पंजाब में इन लोगों ने सिख धर्म अपनाया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के हिंदुओं ने अन्य मजहबों को अपनाया, लेकिन हर जगह पिछड़ापन उनके साथ रहा। यह पिछड़ापन आज भी जारी है और अधिकतर मुसलमान गरीब हैं। कृष्णन ने कहा कि बहुत से शासकों ने मुसलमानों के पिछड़ेपन को महसूस किया और उन्हें मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की। सबसे पहले कोल्हापुर के महाराज ने 1902 में मुसलमानों के लिए आरक्षण शुरू की, जबकि मैसूर के महाराजा ने यह कदम 1921 में उठाया। इसी तरह बम्बई प्रेज़िडंसी और बाद में मद्रास प्रेज़िडंसी ने भी आरक्षण की पेशकश की।

रिपोर्ट में मुसलमानों के 14 ऐसे समुदायों की पहचान की गई है जिन्हें पिछड़ी श्रेणी में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। कृष्णन ने यह रिपोर्ट विभिन्न क्षेत्रों के दौरे और भारत की सामाजिक व्यवस्था पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर तैयार की है।
साभार नवभारत टाईम्स
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है